मैथुन जरूरत और जानकारी के बीच की आधारशिला
श्रवण कुमार बाजपेयी
हजारों साल पहले महर्षि वात्स्यायन द्वारा सूत्रबद्ध कामसूत्र ग्रंथ की प्रासंगिकता कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी क्योंकि यह रिश्तों के प्रति समग्र दृष्टिकोण, आपसी आनंद पर ज़ोर और कामुकता को मानव जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा मानने का सिद्धांत देता है। कामसूत्र में सम्भोग से जुड़े कई महत्वपूर्ण तथ्य बताए गए हैं लेकिन यह सिर्फ सम्भोग की क्रिया से जुड़ा विषय नहीं है। यह एक व्यापक मार्गदर्शिका है, जो रिश्तों को आगे बढ़ाने, इच्छाओं को समझने तथा संतुलित जीवन जीने में मदद करती है।
लगभग दो सहस्राब्दी पहले लिखे जाने के बावजूद कामसूत्र ग्रंथ आज भी दुनिया भर के पाठकों को पढ़ने को विवश करती है। कामसूत्र का उद्देश्य सिर्फ यौन क्रीड़ाओं के बारे में बताना मात्र नहीं था। दरअसल चार पुरुषार्थों में धर्म, अर्थ और काम तो सांसारिक पुरुषार्थ हैं और मोक्ष संसार से मुक्ति है। संसार में जो भी उत्पन्न होता है उसमें दो विपरीत लिंगों का संसर्ग अनिवार्य है। संसर्ग का अर्थ सम्यक प्रकार से किया गया मिलन है। यह तभी सम्भव है जब दो विपरीत लिंग के अंदर एक दूसरे के प्रति सहज, निष्काम और नैसर्गिक प्रेम और आकर्षण उत्पन्न हो। ऐसी स्थिति में जो भी क्रियाएं सहज रूप से होती हैं वे आनंद के चरम पर ले जाने में सहायक बनती हैं। उस समय का वह क्षण भर का चरम सुख यदि प्रत्येक क्षण बना रहे तो यही मोक्ष पुरुषार्थ बन जाता है।
यहां से बात घूमकर-फिरकर तत्व ज्ञान पर आ जाती है। जब काम अधोमुख होकर गति करता है अर्थात सिर्फ शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बनता है तो चरम सुख क्षण भंगुर होता है और एक समय पश्चात हमें शक्तिविहीन कर देता है, पर जब यह ऊर्ध्वमुखी होता है तो यही काम ज्ञान में रूपांतरित होकर शाश्वत चरम सुख प्रदान करता है, जिसे मोक्ष कहते हैं। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र वास्तव में सम्भोग से समाधि की ओर ले जाने की कला सिखाता है।
काम का संस्कृत अर्थ सिर्फ सम्भोग नहीं बल्कि तीव्र इच्छा होती है। ग्रंथों में ऐसा बताया गया है कि प्रजापति दक्ष ने त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ और काम पर एक लाख अध्याय बोले थे। इस त्रिवर्ग का मकसद यह था कि धरती पर रहने वाले जीवों को ये बताया जाए की एक धार्मिक जीवन के साथ सुख से कैसे रहा जाए। अक्सर हम जब कामसूत्र के बारे में सोचते हैं तो हमें लगता है कि ये सम्भोग के बारे में एक पुस्तक है लेकिन सम्भोग तो कामसूत्र का 20 प्रतिशत हिस्सा भी नहीं है।
मैथुन एक बहुत ही संवेदनशील विषय है। इसे स्कूल-कॉलेजों में पाठ्य पुस्तकों में जगह देने की बातें तो बहुत हुईं लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं हुआ। पंचविलास के पांच तत्वों में मद्य, मैथुन, कौतुक, द्युत और संगीत शामिल हैं। जो पंचविलास कभी राजा-महाराजाओं के लिए था आज उसकी जद में हर कोई आने की कुचेष्टा करता है। पंचविलास जब जब अपनी पराकाष्ठा पर आते हैं, कोई न कोई अनर्थ जरूर करते हैं। मद्य के सेवन से महिषासुर बर्बाद हुआ। मैथुन से इंद्र अपमानित हुए, कौतुक से आसाराम सहित न जाने कितने संत अपनी विश्वसनीयता खो बैठे, द्युत कीड़ा से युधिष्ठिर पत्नी का अपमान देखते रहे, संगीत-नृत्य के वशीभूत बहुत से लोग अपनी प्रतिष्ठा और सम्पत्ति खो बैठे।
