मुश्किलों से हारे भारतीय खेल सितारे

सरकारी उपेक्षा से बदहाल रहे हमारे दिग्गज खिलाड़ी
खेलपथ प्रतिनिधि
ग्वालियर।
सितारे-फिल्मी हों या खेल के मैदान से, कभी-न-कभी अपनी चमक खो ही देते हैं, लेकिन अगर कोई सितारा बेवक्त बदरंग हो जाए? अपने खेल की चमक से हिंदुस्तान को चमचमाने वालों को पूरी तरह बिसरा दिया जाए? उपेक्षा और सरकारी ढुलमुल रवैये से परेशान होकर कोई बंदूक थाम ले? ऐसा कोई भी वाकया किसी भी मुल्क के लिए शर्मनाक है। यहां हम बात कर रहे हैं, ऐसे ही खिलाडि़यों की, जिसमें से कोई डाकू बन गया, किसी ने खुदकुशी कर ली, कोई इलाज के लिए मोहताज रहा तो कोई आज भी गुमनामी में गुरबत में जिंदगी बिता रहा है। 
वी.पी.सत्यन (फुटबॉलर)
1995 के सैफ खेलों में देश को गोल्ड मेडल दिलाने वाली फुटबॉल टीम के कप्तान सत्यन का जलवा एक बेहद तेजतर्रार फुटबॉलर का रहा। छोटी-सी उम्र से ही उन्होंने फुटबॉल में अपना जौहर दिखाना शुरू कर दिया और केरल की टीम से खेलते-खेलते जल्द ही नेशनल टीम का हिस्सा बन गए। 1985 में ढाका में हुए सैफ खेलों में उन्हें भारतीय टीम का हिस्सा बनने का मौका मिला। अपने खेल से वह प्रतिद्वंद्वियों की रक्षापंक्ति को पस्त करते चले गए। 1991 में सत्यन को भारतीय फुटबॉल टीम का कप्तान बनाया गया। इसके बाद आया उनके करियर का सुनहरा दौर। 1995 में चेन्नई में हुए सैफ खेलों में उनकी अगुआई में भारत को गोल्ड मेडल मिला। इसी साल उन्हें ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन की ओर से बेस्ट फुटबॉलर का अवॉर्ड भी दिया गया। लेकिन खेल छोड़ने के बाद उनकी हालत अच्छी नहीं रही। 18 जुलाई, 2006 को साथियन ने ट्रेन के आगे कूदकर अपनी जान दे दी। मरने के बाद उनकी जेब से एक सूसाइड नोट मिला था, जिसमें लिखा था कि आर्थिक परेशानी और तंगहाली से मैं ऊब चुका हूं और अपनी जिंदगी खत्म कर रहा हूं।
के.डी.जाधव (पहलवान)
इंडिविजुअल कॉम्पटीशन में भारत को ओलम्पिक में पहला पदक दिलाने वाले खिलाड़ी। खशाबा दादा साहेब जाधव ने भारत के लिए यह कारनामा 1952 के हेलसिंकी ओलम्पिक में किया था। उस बार रेसलिंग में उन्हें ब्रॉन्ज मेडल मिला। लेकिन हेलसिंकी तक पहुंच कर देश का नाम रोशन करने के लिए उन्हें नाकों चने चबाने पड़े थे। यहां तक कि उस बार ओलम्पिक खेलने जाने के लिए पैसे भी सरकार ने नहीं दिए। उनकी मदद की राजा राम कॉलेज के प्रिंसिपल खांडेकर ने। खांडेकर साहब ने जाधव को हेलसिंकी भेजने के लिए अपना घर तक गिरवी रख दिया था। के.डी. जाधव बाद के दिनों में रेसलिंग में देश के लिए मेडल जीतते रहे लेकिन इतना बड़ा खिलाड़ी बन जाने से उनकी जिंदगी में बदलाव नहीं हुआ। उन्हें महाराष्ट्र पुलिस में एक छोटी-मोटी नौकरी मिल गई। लेकिन पूरी जिंदगी तंगहाली और मुश्किलों में ही गुजरी। आज उनके नाम पर स्टेडियम है और सुशील कुमार जैसे खिलाडि़यों से पहले उनकी चर्चा होती है लेकिन के.डी. अपनी मौत से पहले गुमनामी की जिंदगी ही जीते रहे। 1984 में एक रोड एक्सीडेंट में उनका देहांत हो गया।
माखन सिंह (एथलीट)
