होनहारों को बचाने के लिए काउंसलिंग जरूरी
चोटी के संस्थानों में 69 छात्रों ने की आत्महत्याएं
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली। यूं तो अल्पायु में हर मौत देश, समाज व परिवार की अपूरणीय क्षति होती है, लेकिन देश के शीर्ष पेशेवर शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों की मौत का हालिया आंकड़ा दुखद व विचलित करने वाला है। ये वे प्रतिभाशाली छात्र थे जो कड़ी मेहनत व परिवार के त्याग से इस मुकाम तक पहुंचे थे। लाखों छात्रों में चुने गये प्रतिभाशाली छात्र थे, जिनसे देश को बड़ी उम्मीदें थीं।
जाहिर है इन शिक्षण संस्थानों के अत्यधिक चुनौतीपूर्ण और प्रतिस्पर्धी माहौल से पार पाने में ये छात्र विफल रहे हैं। बहुत संभव है कई अन्य कारण भी हो सकते हैं, लेकिन प्रथम दृष्टया प्रतिस्पर्धी माहौल का दबाव ही होता है। जब उन्हें लगता है कि तप-त्याग व सीमित संसाधनों के बावजूद उनकी आवश्यकता पूर्ति करने वाले मां-बाप की आकांक्षाएं वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं, तो कुछ ऐसा असामान्य उन्हें अपराधबोध से ग्रस्त कर देता है। जिसके चलते ही वे आत्मघाती कदम उठाते हैं।
बुधवार को राज्यसभा में पेश किये गये आंकड़ों में खुलासा हुआ कि बीते पांच वर्षों में देश के चोटी के संस्थानों में 69 छात्रों ने आत्महत्याएं की। इनमें देश के शीर्ष इंजीनियरिंग संस्थान आईआईटी के 31 व एनआईटी के 22 छात्र शामिल हैं। इसी तरह एम्स में 13 व आईआईएम में तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली। आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि मरने वालों में 32 छात्र सामान्य श्रेणी के और 37 छात्र आरक्षित श्रेणी के थे। यह निष्कर्ष बताता है कि दोनों अलग-अलग पृष्ठभूमि के छात्र लगातार समान रूप से तनाव से प्रभावित रहे हैं।
ये निष्कर्ष अब तक के इस तरह के आरोपों को खारिज करता है कि ये आत्महत्याएं किसी तरह के सामाजिक भेदभाव का नतीजा होती हैं। वहीं दूसरी ओर इन आंकड़ों के जरिये एक चौंकाने वाला खुलासा भी सामने आया कि इन संस्थानों से पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाले छात्रों की संख्या भी लगातार बढ़ी है। निस्संदेह, छात्रों द्वारा ये प्रतिष्ठित संस्थान छोड़ने के कारणों का व्यापक अध्ययन किया जाना जरूरी है।
दरअसल, यदि हम इन प्रतिष्ठित संस्थानों को छोड़ने वाले छात्रों के आंकड़ों पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि इन पांच सालों में जहां 8319 छात्रों ने आईआईटी में अपनी पढ़ाई पूरी नहीं की। वहीं दूसरी ओर करीब 5623 छात्रों ने वर्ष 2018 से 2022 तक एनआईटी से बाहर निकलने का विकल्प चुना। समाज विज्ञानियों का मानना है कि पढ़ाई का दबाव झेलने के बाद आत्महत्या करने वाले छात्र मां-बाप के सामने अपनी बात नहीं रख पाते। वे अपराधबोध से ग्रसित रहते हैं कि जिन मां-बाप ने उनकी पढ़ाई के लिये जीवन भर तपस्या की है, उन्हें वे कैसे निराश करें। जब उनके लिये यह दबाव झेलना असंभव हो जाता है तो वे आत्मघाती कदम उठाने का विकल्प चुनते हैं। उन्हें इस बात का पक्का विश्वास नहीं होता कि यदि वे मां-बाप के सामने अपनी समस्या खुलकर रखें तो वे उनके साथ खड़े होंगे।
ऐसा नहीं है कि मां-बाप बच्चों के व्यापक हितों की अनदेखी करते हैं। लेकिन शैक्षणिक तनाव, मानसिक स्वास्थ्य और पारिवारिक पृष्ठभूमि जैसे कारक भी छात्रों को आत्मघात के लिये उन्मुख करते हैं। बहरहाल, हालात मां-बाप को आत्ममंथन करने को कहते हैं कि बच्चों का कैरियर जीवन से बड़ा नहीं हो सकता। उन्हें बच्चों के भविष्य की संभावनाओं के दूसरे विकल्पों पर भी विचार करना होगा। जरूरी नहीं है कि इंजीनियरिंग व डॉक्टरी के अलावा बेहतर भविष्य के दूसरे विकल्प नहीं हैं। पिछले अनुभव बताते हैं कि तमाम छात्र डॉक्टर व इंजीनियर बनने के बावजूद देश की शीर्ष प्रशासनिक व पुलिस आदि सेवाओं का विकल्प चुनते हैं।
इस लक्ष्य को विज्ञान व मानविकी के विषयों में स्नातक बनकर हासिल किया जा सकता है। अभिभावकों को चाहिए वे बच्चों के सपनों को पूरा करने में सहयोग करें तथा अपनी ऐसी महत्वाकांक्षाओं न थोपें, जो उनके लिये असहनीय हो जाएं। इन शिक्षण संस्थानों को भी चाहिए कि वे अपने यहां तनाव से गुजर रहे छात्रों की विशेषज्ञों से काउंसलिंग कराएं, क्योंकि ये प्रतिभाएं राष्ट्र की अमूल्य संपदा है।