युवा शूटरों की उम्मीदों का साल

ओलम्पिक में पदक तो क्रिकेट में विश्व कप की आस

श्रीप्रकाश शुक्ला

भारत युवाओं का राष्ट्र है। यह बात इस साल टोक्यो ओलम्पिक खेलों में दुनिया देखेगी। भारतीय युवा शूटर, पहलवान और मुक्केबाज न केवल प्रतिभाशाली हैं बल्कि उनमें जीत की भूख भी है। हाकी की दोनों टीमों सहित अभी तक कुल 63 भारतीय खिलाड़ियों को ओलम्पिक टिकट मिल चुका है। देखा जाए तो कहीं न कहीं वर्ष भर खेल गतिविधियां होती रहती हैं लेकिन ओलम्पिक खेलों का अपना महत्व है। हर खिलाड़ी का सपना होता है कि वह ओलम्पिक खेलों में अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करे और पोडियम तक पहुंचे। प्रदर्शन के लिहाज से भारत का ओलम्पिक इतिहास गौरवशाली नहीं है। हाकी के 11 पदकों को छोड़ दें तो सौ साल में हम 25 पदक भी नहीं जीत सके।

यह संयोग की बात है कि भारत ने दशक की शुरुआत राष्ट्रमंडल खेलों से की थी तो 2020 में उसे ओलम्पिक खेलना है। भारत ने 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में 101 पदक जीते थे जबकि इस बीच खेले दो ओलम्पिक खेलों में उसे सिर्फ सात पदक ही मिले। भारत ने 2008 के बीजिंग ओलम्पिक खेलों में अपने पारम्परिक रूप से मजबूत क्षेत्रों निशानेबाजी, मुक्केबाजी और कुश्ती में तीन पदक जीते थे। भारत ने बीजिंग ओलम्पिक से मिली लय को बरकरार रखा और 2012 के लंदन ओलम्पिक में मेडल की संख्या दोगुनी करते हुए छह पदक (दो रजत और चार कांस्य) जीते। लंदन में प्रदर्शन भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ ओलम्पिक प्रदर्शन था। लंदन ओलम्पिक खेलों में भारतीय खेल में आशावाद की जो झलक और सम्भावना दिखी थी वह रियो ओलम्पिक में बिल्कुल नजर नहीं आई जबकि इस ओलम्पिक में सबसे ज्यादा 122 भारतीय खिलाड़ी ब्राजील गए थे।

पूरा भारतीय दल जोश से भरा था, तब भारतीय खेल प्राधिकरण के मिशन ओलम्पिक प्रकोष्ठ ने खेलों से पूर्व रखी आधिकारिक रिपोर्ट में 12 से 19 पदक जीतने की सम्भावना जताई थी लेकिन पी.वी. सिन्धु और साक्षी मलिक के प्रदर्शन से ही किसी तरह भारतीय दल की लाज बच पाई थी। हर बड़े खेल आयोजन से पहले हमारे खेलनहार रस्मी भविष्यवाणी करते हैं जिसमें गम्भीरता कम आशावाद का सम्पुट अधिक होता है। टोक्यो ओलम्पिक शायद हमारे लिए आखिरी मौका है। भारत के निशानेबाजों ने बीते साल के अपने शानदार प्रदर्शन से टोक्यो में भारत के लिए रिकॉर्ड पदक की उम्मीदें जगाई हैं। फॉर्म में अस्थायी गिरावट के बावजूद पी.वी. सिन्धु के लिए रियो में रजत से बेहतर प्रदर्शन करने का अच्छा मौका है। मुक्केबाजी और कुश्ती में भी एक से ज्यादा पदक की उम्मीद के हर कारण दिखते हैं और पहली बार भारत की पदक संख्या दहाई में पहुंच सकती है।

