युगांतरकारी क्षण देख पुलकित हुआ हिन्दुस्तान

एक बार फिर गंगा-जमुनी संस्कृति की झलक दिखी
खेलपथ संवाद
अयोध्या।
सोमवार को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की यथास्थान प्राण-प्रतिष्ठा को युगांतरकारी क्षण कहना उपयुक्त होगा। कुछ किन्तु-परन्तु के बावजूद भी गंगा-जमुनी संस्कृति की झलक ने सभी को भावविह्वल कर दिया। निश्चित रूप से अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर में गरिमामय प्राण प्रतिष्ठा देश के धार्मिक-सांस्कृतिक इतिहास में एक युगांतरकारी घटना है। पांच सौ साल तक धैर्य से आंदोलनरत रहने के बाद जब यह दिन आया तो देश में उल्लास स्वाभाविक ही है। 
इस दिन को देखने की आस में कई पीढ़ियां इंतजार करके परलोक गमन कर गईं। दुनिया में यह अपने आप में शायद पहला उदाहरण होगा कि एक स्वतंत्र देश में अपने आराध्य के जन्मस्थान पर आस्थास्थल के निर्माण में पौन सदी तक कानूनी प्रक्रिया चली हो। फिर न्यायिक फैसले के अनुरूप ही धार्मिक स्थल का निर्माण सुनिश्चित हुआ हो। यही भारतीय समाज में गंगा-जमुनी संस्कृति की खूबसूरती है कि दोनों पक्षों ने न्यायालय के आदेश का सम्मान किया। निस्संदेह, भारतीय लोकजीवन में राम रचे-बसे हैं। भारतीय संस्कृति और अस्मिता के प्रतीक हैं। ऐसे प्रतीक जिससे बहुसंख्यक समाज ऊर्जा हासिल करता है। 
लोकव्यवहार में उनके आदर्शों की स्वीकार्यता इतनी अधिक है कि हर साल लोकमान्यताओं पर आधारित लीलाओं का मंचन रामलीला के रूप में किया जाता है। देश-देहात में जब अनजाने लोग भी मिल जाते हैं तो राम-राम कहकर अभिवादन करते हैं। ऐसे में अयोध्या में भव्य-दिव्य-नव्य राम मंदिर का एक संदेश यह भी है कि हम श्रीराम के आदर्शों व जीवन मूल्यों का अनुपालन अपने दैनिक जीवन में भी करें। कोशिश हो कि विविध संस्कृतियों वाले देश में राम की स्वीकार्यता को नया विस्तार मिले। 
साथ ही सत्ताधीश भी रामराज्य की अवधारणा को अपना आदर्श मानकर विभिन्न धर्मों व संस्कृतियों वाले देश में समरसता का समाज बनाने को प्रयासरत रहें। निस्संदेह, राम राजनीति के विषय नहीं हैं, राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक हैं। हम न भूलें कि हमारा संविधान भी रामराज की अवधारणा की आकांक्षा रखता है। बीसवीं सदी में जब देश ने उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई जीतकर आजादी पाई तो स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने देश में शासन में रामराज्य का आदर्श देखा था। उनके मन में रामराज्य की लोककल्याणकारी छवि केंद्रित थी।
कह सकते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने रामराज्य को एक समावेशी लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में देखा। इसकी वजह है कि भारत एक बहुसांस्कृतिक व बहुधर्मी देश है। जिसके चलते भारतीय गणराज्य की कल्पना एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में की गई। महात्मा गांधी ने भी रामराज्य का सपना देखा था। ऐसा रामराज्य जिसमें पारदर्शिता के साथ वास्तविक सुशासन हो। एक आदर्श सुशासन की व्यवस्था ही उनके लिये सच्चा लोकतंत्र था। जिसमें राजा और रंक के समान अधिकार हों। उनकी दृष्टि में रामराज्य ममता समता का शासन था। 
सत्य और धर्म उसका आधार था। यद्यपि उनकी दृष्टि में राम-रहीम में कोई भेद नहीं था। बहरहाल, अब जब सदियों के विवाद का पटाक्षेप करके अयोध्या में राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का कार्य विधिवत संपन्न हो गया है तो देश का ध्यान हमारे सामने मौजूद अन्य विकट चुनौतियों पर हो। यह खुशी की बात है कि देश दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन हमें अब देश में व्याप्त बेरोजगारी, महंगाई और आर्थिक असमानता को दूर करने को अपनी प्राथमिकता बनाना होगा। वहीं अयोध्या में राममंदिर का बनना इस मायने में महत्वपूर्ण है कि धार्मिक पर्यटन से पूर्वी उत्तर प्रदेश में रोजगार के तमाम नये अवसर मिलेंगे। 
देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश को धार्मिक पर्यटन से आर्थिक लाभ होगा। काशी विश्वनाथ तीर्थ के कायाकल्प के बाद अयोध्या में संरचनात्मक विकास को नये आयाम मिले हैं। हवाई अड्डे, सरयू में नौकायन और फोर लेन सड़कों के निर्माण से आर्थिक विकास को गति मिलेगी। लेकिन ध्यान रहे कि अब आज के केवट व सबरी के घर भी आर्थिक विकास की रोशनी पहुंचे। राम-रहीम की गंगा जमुनी संस्कृति को संवारा जाए। अमृतकाल का अमृत समाज के अंतिम व्यक्ति तक भी पहुंचे। सही मायनों में रामराज्य की वास्तविक अवधारणा साकार रूप ले। सत्ताधीश राजनीतिक और सामाजिक जीवन में मर्यादा की भी प्रतिष्ठा करें। उसमें श्रीराम के समावेशी दृष्टिकोण की आभा नजर आए, जिसमें केवट, शबरी, निषादराज, जटायु, सुग्रीव आदि को भी न्याय मिले।   

 

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