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खो-खो खिलाड़ी कभी दो वक्त के भोजन को थी मोहताज
नूतन शुक्ला
नागपुर।
कभी दो वक्त के भोजन को मोहताज पूर्व भारतीय खो-खो टीम की कप्तान सारिका काले ने अर्जुन पुरस्कार जीतकर नारी शक्ति के सामने एक उदाहरण पेश किया है। दक्षिण एशियाई खेल 2016 में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय महिला खो-खो टीम की कप्तान रही काले ने खेलपथ से बातचीत में बताया कि 'मुझे भले ही इस साल अर्जुन पुरस्कार के लिए चुना गया है, लेकिन मैं अब भी उन दिनों को याद करती हूं जब मैं खो-खो खेलती थी। मैंने लगभग एक दशक तक दिन में केवल एक बार भोजन किया।
सारिका बताती हैं कि अपने परिवार की स्थिति के कारण मैं खेल में आई। इस खेल ने मेरी जिन्दगी बदल दी और अब मैं उस्मानाबाद जिले के तुलजापुर में खेल अधिकारी पद पर कार्य कर रही हूं।'इस 27 वर्षीय खिलाड़ी ने याद किया कि उनके चाचा महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में खेल खेला करते थे और वह उन्हें 13 साल की उम्र में मैदान पर ले गए थे। इसके बाद वह लगातार खेलती रही। सारिका ने कहा, 'मेरी मां सिलाई और घर के अन्य काम करती थीं। मेरे पिताजी की शारीरिक मजबूरियां थीं इसलिए वह ज्यादा कमाई नहीं कर पाते थे। हमारा पूरा परिवार मेरे दादा-दादी की कमाई पर निर्भर था। उन समय मुझे खाने के लिए दिन में केवल एक बार भोजन मिलता था। मुझे तभी खास भोजन मिलता था जब मैं शिविर में जाती थी या किसी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए जाती थी।'
सारिका के कोच चंद्रजीत जाधव ने कहा कि काले ने वित्तीय समस्याओं के कारण यह खेल छोड़ा। जाधव ने कहा, 'सारिका ने 2016 में अपने परिवार की वित्तीय समस्याओं के कारण खेल छोड़ने का फैसला कर लिया था। सारिका से बात करने के बाद वह मैदान पर लौट आई और यह टर्निंग प्वाइंट था। उसने अपना खेल जारी रखा और पिछले साल उसे सरकारी नौकरी मिल गई, जिससे उससे वित्तीय तौर पर मजबूत होने में मदद मिली।'
सारिका काले की कप्तानी में भारतीय टीम ने 2016 के दक्षिण एशियाई खेलों का गोल्ड मेडल जीता था। सारिका ने कहा कि कई परेशानियों के बावजूद उनके परिवार ने उनका साथ दिया और उन्हें टूर्नामेंटों में भाग लेने से नहीं रोका। उसने कहा, 'खेलों में ग्रामीण और शहरी माहौल का अंतर यह होता है कि ग्रामीण लोगों को आपकी सफलता देर में समझ में आती है भले ही वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो।'