ओलम्पिक खेलों में जहां हम सफलता के निर्णायक मोड़ पर हैं वहीं क्रिकेट में भारत इससे अधिक मजबूत नहीं हो सकता। भारत ने 2010 में नम्बर एक टेस्ट टीम के रूप में दशक की शुरुआत की और टेस्ट चैम्पियनशिप रैंकिंग में सबसे ऊपर रहते हुए 2019 में निर्विवाद नम्बर एक टीम के रूप में ही दशक को विदाई दी। हालांकि भारत आईसीसी मुकाबलों में ऐसी सफलता नहीं दोहरा पाया, फिर भी 50 ओवर के प्रारूप में हमारी टीम मजबूत दिखी। इसकी बहुत सम्भावना है कि जल्द ही विराट सेना घरेलू मैदान पर वैसा ही कारनामा करेगी जैसा उसने एम.एस. धोनी की कप्तानी में विश्व कप 2011 में किया था। कुछ भी हो, 2019 में भारतीय टेस्ट टीम, दशक की शुरुआत वाली भारतीय टीम से बेहतर है। तब युवा खिलाड़ी रहे विराट आज क्रिकेट के हर फॉर्मेट में निर्विवाद रूप से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज हैं और जसप्रीत बुमराह, मोहम्मद शमी, भुवनेश्वर कुमार, ईशांत शर्मा और उमेश यादव के रूप में तेज गेंदबाजी में भारत का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ संयोजन है। स्पिन आक्रमण भी काफी दुर्जेय है और रविचंद्रन अश्विन तथा रवींद्र जड़ेजा के मिश्रित गेंदबाजी आक्रमण क्षमता के साथ भारत की गेंदबाजी यूनिट काफी उल्लेखनीय है। इस टीम के साथ विराट 2020 में टी-20 विश्व कप तो 2021 में लॉर्ड्स में आईसीसी टेस्ट चैम्पियनशिप जीतने में सक्षम दिखते हैं।

आर्थिक पहलू पर बात करें तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मौजूदा अध्यक्ष सौरव गांगुली के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट की माली हालत अच्छी है। स्टार टीवी ने पिछले एक दशक में क्रिकेट प्रसारण अधिकारों के लिए 37,000 करोड़ रुपये का भुगतान किया। निश्चित रूप से यह रकम अगले दशक में 50,000 करोड़ रुपए को छू जाएगी। इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) मजबूत होने के साथ दुनिया की कुछ सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं के लिए पसंदीदा टूर्नामेंट बन गया है। आशा है कि प्रथम श्रेणी क्रिकेट और महिला क्रिकेट को भी आने वाले वर्षों में गुणवत्तापूर्ण प्रदर्शन से लाभ मिलेगा। भारतीय क्रिकेट पहले की तुलना में बेहतर दिख रही है और सबसे अच्छा आना अभी बाकी है।

भारतीय फुटबॉल को अभी लम्बी छलांग लगानी है। मसलन इंडियन सुपर लीग (आईएसएल) और यू-17 विश्व कप के लिए शुरुआत अच्छी हुई है। राष्ट्रीय टीम दुनिया के शीर्ष 100 टीमों में शामिल हो गई है, लेकिन निरंतरता अभी भी राष्ट्रीय टीम के लिए बड़ी चुनौती है। इसने हाल ही में कतर के खिलाफ एक शानदार खेल खेला, जिसमें उसे खूब शाबासी मिली लेकिन घर में बांग्लादेश को हराने में नाकाम रही और विश्व कप क्वालीफायर में अफगानिस्तान से लगभग हार ही गई थी। कुल मिलाकर टीम के सामने अपने प्रदर्शन में निरंतरता बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। आईएसएल, जो पहले से ही भारत का अग्रणी राष्ट्रीय टूर्नामेंट है, 2020 में मोहन बागान और ईस्ट बंगाल जैसे पारम्परिक मजबूत फुटबॉल क्लबों के जुड़ने के साथ और मजबूती हासिल करेगा। लीग ने पहले ही अपने स्तर में बहुत सुधार किया है और भारत के करिश्माई कप्तान सुनील छेत्री कहते हैं, कोई वजह नहीं दिखती कि हम 2026 विश्व कप में पहुंच न सकें। यदि आप आईएसएल में युवा खिलाड़ियों की गुणवत्ता देखें, तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अगला दशक हमारा होगा। यह विश्वास की एक छलांग जैसा लगता तो है, लेकिन इस तरह के आत्मविश्वास से ही भारतीय फुटबॉल को ऊंचाई मिल सकती है। देखा जाए तो जो आशा और विश्वास हम दूसरे खेलों में देखते हैं वह भारतीय टेनिस से नदारद है। भारतीय टेनिस आपसी खींचतान में बुरी तरह से उलझी है तो नई प्रतिभाओं में कौशल का अभाव है। लिएंडर पेस, महेश भूपति, सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना अपना सर्वश्रेष्ठ दौर जी चुके हैं, इनके बाद टेनिस में प्रतिभाओं का अकाल सा दिख रहा है। महेश भूपति और सोमदेव देवबर्मन अब रिटायरमेंट ले चुके हैं तो सानिया टोक्यो में मिश्रित युगल पदक में आखिरी शॉट (रोहन के साथ) लेने के लिए वापसी की कोशिश कर रही हैं।

