ध्यानचंद की हॉकी फुटबॉल बन गई

खिलाड़ियों को करोड़ों देने की बजाय खेलों पर खर्च हो पैसा
गुरुबख्स सिंह की कलम से

आजादी से पहले हम चकवाल (अब पाकिस्तान में) जिले के मंगवाल गांव से आकर रावलपिंडी के आनंदपुर मुहल्ले में रहने लगे थे। मैं तब 10 साल का था। पिताजी मुझे साइकिल पर आर्मी ग्राउंड ले जाकर हॉकी और फुटबॉल के मैच दिखाते थे। जब से मैंने होश संभाला, हॉकी और फुटबॉल को अपने आसपास पाया। आजादी से पहले क्रिकेट कम ही लोग खेलते थे। वर्ष 1947 का मार्च महीना आते-आते मैं हॉकी, फुटबॉल, बैडमिंटन खेलने लगा था। 
मैं तब 12 साल का था और छठी में पढ़ता था। होली आने वाली थी, पिता जी की पोस्टिंग पटना के पास दानापुर हो गई थी। मेरा पूरा परिवार छुट्टियां बिताने रावलपिंडी से दानापुर चला गया। परिवार के किसी सदस्य ने नहीं सोचा था कि इसके बाद उन्हें कभी रावलपिंडी जाने का मौका नहीं मिलेगा। उसी महीने बंटवारे का पहला दंगा भड़क गया था। वर्ष 1980 में मैं रावलपिंडी गया। आनंदपुर मुहल्ले का नाम दरियाबाद हो गया था। 
हमारे घर में भारत से आया मुस्लिम परिवार रहता था। उन्होंने मुझे चाय पिलाई। उसके बाद मैं 1983 की चैम्पियंस ट्रॉफी के दौरान और 1999 में भी उस समय पाकिस्तान गया, जब कारगिल में लड़ाई चल रही थी। उस दौरान भारतीय टीम पाकिस्तान के साथ पेशावर में खेल रही थी। टीम को यह नहीं मालूम था कि कारगिल युद्ध भी चल रहा है।
बंटवारे के बाद पिता लखनऊ आ गए। यहां उन्होंने आर्मी मेडिकल कोर की हॉकी और फुटबॉल टीम बनाई। मैं उस पीढ़ी से हूं, जिसने 1948 की स्वर्ण पदक विजेता हॉकी टीम के हर सदस्य के साथ खेला, चाहे वह कप्तान किशन लाल हों या फिर चार ओलम्पिक खेलने वाले लेसली क्लॉडियस। मैंने ध्यानचंद के साथ तो नहीं खेला, पर 1963 में जर्मनी गई मेरी टीम के कोच वही थे। कैप्टन रूप सिंह की कोचिंग में भी मैंने खेला। 
मैंने उधम सिंह, बलबीर सिंह, केडी सिंह बाबू के साथ खेला। उसके बाद अपनी पीढ़ी के साथ खेला और फिर 1970 के दशक में अजीत पाल और अशोक कुमार के साथ खेला। मैं 60 साल की उम्र तक खेलता रहा। कोलकाता फर्स्ट डिवीजन हॉकी में मैं 1996 तक खेलता रहा। स्वतंत्र भारत में मैंने हॉकी की संस्कृति देखी। लोग शौक के लिए खेलते थे। उस दौरान कोई कोचिंग नहीं थी, कोई शिविर नहीं था, पैसा बिल्कुल नहीं था। 
आज खिलाड़ियों को ओलम्पिक पदक पर करोड़ रुपये मिल रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पैसा नहीं मिलना चाहिए। जरूर मिलना चाहिए, पर एक जमाना वह भी था, जब 1964 का ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्यों को ईनाम में फूटी कौड़ी नहीं मिली थी। उस टीम के सदस्यों को टोक्यो में पुरस्कार राशि के रूप में महज 30-30 ब्रिटिश पाउंड मिले थे। 
भारत सरकार ने कुछ नहीं दिया। हमारे समय में जब अर्जुन पुरस्कार मिलता था, तो एक ब्लेजर, टाई तक नसीब नहीं होती थी। राष्ट्रपति से पुरस्कार लेकर वापस चले आते थे। सिर्फ रेलवे का थर्ड क्लास का टिकट दिल्ली आने के लिए मिलता था। होटल में रुकने तक का प्रबंध नहीं होता था। दिल्ली में मेरी ससुराल थी। मैं वहीं रुका था। आज इस पुरस्कार के लिए साढ़े सात लाख रुपये दिए जाते हैं।