मौजूदा काल में मनुष्य जानवरों से भी गया बीता हो गया। मैथुन की न कोई संज्ञा है न परिभाषा। लोग इसे मौजमस्ती का साधन मानते हैं। न कोई मान न मर्यादा, तभी तो लोग परेशानी में डूबते जा रहे हैं। उम्र की कोई सीमा नहीं रही, असमय मृत्यु इसका प्रमाण है। मैथुन हर जीव का परम सुख और जीवन है। स्वयं की इच्छाओं पर विजय पाकर मिली आजादी ही सम्भोग जैसे कार्य को भी प्रेम बना देती है। ऐसा प्रेम, जो समाज को चलाने में सहायक है। ऐसा प्रेम जो समाज में स्त्री-पुरुष को उनके उत्तरदायित्व को निभाने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा प्रेम जोकि उत्पत्ति का रहस्य है।
सरल शब्दों में मैथुन प्रजनन हेतु की गई वो प्रक्रिया है जिसमें एक पुरुष एक स्त्री के सम्पूर्ण शारीरिक सम्पर्क में आकर उसकी योनि में अपने जननांग से वीर्य बीज का दान करता है, जिससे संतान की प्राप्ति हो सके। यह तो हो गई लक्ष्य हेतु की गई मैथुन की व्याख्या। परंतु यदि वीर्य को लक्ष्य में रखकर मैथुन की व्याख्या करनी हो तो ‘मैथुन’ शब्द अपने आप में पूरी प्रक्रिया की व्याख्या कर देता है। दरअसल, मैथुन शब्द आता है ‘मंथन’ शब्द से। जिसका अर्थ है मथना, जैसे कि समुद्र के मंथन से देवों को अमृत मिला था, और दूध के मंथन से हमें मक्खन मिलता है, वैसे ही शरीर के मंथन से वीर्य मिलता है।
दूध में मक्खन दिखता नहीं है, पर उसकी बूँद बूँद में विद्यमान होता है। वैसे ही शरीर में वीर्य दिखता नहीं है, परंतु उसके कोष कोष में विद्यमान होता है। जब दूध में से मलाई निकाल ली जाए तो दूध पतला और रसहीन हो जाता है, मक्खन निकाल लिया जाए तब तो दूध ही नहीं रहकर छाछ बन जाती है। वैसे ही जब जब पुरुष के शरीर में से वीर्य निकलता है तब तब उसके शरीर से पौरुष निकल रहा होता है। जिसका विश्व में सिर्फ़ एक ही सार्थक उपयोग है, जोकि है संतान प्राप्ति।
हम यही सोचकर मैथुन करते हैं कि इसमें परम आनंद मिल जाएगा। परंतु यदि सही में मैथुन में इतना आनंद होता तो वेश्याएं दुनिया के सबसे आनंदित लोगों में से एक होतीं। परंतु सत्य एकदम विपरीत ही देखने को मिलता है। इसीलिए हम हर बार यह सोचकर मैथुन या हस्तमैथुन करते हैं कि इस बार तो उत्तम आनंद मिलेगा, भले पिछली बार नहीं मिला था। अनावश्यक वीर्यपात ग्लानि का कारण बनता है। वीर्यपात से ग्लानि नहीं होती बल्कि वीर्य नाश से होती है। जब आप गर्भाधान हेतु मैथुन करते हो और वीर्य योनि में स्खलित होता है तब स्त्री और पुरुष दोनों को परम आनंद की अनुभूति होती है। जब हम वीर्य का सार्थक उपयोग न करके व्यर्थ बहाते हैं, तब हमें ग्लानि होती है।
शारीरिक भोग आध्यात्मिक जगत में नहीं कर सकते, इसीलिए भगवान ने हमारी सबसे तगड़ी इच्छा यानी यौन क्रिया को ही इस भौतिक सृष्टि के सर्जन और पालन का केन्द्र बना दिया। उसी यौन क्रिया के संयम को इस दुःखालय से बाहर निकलने का द्वार भी बना दिया, जिसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। भौतिक जगत में मैथुन सबसे बड़ा आनंद है, सभी इंद्रिय सुखों में सर्वोच्च सुख है मैथुन सुख। यहाँ तक कि समस्त सुखों में बस यही एकमात्र सुख है जिसे दिवंगत स्तर का सुख कहा गया है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जड़ इंद्रियों से उच्च मन, उससे उच्च बुद्धि, उससे उच्च अहंकार और उससे भी उच्च आत्मा होती है। अतः जब मनुष्य मन, बुद्धि, अहंकार और उनसे भी उत्तम आत्मा के स्तर का सुख प्राप्त कर लेता है तो उसे जड़ेन्द्रियों के सुखों में रुचि नहीं रहती।