सच कहें तो मैं अपने भारतीय युवा शूटरों से बहुत आशान्वित हूं। बीते साल सितम्बर में रियो विश्व कप में पांच स्वर्ण और नवम्बर में चीन में हुई प्रतियोगिता में तीन स्वर्ण सहित नौ पदक यह विश्वास जगाते हैं कि भारतीय निशानेबाजी अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के दौर में है और जुलाई 2020 के टोक्यो ओलम्पिक में पदक सूची में सबसे ज्यादा योगदान देने को तैयार है। रियो (2016) में एक भी पदक नहीं जीतने वाली निशानेबाजी टीम का पिछले दो विश्व कपों में 15 पदक जीतना यह दर्शाता है कि टीम ने उल्लेखनीय सुधार किया है और इस सफलता का काफी श्रेय रियो के बाद नेशनल राइफल एसोसिएशन ऑफ इंडिया को जूनियर प्रोग्राम में अभिनव बिंद्रा समिति की सिफारिशों को प्रभावी रूप से लागू करने को जाता है। इस समिति को रियो की हार की समीक्षा और सुधार के उपाय सुझाने का काम सौंपा गया था,  अपनी रिपोर्ट में बिंद्रा समिति ने लिखा था, समिति एकमत से मानती है कि भारतीय निशानेबाजी को बदलाव की जरूरत है। जो सिस्टम है वह कामचलाऊ है।  एनआरएआई की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि इसके अध्यक्ष रणिंदर सिंह ने इस आलोचना को अच्छी भावना से लिया और चीजों को ठीक किया। साल 2020 भारतीय खेल के लिए एक बड़ा फलसफा है। भारतीय न केवल टोक्यो ओलम्पिक में भारत का नाम रोशन करेंगे बल्कि उसके दो महीने बाद आस्ट्रेलिया में टी-20 विश्व कप में विराट की अगुआई वाली भारतीय टीम भी तिरंगा लहराएगी।

किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा खेलों में उसकी उत्कृष्टता से बहुत कुछ जुड़ी होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में अच्छा प्रदर्शन केवल पदक जीतने तक सीमित नहीं होता  बल्कि यह किसी राष्ट्र के स्वास्थ्य, मानसिक अवस्था एवं लक्ष्य के प्रति सजगता को भी सूचित करता है। भारतीय खिलाड़ियों को नए साल में कई अग्नि-परीक्षाएं देनी होंगी। हर बार की तरह इस साल टोक्यो ओलम्पिक भारतीय खिलाड़ियों की नाक का सवाल होगा। देखा जाए तो रियो ओलम्पिक के बाद से ही भारतीय खिलाड़ी टोक्यो ओलम्पिक की तैयारी में जुटे हुए हैं लेकिन देश का कोई भी खेलनहार यह बताने को तैयार नहीं है कि आखिर जापान में हम कितने मेडल जीत सकते हैं। भारत में युवा जनसंख्या अपेक्षाकृत अन्य देशों से अधिक है। हमारे युवा खिलाड़ियों में शक्ति एवं ऊर्जा की भी कोई कमी नहीं है लेकिन खेलों का बदहाल सिस्टम हमेशा मुंह चिढ़ाता है। हर बड़े खेल मंच में शिकस्त के बाद हमारी हुकूमतें सिस्टम सुधारने का सब्जबाग दिखाती हैं लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं होता। खेलों में उत्कृष्टता के लिए राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रतिबद्धता अनिवार्य है। इसके लिए दूरगामी सोच, सक्रिय योजनाएं एवं उनके क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है। सरकारी प्रयासों के साथ खेलों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को बदलने एवं जागरूकता लाने का प्रयास भी जरूरी है।

आजादी के सात दशक बाद भी भारत में खेल संस्कृति का पल्वित-पोषित नहीं हो पाना ताली पीटने की बात नहीं है। हमारे देश में जो भी खिलाड़ी निकलते हैं उनमें अभिभावकों का त्याग और प्रोत्साहन समाहित होता है। खेलों में आज तक के भारतीय प्रदर्शन को देखते हुए ऐसा लगता ही नहीं कि इस खास विधा के लिए बनाया गया खेल मंत्रालय कुछ सार्थक कर पाया है। अमेरिका में कोई खेल मंत्रालय नहीं है बावजूद उसके खिलाड़ी सर्वश्रेष्ठ हैं। जुलाई माह से पहले भारतीय भारोत्तोलकों, पहलवानों, जिमनास्टों तथा एथलीटों को टोक्यो ओलम्पिक खेलने की पात्रता हासिल करनी है। दुती चंद, हिमा दास, नीरज चोपड़ा जैसे एथलीटों का प्रदर्शन देखने के बाद नहीं लगता कि टोक्यो ओलम्पिक में ये भारत की रीती झोली पदकों से आबाद कर सकते हैं। पी.वी. सिन्धु और साइना नेहवाल के मौजूदा प्रदर्शन को देखते हुए इनसे टोक्यो ओलम्पिक में पदक की उम्मीद क्षीण दिख रही है। हां, इस साल बैडमिंटन में सबसे अधिक उम्मीदें भारत के पुरुष खिलाड़ियों से हैं। अब समय आ गया है जब हमें ओलम्पिक में सिर्फ सहभागिता के लिए नहीं  बल्कि जीतने का जज्बा लेकर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। 'बिग विन मेंटलिटी' यानी बड़ी जीत की मानसिकता ही हमारे खिलाड़ियों को पोडियम तक ले जा सकती है।

क्रिकेट में होगी बल्ले-बल्ले

वर्ष 2020 में टी-20 क्रिकेट विश्वकप खेला जाना है। क्रिकेट इतिहास में यह ऐसा पहला विश्वकप होगा जब भारतीय चयनकर्ताओं के सामने यह चुनौती नहीं होगी कि किस तरह से 15 क्रिकेटरों की मुकम्मल टीम तैयार की जाये।  उद्घाटक जोड़ी के तौर पर जहां रोहित शर्मा-शिखर धवन हर तरह के आक्रमण के खिलाफ बेजोड़ बल्लेबाजी करने में सक्षम हैं वहीं के.एल. राहुल, मनीष पांडेय और श्रेयस अय्यर जैसी प्रतिभाएं फॉर्म में रहने पर अपने आक्रमण से विपक्षी के गेंदबाजों का पसीना छुड़ा सकती हैं। टीम इंडिया के पास कप्तान विराट कोहली के तौर पर मौजूदा विश्व क्रिकेट का सबसे उम्दा बल्लेबाज मौजूद है तो हमारी गेंदबाजी भी किसी से कम नहीं है।

