पैरालम्पियन अपने परिवार के प्यार पर निसार

दिव्यांगों के हौसले को मिला टोक्यो में नया मुकाम
खेलपथ विशेष
नई दिल्ली।
हाल ही में टोक्यो में सम्पन्न पैरालम्पिक खेलों में भारत के पैरा एथलीटों ने शानदार प्रदर्शन किया और 19 पदक लेकर स्वदेश लौटे। यह सफलता खिलाड़ियों के धैर्य, समर्पण और कड़ी मेहनत का प्रतिफल तो था ही, साथ ही था परिवार का साथ। एक मां का साहस, एक पत्नी का अटूट विश्वास, एक पिता द्वारा परिवार की सम्पत्ति बेच देने की जिजीविषा और एक बहन की भक्ति। परिवार के मजबूत समर्थन और खुद की मेहनत से इन खिलाड़ियों ने भारत का परचम लहराया। ऐसे में जहां माता-पिता सक्षम बच्चों को ही खेलों की ओर कम प्रोत्साहित करते हैं, वहीं, एक परिवार का विकलांग बच्चे का आंख मूंदकर साथ देना वाकई काबिले तारीफ है। सचमुच, कुछ तो अलग होंगे इन पैरा एथलीटों के परिवार जिन्होंने इनके खेलों के सपनों को पंख दिए। उस दिन गांव में जो हुआ...
‘क्या यह वापस बढ़ेगा?’ निषाद कुमार की मां और बहन को याद नहीं है कि चारा काटने की मशीन पर अपना हाथ खोने के बाद उसने कितनी बार उनसे यह सवाल पूछा था। पुष्पा देवी उस दिन चारा काटने में लगी हुई थी। घर में निषाद भी था। नौ साल का बच्चा अचानक दर्द से कराहने लगा। मां मशीन बंद करने के लिए दौड़ीं, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। निषाद का हाथ कट गया था। पुष्पा देवी वहीं बेहोश हो गईं। तुरंत वहां गांव के लोग एकत्र हो गए और निषाद को पहले निकटतम शहर अम्ब और फिर होशियारपुर ले जाया गया। लेकिन हाथ नहीं बचाया जा सका। परिजन घर लौट आए, जीवन के इस खतरनाक मंजर से हर कोई हतप्रभ था। सब जानते थे कि यह हाथ अब हमेशा के लिए चला गया है, लेकिन न तो पुष्पा, न ही उनके पति और न बहन रमा में यह साहस था कि वे निषाद को यह हकीकत बता सकें।
तीन महीने बाद एक दिन पुष्पा देवी ने अपने बेटे को एक कलम और एक कॉपी दी और कहा कि वह बाएं हाथ से लिखना शुरू करे। उन्होंने निषाद से कहा, ‘तुझे हर दिन एक घंटे अभ्यास करना होगा।’ जल्द ही, पिता रशपाल ने बेटे और बेटी को सुबह दौड़ने के लिए ले जाने की अपनी दिनचर्या को फिर से शुरू किया। एक साल के भीतर, निषाद फर्राटेदार तरीके से लिखने लगा और अन्य गतिविधियों को आसानी से करने लगा। 
जीवन आखिरकार सामान्य ढर्रे पर आया और पुष्पा देवी का रोना-धोना थोड़ा कम हुआ। आज, हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले के बदायूं गांव के निषाद कुमार टोक्यो पैरालम्पिक में रजत पदक जीतने वाले हाई जम्पर हैं, उनकी 2.06 मीटर की छलांग एक एशियाई रिकॉर्ड है। मां इस सफलता का श्रेय अकेले अपने और अपने परिवार को नहीं देना चाहतीं। वह कहती हैं कि एक बच्चे के लालन-पालन में पूरा गांव लगता है। यह सबका साथ था जिसने नौ साल के एक अपंग युवा लड़के को पैरालम्पियन पदक विजेता बना दिया। 
पुष्पा देवी का कहना है कि वे हमेशा शारीरिक प्रशिक्षक रमेश के आभारी रहेंगे, जिन्होंने उन्हें खेल के लिए प्रेरित किया। इसके साथ ही सरस्वती विद्या मंदिर की प्रिंसिपल मीनाक्षी शर्मा का भी, जहां वह उस समय पढ़ रहा था। मां कहती हैं, ‘उसने गांव को गौरवान्वित किया है।’ उन्होंने कहा कि वह अब रोती नहीं हैं, कभी आंखें भर भी आती हैं तो खुशी के आसुंओं से।
एक मां का संकल्प...
