पिता के पदचिह्नों पर चलने वाला नायाब बेटा अशोक कुमार

अपने शानदार गोलों से भारत को बनाया चैम्पियन

खेलपथ प्रतिनिधि

ग्वालियर। कुछ नाम इतिहास के पन्नों पर दर्ज तो होते हैं लेकिन आने वाली पीढ़ियां उन्हें याद नहीं रखतीं। लेकिन जो उन्होंने कर दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। मेजर ध्यानचंद का नाम भला कौन नहीं जानता। हां वही ध्यानचंद जिन्हें हिटलर ने जर्मनी की तरफ से खेलने का ऑफर दिया था, वही ध्यानचंद जिनकी हॉकी तोड़कर ये देखा गया था कि कहीं इनकी हॉकी में चुम्बक तो नहीं लगी, क्या कारण है कि बॉल ध्यानचंद की हॉकी का साथ ही नहीं छोड़ती। भला ऐसे महान खिलाड़ी को कोई चाहकर भी कैसे भूल सकता है। लेकिन क्या आप अशोक कुमार को जानते हैं? नहीं, फिल्मों वाले अशोक कुमार नहीं, हॉकी वाले अशोक कुमार। नहीं जानते तो जान लीजिए कि अशोक कुमार स्वर्गीय मेजर ध्यानचंद के सुपुत्र हैं। आपको अगर इनके बारे में नहीं पता तो आपको जान लेना चाहिए।

अशोक कुमार ‘ध्यानचंद’ का जन्म एक जून, 1950 को मेरठ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। अशोक कुमार ने बहुत कम उम्र में गेंद पर नियंत्रण व खेल में कुशलता प्रदर्शित कर खेल के विशेषज्ञों को पिता-पुत्र के बीच तुलना करने पर विवश कर दिया था। उन्होंने पहले जूनियर स्कूल टीम में शामिल होकर खेलना आरम्भ किया, फिर वह क्लब के लिए हॉकी खेलने लगे और उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने लगातार चार वर्ष तक हॉकी खेली। अशोक कुमार ने 1966-67 में राजस्थान विश्वविद्यालय के लिए हाकी खेली। इसके बाद वह कलकत्ता चले गए और मोहन बागान क्लब के लिए खेलने लगे। 1971 में बंगलौर में हुई राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में वह बंगाल की टीम की ओर से खेले। इसके बाद अशोक कुमार ने सीनियर फ़्लाइट पर्सन के रूप में इंडियन एयरलाइन्स में नौकरी कर ली और उसकी ओर से राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में प्रतिनिधित्व किया।

मेजर ध्यानचंद और कैप्टन रूप सिंह का युग भारतीय हॉकी का स्वर्णिम युग कहलाता है। 1928 से 1956 के दौर में भारतीय हॉकी दुनिया में प्रतिष्ठित रही। इस दौरान भारत ने छह बार ओलम्पिक के स्वर्ण पदक पर कब्जा किया। 28 साल के इस सुनहरे सफर के बाद 1971 तक हॉकी की हालत देश में इतनी दयनीय रही कि टीम किसी छोटे देश से भी बड़ी आसानी से हार जाती थी। लेकिन भारतीय हॉकी का वह सुनहरा दौर फिर से तब लौटा जब हॉकी के जादूगर की जादूगरी उनके सुपुत्र अशोक कुमार में झलकने लगी। भारत ने 1975 के हॉकी विश्व कप में जीत हासिल कर दुनिया में फिर से अपना दबदबा कायम किया। हॉकी में भारत पहली बार विश्व कप जीता था, इसी के साथ अशोक कुमार की तुलना उनके पिता ध्यानचंद से की जाने लगी। 1975 के फाइनल में अशोक कुमार के गोल से ही भारत विश्व चैम्पियन बना।

मलेशिया के कुआलालम्पुर में अशोक कुमार और मोहम्मद असलम शेर खान ने देश को विश्व चैम्पियन बनाया। दुनिया में पहली बार 1971 में विश्व कप का आयोजन किया गया। इस पहले विश्व कप में भारत ने कांस्य पदक जीता था। दूसरे विश्व कप 1973 में भारत ने रजत पदक हासिल किया। इस तरह हॉकी का पुनर्जागरण 1971 में ही हो गया। लेकिन पूरी तरह से हॉकी का सुनहरा सूरज तब दमका जब 1975 में भारत ने विश्व कप जीत लिया।

1973 में हुए दूसरे विश्व कप में भारत फाइनल तक पहुंचा जहां भारत का मुकाबला हालैंड से था। देश की आंखें विश्व कप पर टिकी हुई थीं, किन्तु ये संभव नहीं हो सका और हौलैंड ने भारत को 4-2 से पराजित कर दिया और देश भर की उम्मीदें चकनाचूर हो गयीं, लेकिन ये निराशा ज्यादा दिन नहीं रही और महज दो साल बाद ही हॉकी की टीम ने अपना परचम लहरा दिया। भारत ने 1975 में पहले मैच में इंग्लैंड को 2-0 से हराया और ऑस्ट्रेलिया से मुकाबला ड्रा रहा। घाना को 7-1 से हराया। ब्रिटेन और जर्मनी को भी परास्त किया। अब बारी थी सेमीफाइनल की। मुकाबला था मेजबान मलेशिया से और उसे उसके ही घर में हराना आसान नहीं था। मैच खत्म होने में महज 17 मिनट बचे ‌थे और मलेशिया 2-1 से आगे होने की वजह से अपनी जीत तय मान रहा था। देश फिर से निराश था, जीत के लिए दो गोल चाहिए थे। इसी बीच असलम शेर खां ने कमाल की तेजी दिखाते हुए गोल दाग देश को बराबरी पर ला दिया। तीसरा गोल हरचरण सिंह ने दागा और इसी के साथ देश फाइनल में पहुंच गया।

अब बारी थी उस घमासान की जिसका इंतजार हर भारतवासी ने हमेशा से किया और हमेशा करता रहेगा। फाइनल में भारत के सामने था उसका पड़ोसी देश पाकिस्तान और पाकिस्तान से मैच हो और लोग उत्साहित न हों भला ये कैसे सम्भव है। मैच के शुरुआती क्षण भारतीय प्रशंसकों के लिए निराशा भरे रहे, कारण था पाकिस्तान का एक गोल दागकर मैच में बढ़त बना लेना। हाफ टाइम हो गया और अभी तक पाकिस्तान भारत पर हावी था। भारत को किसी करिश्मे की जरूरत थी और हॉकी में तो एक ही भारतीय था जो कोई करिश्मा दिखा सकता था, और वो था ध्यानचंद लेकिन अब ध्यानचंद तो यहाँ थे नहीं तो भला करिश्मा करता कौन। तभी वह हुआ जिसे देखते ही ऐसा लगा जैसे ध्यानचंद खुद मैदान में उतर आये हों और कह रहे हों कि मैं नहीं तो क्या हुआ मेरी जादूगरी तो तुम सब के साथ है। अशोक कुमार ने पहला गोल दाग कर भारत को बराबरी पर ला खड़ा किया। अब कम से कम हार का खतरा टल गया था। अब सबकी नजरें थीं दूसरे गोल पर लेकिन ये दूसरा गोल भला कौन करे तभी अशोक ने दूसरा गोल दागते हुए देश को पहली बार विश्व चैम्पियन बना दिया।

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