1950 से 1970 के दशक तक देश का मुख्य खेल हॉकी हुआ करता था। तब हॉकी मैच में 40 से 50 हजार दर्शक आराम से पहुंच जाते थे। एथलेटिक्स भी काफी लोकप्रिय था। मिल्खा सिंह और मैंने 1960 के ओलम्पिक की तैयारियां साथ की थीं। उस दौरान खेल शौक के लिए खेला जाता था। मैदान भरे रहते थे, पर प्रोत्साहन की कोई बात नहीं थी। चयन हो गया, तो ठीक है, वरना कोई पूछने वाला नहीं था। 
हालात यह थे कि जब मैं भारतीय टीम में चयनित होने पर राष्ट्रीय शिविर में जाता था, तो दो से तीन माह वेतन तक नहीं मिलता था। वेतन तब मिलता था, जब फाइल दिल्ली स्थित वित्त मंत्रालय जाती थी और राष्ट्रपति की संस्तुति के बाद राष्ट्रीय ड्यूटी पर होने के कारण वेतन जारी होता था। जो भी भारतीय टीम बाहर खेलने जाती थी, उसके साथ कोई डॉक्टर भी नहीं होता था। वर्ष 1964 के ओलम्पिक में हरविंदर की मांसपेशियों में खिंचाव आ गया, तो उधम सिंह अपने घर से बनाया हुआ तेल लेकर आए थे। उसे हरविंदर को लगाना पड़ा। 1964 का ओलम्पिक खेलने गए, तो जूते तक नहीं मिले थे। खिलाड़ियों को अपनी जेब से जूते खरीदने पड़े।
फेडरेशन से दो जर्सियां, नेकर और जुराबें दी गई थीं। हॉकी स्टिक भी खुद खरीदनी पड़ती थी। लेकिन देश के लिए खेलने का जज्बा होता था। क्रिकेट को प्रमुखता तो 1983 का विश्व कप जीतने के बाद मिली। अब खेल जगत में काफी बदलाव आए हैं। इसका सबसे बड़ा कारण टेलीविजन पर खेलों का प्रसारण है। इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बढ़ा है। साथ ही, मॉडर्न ट्रेनिंग कराई जाती है।
डॉक्टर और अन्य सपोर्ट स्टाफ टीम के साथ रहते हैं। हम अक्सर चीन और अन्य देशों से बराबरी की बात करते हैं, जो गलत है। चीन में खिलाड़ी बनाए जाते हैं। लेकिन हमारे यहां पदक विजेताओं को पैसा दिया जाता है। जितना पैसा पदक जीतने पर खिलाड़ियों को दिया जाता है, अगर उतना पैसा खिलाड़ियों को तैयार करने पर खर्च किया जाए, तो देश में खेल की तस्वीर बदल जाएगी। अन्यथा ओलम्पिक में चीन, अमेरिका की तरह पदक नहीं जीता जा सकता। इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाया जाए, निचले स्तर पर कोच लगाए जाएं, तब भला होगा।
रही बात हॉकी की, तो टोक्यो ओलम्पिक में 41 साल बाद पदक मिला, जब हमने देश में बड़ी संख्या में एस्ट्रोटर्फ लगाए। जब से हॉकी में एस्ट्रोटर्फ आई, तब से देश में हॉकी में गिरावट आई। फिर नियम बदले गए। कलात्मक हॉकी की जगह शारीरिक हॉकी आ गई। जब यूरोपीय लोग हॉकी को बदल रहे थे और भारत-पाकिस्तान के आधिपत्य को तोड़ रहे थे, तब एशियाई देशों की किसी ने नहीं सुनी। यूरोपीय देशों ने मिलकर हॉकी को अपने अनुरूप कर लिया। 
भारत और पाकिस्तान का विरोध काम नहीं आया। ध्यानचंद की हॉकी चली गई और हॉकी फुटबॉल बन गई। फिर जब एस्ट्रोटर्फ आ गई, तो अगले 20 वर्षों तक देश में टर्फ ही नहीं लगाए गए। बच्चों को देश में टर्फ पर हॉकी खेलने का मौका ही नहीं मिला। उस दौरान हम पिछड़ गए। अब टर्फ लग रहे हैं, तो प्रदर्शन बेहतर हो रहा है और नतीजे आ रहे हैं। 
(लेखक वर्ष 1964 में टोक्यो ओलम्पिक स्वर्ण पदक विजेता टीम के कप्तान)

 

रिलेटेड पोस्ट्स