मिल्खा सिंह को तो हर कोई जानता है लेकिन माखन सिंह को कोई नहीं जानता। 1960 के रोम ओलम्पिक में जब मिल्खा ने अपनी रफ्तार से दुनिया में भारत का डंका बजाया, उसके चार साल बाद कोलकाता में हुए नेशनल गेम्स में माखन ने मिल्खा को रेस में पछाड़ दिया। ऐसा भी नहीं कि वह रेस माखन तुक्के में जीत गए। सूबेदार माखन के करियर पर अगर ध्यान दें तो वह किसी भी बड़े एथलीट के बराबर खड़े नजर आते हैं। 1960 के नेशनल गेम्स में उन्हें शार्ट स्प्रिंट में गोल्ड और 300 मीटर रेस में सिल्वर मेडल मिला। 1962 नेशनल गेम्स में उन्हें तीन गोल्ड मिले, जबकि 1963 नेशनल गेम्स में उन्होंने दो गोल्ड और एक सिल्वर मेडल हासिल किया। 1964 में नेशनल गेम्स में उन्होंने कमाल कर दिया। मिल्खा को पछाड़कर उन्होंने सनसनी फैला दी और कॉम्पटीशन में कुल चार गोल्ड मेडल हासिल किए। 1962 के जकार्ता एशियन गेम्स में उन्होंने रिले दौड़ में गोल्ड और 400 मीटर में सिल्वर हासिल किया। 1964 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से भी नवाजा गया। लेकिन मिल्खा या पी.टी. ऊषा जैसे नामों के मुकाबले उनकी कोई पूछ नहीं हुई। बाद के दिनों में वह आर्थिक बदहाली से जूझते रहे और फिर एक दिन हादसे में उनकी टांग चली गई। आखिरकार 2002 में गुमनामी के अंधेरे में उनकी मौत हो गई।
किशन लाल (हॉकी खिलाड़ी)
1948 ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान रहे किशन लाल। उस ओलम्पिक में भारत ने कुल पांच मैच खेले और पांचों में उसे जीत मिली थी। टीम की तरफ से 25 गोल किए गए, जबकि दो गोल खाए। कहा जाता था कि उनसे तेज मूवमेंट करने वाले कम ही खिलाड़ी हिंदुस्तान में पैदा हुए। एक बार गेंद उनकी तरफ बढ़ा दी जाती थी तो फिर उसे गोल पोस्ट तक जाना ही था। लेकिन खेल के सर्वोच्च लेवल पर भारत की कप्तानी करने के बाद भी उनकी जिंदगी गुमनामी में ही बीती। कम ही लोग जानते थे कि ट्रेन चलाने वाले किशन लाल किसी वक्त देश की हॉकी टीम के कप्तान रहे थे।
पान सिंह तोमर (एथलीट)
पान सिंह तोमर, कुछ दिन पहले तक गिने-चुने लोग ही इस नाम से वाकिफ थे। जो थे, उनमें भी ज्यादातर की निगाह में पान सिंह की पहचान खिलाड़ी से ज्यादा बतौर डाकू थी। ज्यादातर लोग इस बात को बिसरा बैठे कि यह शख्स रेस (स्टेपल चेज) में न सिर्फ सात बार का नेशनल चैम्पियन रहा है, बल्कि इंटरनेशनल लेवल पर भी कई मेडल जीत कर देश का नाम रोशन किया। लेकिन तिंग्माशु धूलिया की फिल्म 'पान सिंह तोमर' ने इस नाम को फिर से ताजा कर दिया है। फिल्म देखकर आ रहे लोगों को डाकू पान सिंह से नफरत नहीं, हमदर्दी होती है।
फौज में सूबेदार से चंबल के बीहड़ों में डाकू बनने की पान सिंह की कहानी है ही ऐसी। पान सिंह एक बेहद शानदार एथलीट थे। वह स्टेपलचेज (बाधादौड़) कॉम्पटिशन में हिस्सा लेते थे। उसके नाम कई नेशनल रिकॉर्ड रहे तो विदेशों में भी उन्होंने हिंदुस्तान का नाम रोशन किया। पान सिंह सात बार स्टेपल चेज में नेशनल चैम्पियन रहे तो तकरीबन 70 अलग-अलग देशों में उन्होंने भारत की नुमाइंदगी की और देश का नाम रोशन किया। बाद में पुलिस और प्रशासन के गैरजिम्मेदार रवैये ने उन्हें डकैत बनने पर मजबूर कर दिया। उनकी जमीन पर दबंगों ने कब्जा कर लिया और उसे छुड़ाने जब वह पुलिस के पास पहुंचे तो किसी ने उनकी मदद नहीं की। मजबूरन उऩ्होंने बंदूक उठा ली। चैम्पियन पान सिंह डाकू पान सिंह बन गया और फिर एक अक्टूबर 1981 को पुलिस एनकाउंटर में उसकी मौत हो गई।
साहू मेवालाल (फुटबॉलर)
इस ओलम्पिक खिलाड़ी को अपनी फिटनेस, किक मारने की खास कला और गोल हासिल करने की क्षमता के लिए जाना जाता था। यहां तक कि उस वक्त के स्पोर्ट्स मिनिस्टर एम.एस. गिल ने भी उनके देहांत पर कहा कि मेवालाल मेरे बचपन के हीरो रहे हैं। बिहार में जन्मे मेवालाल के पिता कोलकाता शिफ्ट हो गए और वहीं से फुटबॉल के लिए मेवालाल का प्यार परवान चढ़ा। उन्होंने 1948 के लंदन ओलम्पिक और 1952 के हेलसिंकी ओलम्पिक में मुल्क की नुमाइंदगी की। 1951 के एशियाड गेम्स के फाइनल में इकलौता गोल दागकर उन्होंने टीम को जीत दिलाई।