झज्जर की रहने वाली मीना कथूनिया की कहानी भी अलग नहीं है। उनका बेटा योगेश (24) तब आठ साल का था जब एक दुर्लभ संक्रमण (गुइलेन-बैरे) जो नसों को प्रभावित करता है, ने उसे व्हीलचेयर पर बिठा दिया। योगेश का इलाज कर रहे डॉक्टरों ने साफ कह दिया कि अब कोई चमत्कार ही उसे चलने-फिरने लायक बना सकता है। बेशक अपने चिकित्सकीय ज्ञान से डॉक्टरों ने ऐसा कह दिया, लेकिन शायद उन्हें एक मां के संकल्प पर भरोसा नहीं था। मीना याद करती हैं, ‘फिजियोथेरेपी एकमात्र संभव समाधान था। इसका खर्च 14,000 रुपये प्रतिमाह था। मेरे पति का वेतन इतना नहीं था कि प्रतिमाह इतना खर्च कर सकें। 
धन की कमी थी, लेकिन हौसला और संकल्प दृढ़ था।’ उन्होंने पंचकूला के चंडी मंदिर छावनी अस्पताल के कर्मचारियों से ‘फिजियोथेरेपी’ सीखी, जहां उनके पति तैनात थे। तीन साल के भीतर योगेश फिर चलने लगा। अपनी विकलांगता के कारण स्कूल नहीं पढ़ पाने वाले ने एक दशक बाद डिस्कस थ्रो में पैरालिंपिक में रजत पदक जीतकर सबका गौरव बढ़ाया और अपने अतीत के काले दिनों पर मरहम लगाया। वे दिन थे जब मीना नन्हे योगेश को कमर से बांधती थीं और इलाज की उम्मीद में उसे विभिन्न डॉक्टरों के पास स्कूटी पर ले जाती थीं। 
दूर-दराज के गांवों में हकीमों से लेकर बाबाओं तक, मां कहां-कहां नहीं गयी। मीना कहती हैं, ‘मैंने जयपुर के पास एक बाबा के बारे में सुना था। वह जंगल के बीच में एक मंदिर में रहता था। 20 दिनों तक हम एक खुले शेड में रहे। यह काफी डरावना था।’ तीन बच्चों की मां मीना के पास खुद पर खर्च करने के लिए कुछ नहीं था। ऐसी महिला के लिए 4 करोड़ रुपये की पुरस्कार राशि का क्या मतलब हो सकता है? वह कहती हैं, ‘मेरे बेटे ने मुझे पूरी रकम दी। इसमें से कुछ का उसके प्रशिक्षण लोन चुकाने में खर्च किया जाएगा। इसके अलावा एक बड़ा घर, शायद बहादुरगढ़ में लेंगे। कुछ राशि उसके भविष्य के प्रशिक्षण खर्चों के लिए इस्तेमाल की जाएगी’, मीना एक आसान जीवन जीने की उम्मीद में अपने सपनों के बारे में बताती हैं। 
मां ने निभाई पिता की भूमिका...