ब्रह्मचर्य तब से खंडित होना शुरू हो जाता है जब हम स्त्री भोग का प्रथम विचार करते हैं। मैथुन के विचार से लेकर मैथुन की क्रिया तक के आठ चरणों को शास्त्रों में आठ प्रकार के मैथुन बताए गए हैं। श्रवणं व स्मरणं, कीर्तन, केलि, प्रेक्षणं, गुह्यभाषणं, संकल्प, व्यवसाय तथा क्रियानिवृत्ति यही अष्ट मैथुन हैं। यह सभी आठ चरण ब्रह्मचर्य नाश का कारण बनते हैं। लोगों में यह सामान्य मिथ्या धारणा है कि वीर्य तो तभी बनता और निकलता है जब प्रत्यक्ष मैथुन करते हैं। परंतु शरीर में वीर्य बनने की शुरुआत ऊपर बताए अष्ट मैथुन के प्रथम चरण से ही हो जाती है। जैसे ही कामवासना का मनोमंथन शुरू होता है, हमारी इंद्रियाँ शरीर का मंथन करके उसके प्रत्येक कोषों से वीर्य को मथना शुरू कर देती हैं। देखा जाए तो यौन जिज्ञासा बचपन में ही शुरू हो जाती है। छोटे बच्चे भी दूसरे बच्चे के लिए प्यार की गहरी भावनाओं का अनुभव कर सकते हैं और जब यौवन शुरू होता है, तो सेक्स और रोमांटिक संबंध दोनों में रुचि बढ़ जाती है।
मैथुन को प्रजनन से जोड़ा गया। जो पुत्र प्राप्ति का जरिया बताया गया। वेद, पुराण, अध्यात्म और सामाजिक तत्व इसे अपनी भाषा में परिभाषित करते रहे। वेदों ने इसे संतान उत्पत्ति का साधन माना। अथर्ववेद ने भी मुख्यतः यही आधार रखा। पुराणों ने शारीरिक संतुष्टि समझा। धर्म ने मर्यादा का रूप दिया। अध्यात्म ने ऊर्जा का आदान प्रदान और ईश्वर से मिलन का एक साधन बताया। सामाजिक दृष्टिकोण में इसे परिवार बढ़ाने का माध्यम माना गया। एक बात सबमें समान दिखी सब लोगों ने इसे शादी के बाद अनुमति दी।
मैथुन के लिए विपरीत लिंगी सहयोगी की जरूरत पड़ती है। दोनों का अपना निजी स्वार्थ होता है। दोनों का अपना निजी आनंद होता है। दोनों अगर राजी हों तो ही इसे मर्यादित क्रीड़ा का नाम दिया जाता है। अगर दोनों में स्वीकृत न हो तो इसे दैत्य क्रीड़ा कहा जाता है। ओशो ने इसे बड़े ही सुंदर ढंग से पेश किया है। ओशो का कहना है बिना प्रेम के मैथुन सम्भव नहीं है। आवेश, आनंद इसे ईश्वर से जोड़ देता है। बिना प्रेम मैथुन अपराध को जन्म देता है। मैथुन एक तरह का अभिशाप भी है। मानव और पशु दोनों करते हैं। आहट, निद्रा, भय और मैथुन मानव-पशु में समान है लेकिन धर्म ही है जो इसे सिर्फ मानव से जोड़ता है।
बिना प्रेम का मैथुन तामस से ग्रसित हो जाता है। तब निर्भया जैसे कांड होते हैं। मैथुन विवेक, सम्मान और मर्यादा को खो देता है, लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। छोटी-छोटी बच्चियों के साथ हो रहे दुराचार मैथुन के सबसे विद्रूप और अनर्थकारी उदाहरण हैं। मैथुन के लिए पत्नी को उचित दर्जा दिया गया है। जानवर साल के कुछ महीने ही इस तरफ जाते हैं, जबकि मनुष्य हर क्षण हर पल वासना के वशीभूत हो जाता है। एक बार ब्रह्माजी से पूछा गया कि मैथुन कब करना चाहिए। ब्रह्मा ने कहा जब संतान की अभिलाषा हो तब। इससे भी जी न भरे तो साल में दो बार। प्राणी सवाल करता गया इससे भी जी न भरे तो। अंत में महीने में एक बार रजस्वला स्थिति में किंतु इससे भी न भरे तो ब्रह्मा ने कहा अपनी मौत को निमंत्रित कर लो। जानवरों ने तो इस मर्यादा का पालन किया और साल के कुछ महीने निर्धारित कर जीवन यापन करना जारी रखा लेकिन इंसान की फितरत नहीं बदली।