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इंडियन टीम नंगे पांव खेल रही थी, जबकि सामने खेल रहे ईरानी खिलाड़ी बढ़िया जूते पहने हुए थे। नेशनल, इंटरनेशनल लेवल पर देश का नाम चमकाने वाले इस खिलाड़ी के लिए बाद के दिनों में हालात ऐसे रोशन नहीं रहे। सरकार की ओर से मेवालाल को कोई सहूलियत नहीं मिली, न ही उनकी उपलब्धियों को खास पहचान मिली। यहां तक आखिरी दिनों में इलाज के लिए वह मोहताज हो गए। जब उनके परिजन उन्हें कोलकाता के एक अस्पताल में ले गए तो डॉक्टरों ने उन्हें पहचानने से इनकार करते हुए उनसे मेडल और सर्टिफिकेट तक दिखाने की मांग कर डाली। दिसम्बर 2008 में लम्बी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया।
एंटनी मारिया इरुदयम (कैरम खिलाड़ी)
देश में बहुत कम लोग इस नाम से वाकिफ हैं। एंटनी मारिया इरुदयम से बड़ा कैरम खिलाड़ी हिंदुस्तान में अब तक पैदा नहीं हुआ है। भारत की क्रिकेट टीम ने भले ही अब तक दो बार वर्ल्ड कप जीता हो, लेकिन एंटनी अकेले अपने बूते दो बार कैरम के वर्ल्ड चैम्पियन बन चुके हैं। दुखद यह है कि इरुदयम की माली हालत देखकर लगता नहीं कि वह वर्ल्ड चैम्पियन है। सरकार ने 1996 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड भी दिया लेकिन एक वर्ल्ड चैम्पियन का जो रुतबा होना चाहिए, वह कहीं से नहीं दिखता। चेन्नई के रहने वाले इरुदयम अब कहां और किस हाल में हैं, बहुत कम ही लोग जानते हैं।
रूप सिंह (हॉकी खिलाड़ी)
मेजर ध्यानचंद को कौन नहीं जानता, लेकिन उनके छोटे भाई रूप सिंह को कम ही लोग जानते हैं। हालांकि हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ध्यान चंद को भी जीते-जी वह जगह नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे। लेकिन उनके छोटे भाई रूप सिंह को बिल्कुल बिसरा दिया गया। दो बार ओलम्पिक में खेलने वाले रूप सिंह बेहद लो प्रोफाइल रहते थे लेकिन ध्यानचंद ने कहा था कि रूप सिंह उनसे भी बेहतर खिलाड़ी है। 1932 के लॉस एंजिलिस ओलम्पिक में भारतीय टीम ने कुल 35 गोल दागे, जिसमें से 13 रूप सिंह और 12 ध्यानचंद की हॉकी से निकले। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक गेम्स में रूप सिंह के खेल से जर्मन सरकार इतनी खुश हुई कि वहां उनके नाम पर एक सड़क का नामकरण कर दिया। दुखद यह है कि इस बेहतरीन खिलाड़ी को अपनी सरकार की ओर से एक भी अवॉर्ड से नहीं नवाजा गया। उनके देहांत के बाद जरूर ग्वालियर में उनके नाम पर एक स्टेडियम बनाकर खानापूर्ति कर दी गई। उनका परिवार आज भी बेहद साधारण जिंदगी जी रहा है।
मनोहर आइच (बॉडी बिल्डिंग)
कद महज 4 फुट 11 इंच, लेकिन शरीर में दम इतना कि एक वक्त था, जब दुनिया मनोहर आइच को पॉकेट हरक्युलिस के नाम से बुलाती थी। तीन बार एशियाई बॉडी बिल्डिंग चैंपियन रहने के साथ-साथ 1952 में वह मिस्टर यूनिवर्स ग्रुप थ्री भी बने। यह बात है, 1950 के दशक की, जब बॉडी बिल्डिंग जैसे खेल के प्रति लोगों में जागरूकता कम थी। मनोहर आइच ने इस खेल में देश का नाम रोशन किया। नेशनल और इंटरनेशनल लेवल के कई अवॉर्ड उन्होंने जीते। 47 साल की उम्र तक वह कॉम्पटीशन में हिस्सा लेते थे। बाद के दिनों में बेटों के साथ मिलकर वह जिम चलाने लगे, जिससे ठीक-ठाक आमदनी होने लगी। वह 97 साल की उम्र में भी रोजाना डेढ़ घंटा जिमिंग करते थे। बहरहाल, इस जुझारू शख्स को सरकार की ओर से कोई खास तवज्जो नहीं मिली। 

 

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