सोनीपत की रहने वाली निर्मला अंतिल को तब अपने बच्चों के लिए मां और पिता दोनों बनना पड़ा, जब उन्होंने 2004 में अपने पति को खो दिया। सारा दर्द समेटे निर्मला चुपचाप अपने चार बच्चों की परवरिश करने लगी। लेकिन जीवन में परेशानियां कहां खत्म होने वालीं। 2015 में, उनके इकलौते बेटे 17 वर्षीय सुमित का एक्सीडेंट हो गया। उसका बायां पैर काटना पड़ा। कुश्ती का शौक रखने वाला बारहवीं कक्षा का छात्र सुमित दुर्भाग्य के क्रूर प्रहार की चपेट में आ गया। 
निर्मला को न केवल एक उदास किशोर, बल्कि समाज की ‘सहानुभूति’ का भी सामना करना पड़ा। लोग कहते, ‘बेचारी का जवान बेटा लंगड़ा हो गया।’ ऐसे शब्द उन्हें और ज्यादा परेशान करते। अब सुमित ने किसी से भी मिलना-जुलना बंद कर दिया। वह सिर्फ रात को ही कभी-कबार बाहर निकलता। ऐसे में निर्मला उसकी ढाल बनीं और उसे प्रोत्साहित करने लगीं कि कृत्रिम अंग लगाकर जीवन को सामान्य तरीके से जीया जाये। इस तरह वह काफी हद तक सफल भी हुई। कृत्रिम पैर के साथ सुमित ने बीकॉम करने के लिए दिल्ली के रामजस कॉलेज में प्रवेश लिया। 
यह कठिन था, लेकिन सामान्य स्थिति में रहने के उसके प्रयास इतने सफल रहे कि दो साल तक कॉलेज में उनके सबसे अच्छे दोस्त को भी कृत्रिम पैर के बारे में पता नहीं चला। 2017 में, पैरा-एथलीट राज कुमार ने सुमित को पैरा स्पोर्ट्स की दुनिया से अवगत कराया, और इसके बाद, मां के साहस के साथ सुमित दृढ संकल्प कर बढ़ता गया, जैसा कि वह कहते हैं, ‘वह घंटों अभ्यास करता था, मुश्किल से दो-तीन घंटे सोता था, और अक्सर खून से लथपथ होकर घर जाता था। मैं उसके घाव पर मरहम-पट्टी करता और उसे अगले दिन अभ्यास के लिए वापस जाने के लिए कहता।’ 
दृढ़ता ही नहीं, निर्मला ने अपने बेटे को संस्कार भी दिए। सोने के तमगे के साथ लौटने के बाद जब हरियाणा के सीएम ने सुमित से उसकी किसी इच्छा के बारे में पूछा तो उन्होंने अपने गांव (खेवड़ा) के लिए एक स्टेडियम, एक स्वास्थ्य केंद्र, पीने योग्य पानी और सीवेज सुविधाओं सहित बेहतर सुविधाओं के लिए कहा। सुमित का कहना है, ‘कई युवा ड्रग्स का सेवन करते हैं। एक स्टेडियम उनके जीवन को बेहतर दिशा देगा।’ पैरालम्पिक में स्वर्ण पदक और विश्व रिकॉर्ड के साथ, भविष्य के लिए क्या योजनाएं हैं? सुमित का कहना है वह ऐसे ही और चमकदार पदकों को जीतना चाहता है। उनकी मां की इच्छा है बेटे के लिए एक साधारण, प्यारी बहू मिले जो उसे अपना पसंदीदा बेसन का हलवा बनाकर खिलाए और हमेशा उसकी देखभाल करे, उसी तरह जैसे निर्मला करती आई हैं। 
शूटिंग युगल...
पोलियो से पीड़ित फरीदाबाद निवासी 35 वर्षीय सिंहराज अधाना ने दो बेटों की मां अपनी पत्नी कविता से जब शूटिंग के अपने जुनून को आगे बढ़ाने के लिए गहने मांगे तो उन्होंने तनिक भी संकोच नहीं किया। कविता ने पति को अपने सारे गहने दे दिए ताकि उनके पति अपने शूटिंग के शौक को पूरा करने के लिए पिस्तौल खरीद सकें। कविता से जब पूछा गया कि क्या आपने अपने छोटे बेटों के बारे में नहीं सोचा? 
