एशियाड स्वर्ण विजेता घुड़सवारों की पढ़िए दिलचस्प कहानी

जमीन गिरवी रख खरीदा 75 लाख का घोड़ा, लम्बे समय तक यूरोप रहे
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली।
खिलाड़ी हुकूमतें नहीं अभिभावक बनाते हैं। हमारे देश में हकीकत यही है। हम वैश्विक मंच पर बेहतर प्रदर्शन करने वालों की बलैंया लेते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर आर्थिक तंगहाली से जूझ रही प्रतिभाओं को प्रोत्साहन नहीं देते। कई होनहार असमय खेल छोड़ देते हैं तो कई परिवार कंगाल हो जाते हैं। यही हाल एशियाड में स्वर्ण पदक जीतने वाले घुड़सवारों का है।
इंदौर की सुदीप्ति हजेला, जयपुर की दिव्याकृति सिंह, मुंबई के विपुल ह्रदय छेड़ा और कोलकाता के अनुश अगरवाला का घुड़सवारी के ड्रेसेज में स्वर्ण पदक जीतना संघर्ष और त्याग की कहानी है। एक समय वह भी आया था जब इन घुड़सवारों का एशियाड में भाग लेना ही तय नहीं था। ये घुड़सवार अगर अदालत की शरण नहीं लेते तो शायद एशियाड में नहीं खेल रहे होते। 
बाधा यहीं नहीं थी, चीन ने भारत से अपने यहां घोड़े लाने की अनुमति नहीं दी थी, जिसके चलते इन घुड़सवारों को दो या उससे अधिक वर्षों से घोड़ों के साथ यूरोप में रहना पड़ा। शहर से दूर जंगल जैसे इलाकों में अकेले रहकर खुद खाना बनाना पड़ा और घोड़ों की भी सेवा करनी पड़ी। यही नहीं सुदीप्ति को तो जमीन गिरवी रखकर लिए गए लोन से 75 लाख का घोड़ा दिलवाया गया।
सुदीप्ति के पिता मुकेश बताते हैं कि यह स्वर्ण पदक इन घुड़सवारों की बहुत बड़ी तपस्या का फल है। यहां आने के बाद खुद इन चारों ने यह नहीं सोचा था कि वे स्वर्ण जीतने जा रहे हैं। चारों ने पहले तीन में आने की रणनीति बनाई थी, लेकिन सोमवार रात को प्रशिक्षकों के साथ हुई बैठक में यह अहसास हुआ कि वे स्वर्ण भी जीत सकते हैं। यहां पहली बार चारों के दिमाग में स्वर्ण जीतने की बात आई और चारों ने मंगलवार को ऐसा कर दिखाया। रणनीति के तहत सुदीप्ति को सबसे पहले, उसके बाद दिव्याकृति को फिर ह्रदय को अंत में सबसे अनुभवी अनुष को उतारा गया।
जर्मनी में सात दिन क्वारंटाइन रहे घोड़े
मुकेश बताते हैं कि अगर वे दिल्ली हाईकोर्ट नहीं गए होते तो इस टीम का इन खेलों में भाग लेना मुश्किल था। घुड़सवारों ने भारतीय घुड़सवारी महासंघ (ईएफआई) के कहने पर ही केस वापस लिया। बाद में ईएफआई ने मदद भी की। मुकेश के मुताबिक जब घुड़सवारों को यह पता लगा कि चीन में भारत से घोड़ों को जाने की अनुमति नहीं है तो सभी ने यूरोप में अपना बेस बनाने का फैसला लिया। सुदीप्ति को दो साल पहले पेरिस से 50 किलोमीटर दूर पामफोऊ में भेजा गया। वहां उसके लिए अकेले रहना मुश्किल था। प्रैक्टिस के बाद उसे खुद खाना बनाना पड़ता था और घोड़े का भी ख्याल रखना पड़ता था। एशियाई खेलों के लिए चीन से घोड़े भेजे गए हैं। जर्मनी में सात दिन तक उन्हें कोरेंटाइन रखा गया।
मुकेश मानते हैं कि यह बेहद महंगा खेल है। इसके लिए उन्होंने जमीन गिरवी रखकर लोन भी लिया, लेकिन कभी बेटी को इस बारे में नहीं बताया, जिससे उस पर किसी तरह का अतिरिक्त दबाव नहीं पड़े। उन्होंने 75 लाख रुपये में घोड़ा लिया है। एशियाई खेलों में तीन बार पदक जीत चुके, अर्जुन अवार्डी कर्नल राजेश पट्टू चारों घुड़सवारों के प्रदर्शन से हैरान हैं। वह कहते हैं कि जिन हालातों में इन घुड़सवारों ने तैयारियां कीं और जिन विपरीत परिस्थितियों का इन्हें सामना करना पड़ा, उसमें स्वर्ण जीतना कल्पना से परे है। कर्नल पट्टू बताते हैं कि घुड़सवारी में ड्रेसाज का घोड़ा सबसे महंगा होता है। अच्छे घोड़े की कीमत एक करोड़ रुपये से भी अधिक होती है।

 

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