कंचन संघर्षों में तपकर बनी कुंदन

हाथ कटने से हुई स्पाइनल इंजुरी
अब इसे लोग कहते हैं फरीदाबाद की बहादुर बेटी
खेलपथ संवाद
फरीदाबाद।
बेटियों में बेटों की अपेक्षा अधिक सहनशक्ति होती है। यह बात फौरी नहीं सौ टका सच है। हम दिव्यांग खिलाड़ियों के अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन का सिंहावलोकन करें तो पाएंगे कि भारतीय बेटियों ने अपनी लगन और मेहनत से न केवल नया मुकाम हासिल किया बल्कि दुनिया में मुल्क का गौरव भी बढ़ाया। ऐसी ही कामयाब बेटियों में कंचन लखानी का भी शुमार है। कंचन की उपलब्धियों को देखकर अब फरीदाबाद के लोग इसे बहादुर बेटी कहते हैं।
झंझावातों की आग में वह तपी और कुंदन बनकर निकली। अपने नाम की तरह। कंचन। तकलीफों के ज्वार-भाटे से उबरते हुए देश के लिए सोना लाई। हाथ कट गया, लेकिन वह कमजोर नहीं, 'शक्तिस्वरूपा' बनी और मिसाल बन गई दूसरों के लिए। ग्रेटर फरीदाबाद के सेक्टर-85 में रहने वाली कंचन लखानी का एक हादसे में हाथ कट गया और स्पाइनल इंजुरी के चलते कमर से नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। वह निराशा में डूब गई। एक दिन अवसाद से उबरने की कोशिश की और फैसला कर लिया अपनी तकदीर खुद लिखने का। जुट गई कड़ी मेहनत में। राष्ट्रीय स्तर की पैरा एथलीट बनकर कई पदक जीते।
कंचन लखानी के मुताबिक 2008 से पहले वह रावल इंटरनेशनल स्कूल में प्राथमिक कक्षा के बच्चों को पढ़ाती थी, लेकिन उसी दौरान हादसे में एक हाथ खो दिया। जब पता लगा कि पूरी जिंदगी ह्वीलचेयर पर रहना पड़ेगा तो अवसाद से घिर गई। मुझे जब ह्वीलचेयर पर बिठाया जाता तो रोने लगती। कंचन कहती हैं, 'मैंने 5-6 साल तक खुद को एक कमरे में बंद रखा। लोगों की सहानुभूति भी ताने की तरह चुभती। खुशनसीब हूं कि परिवार ने साथ नहीं छोड़ा और हिम्मत बढ़ाते रहे। फिर जीवन को नये सिरे से जीने का फैसला किया।' 
फिर वह मिशन जागृति से जुड़ीं और स्कूलों में जाकर बच्चों को जागरूक करने के साथ ही स्वच्छ भारत, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, पर्यावरण बचाओ जैसे अभियानों का भी हिस्सा बनी। पिता मनोहर लाल लखानी, मां पुष्पा लखानी और भाइयों- सुनील लखानी व कमल लखानी ने हर कदम पर मेरा हौसला बढ़ाया। राजा नाहर सिंह स्टेडियम में एथलेटिक्स के कोच नरसी राम से उनकी मुलाकात पांच साल पहले हुई। उन्होंने मुझे प्रेरित किया तो मैं भाला फेंक, चक्का फेंक और गोला फेंक खेलों का प्रशिक्षण लेने लगी। फिर जीवन में ऐसा बदलाव आया कि आज सभी मेरे हौसले को सलाम करते हैं।
हादसे के बाद जब जीवन पटरी पर आता दिखा तो कंचन ने कविता लिखी, 'यह मेरे जीवन की अब तक की कहानी है, कल था बचपन तो आज आई जवानी है। तब थीं खुशियां तो आज आई परेशानी है, फिर भी हार न मैंने मानी है। मैंने भी जीवन में कुछ करने की ठानी है...।' इसके बाद तो मेहनत रंग लाई और पुरस्कारों की झड़ी लग गयी। समाज सेवा के लिए साल 2015 में कंचन को एक संस्था ने मदर टेरेसा गौरव अवॉर्ड दिया। वर्ष 2017 में पैरा एथलीट के राष्ट्रीय मुकाबलों में तीन स्वर्ण पदक जीते। अगले साल भी तीन और 2019 में एक गोल्ड जीता। इसके अलावा भी कंचन लखानी ने कई पदक जीते।
कंचन लखानी का लक्ष्य
कंचन कहती हैं कि जिसे दुनिया 'सामान्य' होना कहती है, उस जिन्दगी में शायद यह उपलब्धियां नहीं मिलतीं, लेकिन रेल हादसे में जीवन को नई दिशा दी और बताया कि कैसे बेफिकर होकर जीते हुए अपने मुकाम को हासिल किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि में पैरा ओलम्पिक में हिस्सा लेकर देश के लिए स्वर्ण पदक जीतना चाहती हूं।
 

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