दिव्यांश को विपश्यना ने दिया शूटिंग में दूसरा जन्म

पबजी की लत पर पिता की डांट ने बदली जिंदगी
दिव्यांश के पिता आईपीएस और मां आरटीओ हैं
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली।
दिव्यांश सिंह पंवार का इसे निशानेबाजी में दूसरा जन्म ही कहा जाएगा। 2014 में हर वक्त पबजी की खेलने की लगी लत पर पड़ी पिता की डांट के बाद अगले ही दिन शूटिंग के लिए दिल्ली की कर्णी सिंह रेंज रवाना होने वाले दिव्यांश टोक्यो ओलम्पिक में पदक के दावेदार थे। यहां मिली असफलता ने उन्हें तोड़ दिया। उन्होंने हार के बाद टोक्यो में अपने लम्बे बालों को कटवा डाला और वापस आकर एकांतवास में चले गए। 
यहां उनके कोच दीपक दुबे ने उन्हें विपश्यना के लिए हरिद्वार भेज दिया। शुरुआत में दिव्यांश को दिक्कत हुई, लेकिन वहां से लौटने के बाद उनका शूटर के रूप में दूसरा जन्म हुआ। वह 10 मीटर एयर राइफल में देश के नम्बर एक निशानेबाज बने और अब विश्व कीर्तिमान के साथ उन्होंने एशियाई खेलों में टीम स्पर्धा का स्वर्ण जीता।
भारतीय टीम के कोच दीपक दुबे बताते हैं कि उन्हें 2014 का वह दिन भी याद है जब दिव्यांश का फोन आया कि वह उनके पास तुरंत आ रहे हैं। उन्हें पबजी खेलने पर पिता की डांट पड़ी थी। वह जयपुर से दिल्ली में उनके पास आ जरूर गए थे, लेकिन पबजी और अन्य सभी चीजों को पीछे छोड़ दिया था। 2019 में उन्होंने विश्व कप का स्वर्ण जीता। उसके बाद टोक्यो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई किया, लेकिन टोक्यो में वह उम्मीदों के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाए थे। दीपक बताते हैं कि दिव्यांश को इसका बड़ा झटका लगा था। वह इस विफलता को भूल नहीं पा रहे थे। तब उन्होंने विपश्यना के लिए उन्हें हरिद्वार भेजा। यहां से आने के बाद वह एक बार फिर लय में आ गए हैं।
10 मीटर एयर राइफल में टीम का स्वर्ण जीतने वाले दिव्यांश के पिता आईपीएस और मां आरटीओ हैं। दोनों को ही खेलों का शौक था तो उन्होंने दिव्यांश को बचपन से ही खेलों में डालने का मन बनाया।  दिव्यांश बताते हैं कि उनकी मां ने हर साल आने वाली गर्मियों की छुट्टियों में उन्हें एक नया खेल खिलवाया। इन खेलों में बैडमिंटन, तैराकी, टेबल टेनिस, टेनिस, चेस, शूटिंग, स्केटिंग शामिल थे। चेस और स्केटिंग में राज्य स्तर तक पहुंच गए। शूटिंग उन्होंने 2015 में शुरू की। मां को कोच ने बताया उनकी शूटिंग अच्छी है। इसके बाद उन्होंने यह खेल अपना लिया। 2017 में उन्हें पहली गन दिलाई गई। इसके बाद उन्होंने इस खेल में पीछे मुड़कर नहीं देखा।

 

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