खेलों का मजाक मत बनाओ यारों!

खेल प्रशिक्षकों और शारीरिक शिक्षकों की कौन उठाएगा आवाज?

श्रीप्रकाश शुक्ला

नई दिल्ली। सरकार, खेल संगठन और खेलनहारों का त्रिगुट आजादी के बाद से ही खेलों और खिलाड़ियों का भाग्य विधाता बन पैसे को आग लगा रहा है। अब इस गोरखधंधे में कुछ स्वनामधन्य स्वैच्छिक खेल संस्थाएं भी शामिल हो चुकी हैं। इन संस्थाओं का उद्देश्य खेलों की भलाई कम अपनी विजय पताका फहराकर यह जताना है कि वही खेलों और खिलाड़ियों की सबसे अधिक शुभचिन्तक तथा पैरोकार हैं। अफसोस ऐसी संस्थाएं देश के दिल दिल्ली को अपनी जद में लेकर अब देशभर में अपने मंसूबों का विस्तार कर रही हैं।

पिछले एक साल से खिलाड़ी, खेल प्रशिक्षक और शारीरिक शिक्षक दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं लेकिन खेल मंत्री और खेल पदाधिकारियों के साथ फोटो खिंचवाने के शौकीनों की नजर इन पर नहीं पड़ी। पिछले एक साल में आनलाइन प्रशिक्षण देने और खेल ज्ञान का दीप प्रज्वलित करने के बेतुके प्रचलन से खेलों के असली शुभचिन्तकों का बड़ा नुकसान हुआ है। खेल प्रशिक्षकों और शारीरिक शिक्षकों की दुर्दशा राजधानी दिल्ली ही नहीं समूचे मुल्क में हुई है लेकिन कोई भी संस्था इनकी मदद को सामने नहीं आई। कोरोना की आड़ में निजी स्कूलों ने शारीरिक शिक्षकों के साथ जो सलूक किया वह बेहद चिन्तनीय है।    

खेल मैदानों में कोई प्रतिभागी पराजित नहीं होना चाहता है जबकि स्पर्धा में भाग लेने वालों को पता होता है कि किसी न किसी को परास्त होना ही है। यह जानते हुए खेलकूद में एक पक्ष जीतता है तथा सम्भावित रूप से जीतने वाला कहीं अधिक योग्य, सक्षम, बलशाली है फिर भी उसे हर हाल में पछाड़ना जरूरी समझा जाता है क्योंकि हार-जीत से मान-सम्मान जुड़ा होता है। अब तो विजेता खिलाड़ी को आर्थिक लाभ, आजीविका के लिए अच्छी से अच्छी नौकरी, मकान, भूखण्ड, वाहन आदि मिलने लगे हैं लेकिन खेल प्रशिक्षकों और शारीरिक शिक्षकों को क्या मिलता है, यह सर्वविदित है।

खिलाड़ियों की प्रतिभा निखारने वाले खेल प्रशिक्षक और शारीरिक शिक्षक आज फुटबाल बन गए हैं। कोरोना संक्रमण के दौर में लाखों प्रशिक्षक और शारीरिक शिक्षक बेजार हो गए लेकिन खेलों की भलाई का दम्भ भरने वाली किसी संस्था ने कुम्भकर्णी नींद में सोए सरकारी खेल तंत्र को जगाने की कोशिश नहीं की। खिलाड़ी सफलता के लिए लगातार मादक पदार्थों का सेवन कर रहे हैं। डोपिंग में हमारा राष्ट्र दुनिया में पहले नम्बर पर पहुंच चुका है, यह हमारे लिए शर्म की बात होनी चाहिए।  

