धन्य हैं बेटियां

श्रीप्रकाश शुक्ला
हम बेटियों की जीत पर जयकारे लगाते हैं। हमारी हुकूमतें धनवर्षा करती हैं। वह भी जनता के पैसे से उसके वोटों के लिए। खेल, खिलाड़ी को नियमितता की कसौटी पर रोज परखते हैं। समाज की मिथ्या दलीलों के बाद अनगिनत परेशानियों को पराजित कर जब कोई बेटी मुल्क का नाम रोशन करती है तो फख्र के साथ सफेदपोश खेलनहारों पर रंज भी आती है। हाकी को ही लें इसके देश भर में कई माई-बाप हैं। जीत के बाद हर कोई इन बेटियों की बलैयां लेता है। जानकर ताज्जुब होगा कि तीन साल पहले जर्मनी में जूनियर विश्व कप हॉकी में कांस्य पदक बटोरने के बाद भी मुल्क भर में बेटियों के जयकारे लगे थे। जयकारों के बीच पूर्व भारतीय कोच माइकल नोब्स ने तब जो हैरतअंगेज खुलासा किया था, उससे खेलप्रेमियों का बेशक दिल टूटा हो लेकिन हमारे खेल सिस्टम में कोई सुधार नहीं दिखा।
जूनियर विश्व कप की जंग में दुनिया की नामी टीमों के बीच देश का नाम रोशन करने के लिए मैदान पर अदम्य हौसले और साहस का दांव लगा देने वाली हमारी बेटियों में से सात खून की कमी यानी एनीमिया की शिकार थीं। बावजूद इसके, स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमता के पैमाने पर अपने से ज्यादा समर्थ और मजबूत प्रतिद्वंद्वी टीमों के खिलाफ जज्बात की जंग लड़ते हुए बेटियों ने अक्सर हालात से हारकर दम तोड़ने के कगार पर पहुंच जाने वाली पुश्तैनी खेल हाकी का इकबाल बुलंद किया था। विपरीत हालात में संघर्ष की अलख जगाते हुए शानदार उपलब्धि अर्जित करने वाली होनहार और हुनरमंद बेटियों के समक्ष देश कई बार नतमस्तक हो चुका है। ओलम्पिक में भारतीय महिला हाकी ने दो बार कुलांचें भरी हैं। रियो में भारतीय बेटियां बेशक अंतिम पायदान पर रहीं लेकिन उन्होंने देश की अस्मिता को बचाने की पुरजोर कोशिश की।
भारतीय खेल शिरोमणि मेजर ध्यानचंद का नाम भारत रत्न के लिए बार-बार भेजा जाना और सरकार की असमंजसता सवा अरब लोगों का दिल तोड़ती है बावजूद हाकी की हकीकत को कोई भी परखना नहीं चाहता। सच की कसौटी पर इसके मायने समझें तो खेलों को लेकर देश की प्रतिबद्धता, पहल और प्रयासों को लेकर वर्षों से किये जाते रहे दावों की गम्भीरता भी कठघरे में दिखती है। इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है कि स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमता के पैमाने पर खून की अल्पता से जूझती बेटियों को विश्व कप में चुनौतियों से लोहा लेने के लिए मैदान पर उतार दिया जाता है। हमारे खेल तंत्र के पास ऐसा कोई सिस्टम नहीं है जो उनके शारीरिक स्वास्थ्य और दम-खम का आकलन कर सके। हम जीत के जश्न में डूबे हों और इसका खुलासा एक विदेशी कोच करे यह शर्मसार करने वाला घटनाक्रम है। फिटनेस, स्टेमिना और ताकत में कमी कालांतर में हॉकी ही नहीं दीगर खेलों की सफलता में भी हमारी प्रतिभाओं के आड़े आई है। यही कारण है कि खेलों की वैश्विक प्रतिस्पर्धाओं में अन्य देशों के मुकाबले हमारी उपलब्धियां कमतर रही हैं।
क्रिकेट को छोड़ दें तो अन्य ओलम्पिक खेलों, जो सही मायने में आजकल किसी देश की विश्वव्यापी प्रसिद्धि के परिचायक हैं, में हमारी कोई मुकम्मल हैसियत नहीं बन पाने के पीछे शारीरिक दमखम एक बड़ा फैक्टर रहा है। बावजूद इसके आजादी के 70 साल बाद भी हम कोई ऐसा सिस्टम विकसित नहीं कर पाये हैं जो सफलता की उड़ान भरने के लिए सामने आने वाली प्रतिभाओं के हौसलों को स्टेमिना और फिटनेस में भी बेजोड़ होने की गारंटी दे सके। जर्मनी में कांस्य पदक जीत के साथ उम्मीदों का नया सवेरा जगाने वाली देश की ये होनहार बेटियां हों या फिर ओलम्पिक में खेले जाने वाले खेलों में हाल के वर्षों में देश का गौरव बढ़ाने वाले अन्य खिलाड़ी बेटियां इनकी सफलताएं हमारे सिस्टम की बजाय व्यक्तिगत स्तर पर देश और खेलों के लिए कुछ भी कर गुजरने के उनके जज्बे की देन रही हैं। बेटियों को लेकर दोयम-दर्जे वाली हमारी मानसिकता और सामाजिक ताने-बाने के बावजूद खेलकूद से लेकर तरक्की के हर मोर्चे पर बेटियां आगे बढ़ते हुए देश और समाज का गौरव बढ़ा रही हैं। बेटियों को लेकर समाज की कुत्सित मानसिकता में बदलाव के लिए नित नये अभियानों, प्रयासों और दावों के बावजूद यह कटु सत्य है कि एक सीमा तक अपनी भागीदारी के बाद देश, समाज, परिवार उन्हें जीवन की जंग लड़ने के लिए अपने हाल पर छोड़ देता है।
उपेक्षा, दर्द और दंश झेलने के बावजूद बेटियों ने अपने हिस्से और हक को जमाने पर न्योछावर करते हुए फर्ज और वफादारी की सदियां दी हैं। इस त्याग और समर्पण के कारण खून की कमी तो जैसे बेटियों की नियति हो गयी है। इसकी व्याख्या और विश्लेषण अक्सर इस अंदाज में होता है, जैसे हम बेटियों के किसी गहने की चर्चा कर रहे हों। यह अफसोसजनक है, शारीरिक कमजोरी के बावजूद हाकी में जीत का नया अध्याय रचने वाली बेटियों के बहाने ही सही देश और समाज रक्त-अल्पता वाली मानसिकता से उबरने का प्रण ले और लाड़लियों को नियति के इस चक्र से मुक्त करे।

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