भारतीय पुरुष हॉकी से है बड़ी आस    

यह संयोग ही है कि 1975 में जब क्रिकेट में विश्व कप की शुरुआत हुई, इसी वर्ष भारत ने अंतिम बार हॉकी विश्व कप जीता था। तब से लेकर अब तक बार-बार उम्मीदें बंधीं और टूटी हैं। वर्ष 1975 में भारत हॉकी विश्व चैम्पियन जरूर बना, लेकिन शायद यह दीपक बुझने से पहले की अंतिम दमदार लपट थी। एक दौर ऐसा था जब अंतरराष्ट्रीय खेल मानचित्र पर हॉकी भारत की पहचान थी, लेकिन 1975 से 1983 के बीच भारतीय हॉकी ने अपनी पुरानी साख गंवा दी। ओलम्पिक में भी हमने अंतिम बार 1980 में स्वर्ण जीता था, उसके बाद हम अंतिम चार में भी नहीं पहुंच सके हैं। टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय टीम सेमीफाइनल खेल सकती है। पुराने और नए खिलाड़ियों का जोश और जज्बा तथा जीत की भूख 40 साल के सूखे का अंत कर सकती है। भारतीय हॉकी टीम में लगातार सुधार हो रहा है। स्वर्णिम अतीत को छूने के लिए उसे बस एक बड़ी जीत का इंतजार है। भारतीय महिला हॉकी टीम ने भी टोक्यो ओलम्पिक का टिकट हासिल कर लिया है। उम्मीद है कि इस बार भारतीय बेटियां रियो ओलम्पिक से सबक लेते हुए न केवल अच्छा खेलेंगी बल्कि पोडियम तक पहुंचने का भी प्रयास करेंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि युवा खिलाड़ियों को तरजीह मिलेगी।

एथलेटिक्स में मिथक टूटने का इंतजार

टोक्यो ओलम्पिक का बिगुल बजने को सात माह बाकी हैं। ऐसे में हर भारतीय खेलप्रेमी अपने एथलीटों के पिछले प्रदर्शन को देखते हुए उनसे एक मिथक टूटने का इंतजार कर रहा है। यह अफसोस की बात है कि हमें ओलम्पिक खेलते हुए एक सदी बीत गई है लेकिन हमारा एक भी सूरमा खिलाड़ी आज तक पोडियम तक नहीं पहुंचा है। टोक्यो ओलम्पिक में हम जिन तीन स्टार भारतीय एथलीटों नीरज चोपड़ा, दुती चंद और हिमा दास से पदक की आस लगाए हैं वे अभी तक ओलम्पिक खेलने की पात्रता भी हासिल नहीं कर सके हैं। जिन भारतीय एथलीटों ने पात्रता हासिल की है उनसे पदक की उम्मीद करना बेमानी है।  

बॉक्सिंग में नये भार वर्ग की चुनौती

 भारतीय बॉक्सरों के सामने इस वर्ष सबसे बड़ी चुनौती ओलम्पिक के लिए नये भार वर्ग में खुद को ढालने की होगी। 48 किलो भार वर्ग में छह बार की विश्व चैम्पियन एम.सी. मैरी कॉम को टिकट मिला तो टोक्यो में पदक जीतने के लिए उन्हें 51 किलो भार वर्ग में खेलना होगा। टोक्यो ओलम्पिक में यही भार वर्ग शामिल किया गया है। इस बार ओलम्पिक में पुरुषों के 10 की जगह आठ और महिलाओं के तीन की जगह पांच भार वर्ग शामिल किये गये हैं। ओलम्पिक क्वालीफायर अगले साल फरवरी में चीन में आयोजित किये जायेंगे। महिला मुक्केबाजी में सभी पांच वर्गों -51 किलोग्राम, 57 किलोग्राम, 60 किलोग्राम, 69 किलोग्राम और 75 किलोग्राम का फैसला ट्रायल से ही होगा क्योंकि कोई भी मुक्केबाज विश्व चैम्पियनशिप के फाइनल में जगह नहीं बना सकी थी।

 

 

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