डोपिंग की यह खराब लत 19वीं सदी से प्रचलन में है। अब तक हजारों खिलाड़ी डोपिंग से प्रतिबंध का शिकार हो चुके हैं। भारत की बात करें तो यहां शक्तिवर्धक दवाओं के सेवन के मामले लगातार बढ़ रहे हैं वहीं जूनियर प्रतियोगिताओं में उम्र फरेब का धंधा निरंतर परवान चढ़ रहा है। खेलों में निष्पक्ष परिणाम के पक्षधरों, लेखकों, विचारकों, शोधकर्ताओं, खेल संघ पदाधिकारियों और स्वैच्छिक खेल संस्थाओं ने इस दिशा पर अभी तक कुछ भी सार्थक प्रयास नहीं किए हैं, जोकि चिन्ता की बात है। डोपिंग के बढ़ते मामलों के चलते रूस को टोक्यो ओलम्पिक से बेदखल किया जा चुका है। भारत में इस दिशा की तरफ गम्भीर प्रयास न हुए तो हमारे खिलाड़ियों की प्रतिभागिता पर भी प्रतिबंध का दंश लग सकता है।

1999 में अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी ने प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के खिलाफ लड़ाई लडऩे का निर्णय लिया और 10 नवम्बर, 1999 को वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) की स्थापना हुई। 2004 में वाडा ने एथेंस ओलम्पिक खेलों में डोपिंग परीक्षण किए। बाद में ऐसे गलत मार्ग पर चलने वालों के लिए कई तरह के संशोधनों के साथ खून व पेशाब की जांच व उसके परिणाम पर सजा तय की गई। भारत ने भी ऐसे प्रतिभागियों पर कड़ा नियंत्रण करने का निश्चय किया और 2008 में इंटरनेशनल ओलम्पिक कमेटी के मानकों के आधार पर जांच की प्रयोगशाला शुरू की गई जो 14 मई, 2009 से नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में संचालित है। दुर्भाग्य की बात है कि भारत के नाडा के परिणाम वाडा के मानकों के अनुरूप नहीं रहे जिसकी वजह से 20 अगस्त, 2019 से भारतीय प्रयोगशाला में खून व पेशाब की जांच प्रतिबंधित कर दी गई है। अब जांच विदेशी लैबों में हो रही है।

पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश में सब-जूनियर और जूनियर प्रतियोगिताओं में सीनियर खिलाड़ी खेल रहे हैं। पिछले साल 10 से 22 जनवरी, 2020 तक असम में सम्पन्न तीसरे खेलो इंडिया यूथ गेम्स में 15 खिलाड़ी प्रतिबंधित दवा के इस्तेमाल के दोषी पाये गये थे तो हाल ही भोपाल और गुवाहाटी में हुई जूनियर एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में सौ से अधिक खिलाड़ी उम्र फरेब में पकड़े गए। इनमें खेलों की शक्ति कहलाने वाले हरियाणा के खिलाड़ी भी शामिल हैं। गुवाहाटी में 91 सीनियर खिलाड़ियों को बेईमानी के चलते प्रतियोगिता से बाहर किया गया। दिल्ली में 2018 के पहले खेलो इंडिया यूथ गेम्स में 11 जबकि 2019 पुणे में आयोजित दूसरे गेम्स में नौ प्रतिभागी डोप टेस्ट में फेल हुए थे। हमारे देश की प्रयोगशाला पर प्रतिबंध लगा हुआ है, अत: नमूनों की जांच दोहा (कतर) में हुई। इनमें अधिकांश पदक विजेता हैं जिन्हें सरकारी तंत्र से 50 हजार रुपये तक मासिक छात्रवृत्ति दी जाती है।

पिछले साल पकड़े गए 15 खिलाड़ियों में चार-चार भारोत्तोलन, कुश्ती, तीन कबड्डी, बाकी एथलेटिक्स, मुक्केबाजी, फुटबॉल, वालीबाल के खिलाड़ी शामिल हैं। इस खराब लत के लिए सिर्फ खिलाड़ी ही नहीं उनके कोच, अभिभावक, चिकित्सक, ट्रेनर, डायटीशियन सभी समान रूप से दोषी हैं। इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से पूरे खेल जगत में भारत की जगहंसाई हुई थी। उभरते हुए युवा खिलाड़ियों को उनके करियर में सफलता पाने के लिए गलत राह दिखाने वालों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। निजी खेल संस्थाएं खेलों के उत्थान में योगदान दें या नहीं पर खेलों का तमाशा करने से जरूर बाज आएं।   

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