उन्होंने कहा, ‘मुझे उन पर पूरा भरोसा था। वह एक अच्छे इंसान हैं। उन्होंने हमेशा दूसरों की मदद की है। मैं चाहती थी कि वह अपने जुनून को आगे बढ़ाएं। मेरे बच्चे अभी छोटे थे। अगर कोई दिक्कत आ भी जाती तो जीवन को फिर से बनाने के लिए पर्याप्त समय था।’ उनका विश्वास और भरोसा सही था। एक साल के भीतर, सिंहराज ने अपना पहला राष्ट्रीय स्वर्ण जीता और चार साल बाद उन्हें हाल ही में हुए पैरालंपिक में एक नहीं बल्कि दो पदक-एक रजत और एक कांस्य मिला। उनकी पत्नी वह स्तंभ रही हैं जिस पर सिंहराज की सफलता की कहानी टिकी हुई है। 
कविता कहती हैं, ‘चार साल तक मैंने उन्हें सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रखा-चाहे वह बच्चों का मामला हो, अभिभावकीय जिम्मेदारी हो या फिर अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियां।’ सिंहराज की प्रबंधक के तौर पर काम करने वाली कविता उनके शेड्यूल, पत्राचार आदि को भी देखती हैं। वह हमेशा उनके साथ रहती हैं। अपने अभ्यास के दौरान सिंहराज के सुझाव पर कविता ने शूटिंग भी शुरू की। वह 2020 में राष्ट्रीय निशानेबाजी चैम्पियनशिप में पांचवें और हरियाणा में पहले स्थान पर रहीं-एक पैरालंपिक पदक विजेता के लिए एक उपयुक्त साथी।
निशानेबाजी के लिए बेचना पड़ा घर
स्वर्ण पदक विजेता और चैम्पियन पैरा शूटर मनीष नरवाल अपने पिता दिलबाग सिंह और मां संतोष देवी का बहुत सम्मान करते हैं। वह जानते हैं कि उनके माता-पिता ने उन्हें निशानेबाज बनाने के लिए कितने पापड़ बेले। उनकी मेहनत की बदौलत ही वह टोक्यो में पैरालम्पिक खेलों में रिकॉर्ड बना पाये और उन्होंने स्वर्ण पदक जीता। यह उनके खून-पसीने को एक करने का ही प्रतिफल है। क्या-क्या नहीं किया मनीष के जन्म से लेकर। नीम-हकीमों के अनगिनत चक्कर। आखिरकार यह साबित हुआ कि कोई भी बाधा इतनी बड़ी नहीं होती, जिसे जिजीविषा और मेहनत के बल पर दूर न किया जा सके। 
संतोष देवी कहती हैं कि जन्म से ही बच्चे में दाहिने हाथ और कंधे की कमजोरी की समस्या थी। उस उसे लेकर इस उम्मीद में कई डॉक्टरों और चिकित्सकों के पास गए कि शायद उसका हाथ काम करने लगे। लेकिन ये सारी कवायदें तब खत्म हो गयीं जब 14 साल की उसकी उम्र हो गयी और इसके बाद उन्होंने कोई कोशिश नहीं करने का फैसला कर लिया। वह याद करती हैं, ‘एम्स के डॉक्टर उसका ऑपरेशन करने के लिए तैयार थे, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि सर्जरी सफल होगी। इसके अलावा नसों के काम बंद करने का भी खतरा था।’ 
अपने पिता से प्रोत्साहित होकर मनीष ने शूटिंग तो शुरू की, लेकिन यह एक ऐसा खेल था जो परिवार के लिए बहुत महंगा था। क्योंकि दिलबाग सिंह के लोहे के औजारों को काटने और मोड़ने की एक छोटी फैक्ट्री थी जो वर्ष 2015 से कर्ज के पहाड़ तले दबी थी। विषम परिस्थितियों के बावजूद मनीष की खेल के प्रति गंभीरता को देखते हुए उन्होंने उसके लिए पहली पिस्तौल खरीदने के लिए फरीदाबाद में अपना छोटा सा घर बेचने का फैसला किया और किराए के अपार्टमेंट में चले गए। संतोष देवी को अभी भी याद है कि जब तक सौदा तय नहीं हो गया था तब तक पिता ने परिवार को अपनी योजनाओं के बारे में कुछ नहीं बताया। 
मनीष के चाचा हरि सिंह याद करते हैं, 'घर लगभग 8 लाख रुपये में बेचा गया था। उस समय पिस्तौल की कीमत ढाई लाख रुपये थी। बचा हुआ ज्यादातर पैसा भी लड़के की शूटिंग पर खर्च किया गया।' नरवाल परिवार के लिए पिछले कुछ वर्षों से स्थितियां सुधरी हैं। दिलबाग की फैक्टरी फल-फूल रही है और परिवार बल्लभगढ़ के शाहूपुरा में एक बड़े घर में रहने लगा है। लेकिन माता-पिता का ‘सुखद’ संघर्ष जारी है, बल्कि ऐसे संघर्ष तीन गुना बढ़ गए हैं। मनीष के सहोदर शिखा और शिवा ने भी शूटिंग शुरू कर दी है। मनीष कहते हैं, ‘मेरी मां को अब तीन निशानेबाजों की आहार संबंधी जरूरतों का ध्यान रखना पड़ता है।’
भैया की छाया...
