भर पेट खाना और नौकरी के लिए मैं बना जूडो प्लेयर

जूडोका विजय यादव से राष्ट्रमंडल खेलों में पदक की उम्मीद
खेलपथ संवाद
वाराणसी।
हमारी हुकूमतें खेलों के उत्थान की लाख बातें करती हों स्याह सच यह है कि जमीनी स्तर पर प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की कोई पूछ-परख नहीं है। हर खेलप्रेमी खिलाड़ी से मेडल की उम्मीद तो लगाता है लेकिन उसकी समस्याओं पर किसी की नजर नहीं होती। जूडोका विजय यादव इसका जीता जागता उदाहरण है। विजय राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीतना चाहता है ताकि उसे नौकरी मिल सके।
विजय यादव ने आपबीती सुनाते हुए कहा कि मेरे पापा वेल्डिंग का काम करते थे, हमारा बड़ा परिवार था। हम पांच भाई-बहन हैं। मम्मी और पापा को मिलाकर घर में सात लोग हैं। पापा को वेल्डिंग से इतना पैसा नहीं मिलता था कि हम लोगों को एक टाइम का भरपेट खाना मिल सके। इसलिए मैंने खेल सेंटर जाना शुरू किया, ताकि अगर मेरा चयन किसी खेल में हो जाए तो मुझे भरपेट खाना तो मिलेगा। अगर कुछ अच्छा कर देता हूं तो बाद में सरकारी नौकरी भी मिल जाएगी, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति में भी सुधार होगा।
60 किलोग्राम वेट में बर्मिंघम कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए चुने गए जूडो खिलाड़ी विजय यादव की कहानी सच्चाई का आईना है। सिर्फ विजय ही नहीं देश में ऐसी हजारों प्रतिभाएं हैं जिनमें खेलने का जोश और जुनून तो है लेकिन गरीबी उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। विजय यादव अब तक कई प्रतियोगिताओं में मेडल जीत चुके हैं और इस बार उनसे पूरे देश को राष्ट्रमंडल खेलों में गोल्ड की उम्मीद है।
बकौल विजय मुझे जूडो जैसे खेल के बारे में पता नहीं था। हमारी आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि पापा के लिए हम सभी के लिए एक टाइम के संतुलित भोजन की व्यवस्था करना भी मुश्किल था। मुझे सिर्फ इतना पता था कि अगर मैं कोई भी खेल खेलता हूं और मेरा चयन उत्तर प्रदेश सरकार की खेल एकेडमी में हो जाता है तो मुझे भरपेट खाना तो मिलेगा। आगे चलकर सब कुछ अच्छा रहा तो नौकरी भी मिल जाएगी। इसी मन के साथ मैंने बनारस में स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के सेंटर पर जाना शुरू किया। वहां पर मुझे जूडो के बारे में पता चला। बाद में मेरा चयन जूडो खेल के आवासीय सेंटर में हो गया।
हम तीन भाई और दो बहन हैं। मेरे पापा वेल्डिंग का काम करते थे। उन्हीं की कमाई से हमारा सात लोगों के परिवार का खर्च चलता था। पापा को जो थोड़े-बहुत पैसे मिलते, उसी से राशन आता था। खेल ने मुझे इन मुश्किलों से बाहर निकाला है, अब देश के लिए कुछ करना है। विजय बताते हैं कि घर की आर्थिक स्थिति ज्यादा खराब थी। सेंटर पर जाने के लिए ऑटो या गाड़ी से जाने तक का किराया भी नहीं था। सेंटर मेरे गांव से करीब 10 से 15 किलोमीटर दूर था। वहां जाने के लिए कभी साइकिल वाले से तो कभी अन्य वाहनों से लिफ्ट लेता था। कई बार तो पैदल ही जाना पड़ जाता था, तो कई बार कुछ किलोमीटर के लिए कोई लिफ्ट दे देता था। यही रोज की कहानी थी। बाद में मेरा चयन आवासीय सेंटर पर हो गया, जिसके बाद मुझे हर तरह की सुविधा मिलने लगी।
सरकारी आर्थिक मदद पर विजय कहते हैं कि अभी हम लोग जुलाई के दूसरे हफ्ते में यूरोप में चैम्पियनशिप खेलने के साथ-साथ ट्रेनिंग कर एक महीने के बाद लौटे हैं। दिल्ली में हमारा कैम्प लगा है। यहां पर हमें हर प्रकार की सुविधा मिल रही है। यूरोप में ट्रेनिंग और चैम्पियनशिप में भाग लेने का हमें कॉमनवेल्थ गेम्स में भी जरूर फायदा मिलेगा। विजय के सामने राष्ट्रमंडल खेलों में इंग्लैंड का जूडो प्लेयर है, जिससे उसे पार पाना होगा। अगर वह इससे जीत लेता है तो मेडल तक का सफर अवश्य तय कर सकता है।

 

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