सबक वेस्टइंडीज के बिना विश्व कप क्रिकेट

-राजकुमार सिंह
क्रिकेट के वास्तविक प्रशंसकों के लिए यह सदमे से कम नहीं कि पहले दो विश्व कप जीतने वाली वेस्टइंडीज की टीम 48 साल में पहली बार विश्व कप के लिए क्वालीफाई ही नहीं कर पाई, क्योंकि वह स्कॉटलैंड की अल्पज्ञात टीम से सात विकेट से हार गई। आईपीएल की तमाशाई क्रिकेट पर झूमने वाली युवा पीढ़ी को शायद पता नहीं होगा कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कभी वेस्टइंडीज की कैसी बादशाहत थी। 
एथलीट कद-काठी वाले गैरी सोबर्स, क्लाइव लॉयड, एंडी रॉबर्ट्स, जोएल गार्नर, माइकल होल्डिंग, डेसमंड हेंस, गॉर्डन ग्रीनिज, विवियन रिचर्ड्स और मैल्कम मार्शल कैसे आला दर्जे के खिलाड़ी थे। वह बादशाहत तब और खास हो जाती है, जब जानें कि वेस्टइंडीज नाम का कोई देश नहीं है, और टीम बारबडोस, गुयाना, जमैका, त्रिनिदाद, लेवर्ड आइलैंड, टोबेगो और विंडवर्ड जैसे छोटे-छोटे द्वीप -देशों के खिलाड़ियों से चुनी जाती है।
क्रिकेट का जन्म इंग्लैंड में हुआ। ऑस्ट्रेलिया उसका परंपरागत प्रतिद्वंद्वी बना, लेकिन वेस्टइंडीज का 60-70 और 80 के दशक में जैसा दबदबा रहा, उसकी मिसाल नहीं मिलती। गार्नर, होल्डिंग, रॉबर्ट्स की आग उगलती गेंदों के आगे बल्लेबाज कांपते थे, तो लॉयड, रिचर्ड्स और सोबर्स के आगे गेंदबाज लड़खड़ाते थे। हेंस और ग्रीनिज से ज्यादा आक्रामक सलामी जोड़ी शायद ही हुई हो। जानना दिलचस्प होगा कि बतौर स्पिनर अपना टेस्ट कैरियर शुरू करने वाले सोबर्स का 365 रन का सर्वाधिक व्यक्तिगत स्कोर का रिकॉर्ड 36 साल बाद टूट पाया था।
ऐसी गौरवशाली विरासत वाली वेस्टइंडीज क्रिकेट आज अगर वन डे विश्व कप के लिए क्वालीफाई भी न कर पाने की शर्मिंदगी से रूबरू है, तो इसके लिए उसके क्रिकेटर ही जिम्मेदार हैं, जिनके लिए पैसा देश से बढ़कर हो गया है। उसके अपने खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम के लिए खेलने के बजाय दुनिया भर में टी-20 लीग खेलने में व्यस्त रहते हैं, क्योंकि उससे पैसा ज्यादा मिलता है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो उस स्तर के खिलाड़ी अब वेस्टइंडीज में ढूंढे नहीं मिलते। कभी खिलाड़ी नेशनल कैप पहन कर मैदान में उतरना गौरव समझते थे, अब एकसूत्रीय लक्ष्य लीग क्रिकेट खेलकर ज्यादा पैसा कमाना बन गया है। वेस्टइंडीज क्रिकेट के महानायकों में शुमार माइकल होल्डिंग की पीड़ा है कि टी-20 फ्रेंचाइजी लीग तथा पैसे के पीछे दौड़ में देश और असली क्रिकेट, दोनों पीछे छूट गए हैं।
बेशक पैसा भी जरूरी है, क्योंकि खिलाड़ियों का खेल जीवन लंबा नहीं होता, पर कितना? अगर आप दौलत और शोहरत के शिखर पर खड़े भारतीय क्रिकेटरों से तुलना करेंगे, तो वाकई क्रिकेट वेस्टइंडीज (सीडब्लयूआई) अपने खिलाड़ियों को उतना नहीं दे पाता। अनुमानत: भारत में एक टेस्ट खेलने के लिए 15 लाख रुपये मिलते हैं, जबकि वेस्टइंडीज में लगभग पौने पांच लाख। 
इसी तरह वन डे और टी-20 में भारत में क्रमश: आठ और चार लाख मिलते हैं, जबकि वेस्टइंडीज में 1.88 और 1.42 लाख रुपये, पर सवाल है कि हर क्रिकेट बोर्ड दुनिया के सबसे अमीर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की बराबरी कैसे कर सकता है? वैसे सीडब्ल्यूआई अपने खिलाड़ियों से केंद्रीय अनुबंध भी करता है, जिसके तहत कम से कम दो प्रारूप खेलने पर सालाना लगभग दो करोड़ रुपये कमाए जा सकते हैं, जबकि तीनों प्रारूप खेलकर लगभग ढाई करोड़। इसमें मैच फीस भी शामिल है, पर दूसरी ओर भारतीय आईपीएल में ही वेस्टइंडीज के निकोलस पूरन को लखनऊ सुपर जाइंट्स ने 16 करोड़ रुपये की बोली लगाकर खरीदा। 
कोलकाता नाइट राइडर्स से रसेल को भी 16 करोड़ मिले, तो हेटमायर को राजस्थान रॉयल्स से साढ़े आठ करोड़। अब तो ऐसा बाजारू क्रिकेट दुनिया के कई देशों में होने लगा है। इसका मुकाबला सीडब्ल्यूआई के वश से बाहर है। फिर भी, होल्डिंग की मानें, तो 95 प्रतिशत कैरेबियाई नागरिक जितना कमाते हैं, उससे तो ज्यादा ही वहां के क्रिकेटरों को मिलता है।
बेशक यह संकट फिलहाल वेस्टइंडीज का है, लेकिन सबक सभी के लिए है। क्रिकेट की दुनिया में वेस्टइंडीज की बादशाहत कायम करने वाले दिग्गजों से लेकर क्रिकेट विशेषज्ञों तक का बहुमत मानता है कि टी-20 और उससे मिलने वाले अकूत पैसे का मोह असली क्रिकेट तथा राष्ट्र के लिए खेलने की क्रिकेटरों की प्रतिबद्धता, दोनों को प्रभावित कर रहा है।

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