हरविंदर की बहन संदीप कौर और भाई अर्शदीप को याद है कि उसके साथ खेलने वाले बच्चे उसका मजाक उड़ाते थे। खेल के दौरान दोनों उसे उठाने के लिए दौड़ पड़ते थे क्योंकि उसका पैर काम नहीं करता था और वह अक्सर गिर जाता था। फिलहाल हरियाणा के कैथल जिले के अजीतनगर गांव में पारिवारिक मकान में रहने वाले संदीप याद करते हैं, ‘मुझे याद है कि हमारी मां को इतना बुरा लगता था कि उनका बेटा दूसरों के बराबर क्यों नहीं।’ हरविंदर सिंह ने पैरालंपिक में तीरंदाजी में भारत को कांस्य पदक दिलाया तो पूरा परिवार इस खुशी को साझा करने में साथ था, लेकिन सिर्फ मां ही बेटे की इस सफलता का जश्न मनाने के लिए नहीं थी क्योंकि वर्ष 2018 पैरा एशियाई खेलों में हरविंदर के स्वर्ण पदक जीतने से एक महीने पहले उनका निधन हो गया। अंतत: इस विजेता ने अपनी जीत उन्हें समर्पित कर दी। वह एक ऐसी महिला थीं जो मधुमेह से पीड़ित रहीं। हमेशा अपने बेटे की जीत के लिए जोश दिखाया और अंतत: बेटा विजयी हुआ, लेकिन मां दुनिया में नहीं रही। वह उस दिन बहुत रोया। हरविंदर 18 महीने का था जब डेंगू बुखार के इलाज के दौरान एक इंजेक्शन ने उसका एक पैर ख़राब कर दिया। उसकी एक के बाद एक सर्जरी हुई। 
कभी चंडीगढ़ तो कभी दिल्ली। मां हरभजन कौर कई हफ्तों तक उनके साथ रहीं। साया की तरह साथ रहने वाली अपनी बहन के बारे में संदीप कहते हैं, ‘जहां भी पैर के ठीक होने की उम्मीद दिखती, वह उसे ले जातीं। यहां तक कि वह मलेरकोटला में हकीमों के पास भी गयीं। वहां दो-तीन महीने तक रुकते थे। घर लौटकर पैरों की मालिश करती रहतीं। वह चाहती थीं कि संदीप किसी तरह अपने पैरों पर खड़ा हो।’ 
वह दो छोटे भाइयों को साइकिल पर स्कूल ले जातीं। स्कूल में, दोपहर का खाना एक साथ खाया जाता था, इसके बाद संदीप दोनों के लिए पानी लाने के लिए नल तक जाता था। टांगों में अक्सर प्लास्टर होने के कारण स्कूल से लंबे समय तक अनुपस्थिति रहना पड़ता था। वह बताती हैं, ‘मैं शिक्षकों के पास उसके स्कूल का काम लेने और उसे करने में उसकी मदद करने के लिए जाती थी।’ फिर जब पैरालम्पिक की तैयारी की बात आई, तो लॉकडाउन आ गया। यानी एक और परीक्षा। 
अर्शदीप के मुताबिक, ‘छोटा सा घर था। इसमें पर्याप्त जगह थी नहीं। इसलिए एक बार गेहूं की कटाई हो जाने के बाद खेत को ही एक प्रशिक्षण के मैदान में बदल दिया गया। हरविंदर का मेडल जीतना उनके और साथ-साथ उनकी मां के सपने के सच होने जैसा है। हरविंदर ने एक लक्ष्य तो हासिल कर लिया। अब वह उनका दूसरा सपना भी पूरा कर सकता है, यानी जल्दी से शादी।’

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