दद्दा ध्यानचंद को अभ्यास मैच में भी नहीं था हारना पसंद

ऐसे थे अपने हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद
बाले तिवारी ने की थी प्रतिभा की पहचान
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली।
हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की विशिष्टताएं ही उन्हें महान खिलाड़ी बनाती थीं। दद्दा काफी मिलनसार थे उन्हें पराजय किसी भी सूरत में पसंद नहीं थी भले ही वह अभ्यास मुकाबला ही क्यों न हो। देखा जाए तो क्रिकेट में जो दर्जा डॉन ब्रेडमैन का है वही सर्वश्रेष्ठता हॉकी में दद्दा ध्यानचंद की भी है।
क्रिकेट में अगर सर डॉन ब्रैडमैन हैं, फुटबॉल में अगर पेले हैं तो गर्व के साथ हम कह सकते हैं कि हॉकी में हमारे पास एक जादूगर मेजर ध्यानचंद था जिसने अपनी लकड़ी की स्टिक से दुनिया को लोहा मनवाया। 29 अगस्त, 1905 को इलाहबाद में पंजाब रेजीमेंट के सूबेदार सोमेश्वर सिंह के घर में एक बेटे ने जन्म लिया। तब किसे पता था कि बड़ा होकर उनका यह लाल देशवासियों के दिलों पर राज करेगा।
ध्यान सिंह में प्रतिभा तो थी लेकिन पढ़ाई को लेकर वह कमजोर थे। उन्होंने केवल छठीं कक्षा तक की पढ़ाई की। ध्यान सिंह, रेजीमेंट में सिपाही पद पर तैनात थे। लेकिन कहते हैं न जब तक हीरे को जौहरी न मिले उसकी सही कद्र नहीं होती है और उनकी लाइफ में जौहरी का काम किया बाले तिवारी ने जिन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचाना।
हॉकी से उनका प्यार इतना गहरा था कि ध्यान सिंह चांदनी रात में प्रैक्टिस किया करते थे। उनकी इस लगन को कोच ने देखा तो खुद को उनकी तारीफ करने से रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह आज तुम चांदनी रात में प्रैक्टिस कर रहे हो एक दिन पूरी दुनिया में चांद की तरह चमकोगे और तब से बेहद शर्मीले ध्यानसिंह, ध्यानचंद के नाम से मशहूर हो गए।
अप्रैल 1926 का साल था जब ध्यानचंद हॉकी खेलने के लिए अपनी टीम के साथ न्यूजीलैंड रवाना हुए। यह पहला अवसर था जब भारतीय हॉकी टीम विदेश के दौरे पर थी। इस दौरे पर भारत ने 21 में से 18 मैचों में जीत दर्ज की। इस दौरे पर ध्यानचंद ने अकेले 100 गोल किए। ध्यानचंद को अभ्यास मैच में भी हारना पसंद नहीं था, इसलिए तो 1936 के ओलम्पिक शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में जर्मनी से मिले 4-1 से हार को ध्यानचंद ताउम्र नहीं भूल पाए। उसके बाद उन्होंने अपनी कमी पर काम किया और कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 
मेजर ध्यानचंद के नेतृत्व में भारत ने 1928, 1932 और 1936 में ओलंपिक में हॉकी में गोल्ड जीता। उन्होंने भारतीय हॉकी की जड़ें इतनी मजबूत कर दी कि भारत ने 1964 तक हॉकी की दुनिया में डॉमिनेट किया। भारतीय राष्ट्रीय पुरुष हॉकी टीम ने कुल 8 गोल्ड मेडल जीते, जिनमें से 6 लगातार (1928 से 1956 तक) जीते, इसके बाद टीम ने 2 गोल्ड मेडल साल 1964 टोक्यो और मास्को 1980 में जीते। कहते हैं सूरज में कितना भी तेज क्यों न हो शाम को उसे डूबना ही पड़ता है। मेजर ध्यानचंद नाम का सूरज भी तीन दिसम्बर, 1979 को दिल्ली के एम्स में हमेशा के लिए डूब गया। 

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