अब संसारपुर में नहीं सुनाई देती हाकी की टंकार

नौजवानों को उचित रोज़गार देने की कोई गारंटी नहीं

श्रीप्रकाश शुक्ला

हाकी भारत का ऐसा खेल है जिसमें हर भारतीय खेलप्रेमी की आत्मा बसती है। यही वह खेल है जिसमें हमने एक-दो बार नहीं नौ बार दुनिया को शिकस्त दी है। आज भारतीय हाकी को प्रोत्साहन की दरकार है। दरअसल युवाओं को रोजगार देने में अक्षम भारतीय हुकूमतों के चलते ही अब लोग हाकी की बजाय क्रिकेट की तरफ दौड़ रहे हैं। देश को सर्वाधिक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी देने वाले पंजाब के संसारपुर गांव में अब हाकी की टंकार नहीं सुनाई देती वजह इस गांव के युवाओं की बेरोजगारी समस्या के साथ पंजाब सरकार का ढुलमुल रवैया है।

गांव संसारपुर को हॉकी का मक्का कहा जाता है, इसी गांव से 14 ओलम्पियन खिलाड़ियों ने देश का प्रतिनिधित्व करते हुए भारत के लिए 27 मेडल जीते। संसारपुर विश्व का इकलौता ऐसा गांव है, जिसने भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को सबसे ज्यादा हॉकी खिलाड़ी दिए हैं। देश को सबसे ज्यादा ओलम्पियन देने वाले गांव की ओर सरकार द्वारा ध्यान न दिए जाने के कारण यहां से हॉकी खत्म होती जा रही है। गांव से सबसे पहले कर्नल गुरमीत सिंह ने 1932 के लास एजिल्स ओलम्पिक खेलों में भारतीय टीम की नुमाइंदगी की थी। उसके बाद तो लगातार इस गांव से खिलाड़ी भारतीय टीम में शामिल होने लगे। सूबेदार ठाकुर सिंह संसारपुर के पहले हॉकी खिलाड़ी थे, जो भारतीय हॉकी टीम की ओर से विदेशी दौरे पर गए थे। ठाकुर सिंह ध्यानचंद की कप्तानी में न्यूजीलैंड दौरे पर गए।

कंटोनमेंट रीजन में पड़ते ग्राउंड में ही संसारपुर के लोगों में हॉकी खेलने की प्रेरणा अंग्रेज सैनिकों से मिली। रिटायर्ड डीआईजी बलबीर सिंह का जो 1964 ओलम्पिक गोल्ड और 1968 ओलम्पिक ब्रांज मेडल जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य थे। साल 1999 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। इसी गांव से अजीत पाल सिंह ने भारतीय हॉकी टीम को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। अजीत पाल सिंह की कप्तानी में भारत ने साल 1975 में पहली बार हॉकी वर्ल्ड कप जीता था। इसी टीम के सदस्य वरिंदर सिंह भी इसी गांव में पैदा हुए थे।

गांव संसारपुर के ओलम्पियन कर्नल गुरमीत सिंह (फर्स्ट सिख इन द वर्ल्ड गोल्ड मेडलिस्ट), ऊधम सिंह, गुरदेव सिंह, दर्शन सिंह, कर्नल बलबीर सिंह, बलबीर सिंह पंजाब पुलिस, जगजीत सिंह, अजीत पाल सिंह, गुरजीत सिंह कुलार, तरसेम सिंह, हरदयाल सिंह, हरदेव सिंह, जगजीत सिंह और बिंदी कुलार कनाडा की तरफ से खेल चुके हैं।

भारत का राष्ट्रीय खेल है हॉकी। दुनिया के ओलम्पिक खेलों में ऐसे भी दिन रहे कि किसी और खेल से चाहे स्वर्ण पदक न आये, लेकिन भारत को इस खेल में स्वर्ण पदक मिल ही जाता था। न मिलता तो उसका मुख्य प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान इसे जीत लेता। लेकिन दिन बदल गये। खेल कृत्रिम घास पर होने लगा। इसने अपना स्वर्ण स्पर्श खो दिया। उस समय हमारे प्रतिभावान हॉकी खिलाड़ियों की नर्सरी होता था, पंजाब के दोआबा क्षेत्र का संसारपुर गांव। यह गांव जालंधर छावनी और उसके दूसरी ओर स्थित जंडियाला के बीच स्थित है। तब इन खिलाड़ियों की प्रेरणा और प्रोत्साहक थे पुलिस प्रमुख अश्विनी कुमार।

हॉकी खिलाड़ियों का मक्का कहे जाने वाले संसारपुर गांव के नौजवान अब इस खेल को समर्पित नजर नहीं आते। रोजी-रोटी की तलाश ने उनको हाकी से दूर कर दिया है। खेतीबाड़ी के धंधे को घाटे का सौदा मानते हुए ग्रामीण युवकों ने रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन शुरू कर दिया। पंजाब हो या हरियाणा, यहां का सबसे आकर्षक व्यवसाय हो गया है, ट्रैवल एजेंट या उनके द्वारा चलायी जा रही पारपत्रों और वीज़ा के लिए अपेक्षित बैंड दिलवाने वाली अकादमियां।

कभी लार्ड मैकाले द्वारा प्रेरित सफेद कालर बाबू बनाने वाली शिक्षा संस्कृति विफल हो गयी। खेल के मैदानों में अपने खेल निपुणता से विजय का ध्वज फहराने वाले खिलाड़ी धन, प्रतिष्ठा और विजय के सपनों से वंचित हो गये। खेल के मैदानों में धूल उड़ने लगी। विश्वस्तर की खेल प्रतियोगिताओं में भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी ही नहीं, सब विशुद्ध भारतीयता का अक्स लिए हुए खेल पिछड़ते चले गये। रोजगार की तलाश में पंजाब और हरियाणा के गांव के गांव खाली हो गये, क्योंकि उनमें बसते नौजवानों ने खेतीबाड़ी से बेदखली पा, उन बुनियादी खेलों में भटकना नहीं चाहा। दरअसल यहां जीतने पर तमगे तो मिल जाते हैं लेकिन रोटियों का ठिकाना नहीं बनता था। कार्पोरेट जगत के मसीहों ने क्रिकेट जैसे खेल को अपने कंधों पर उठा लिया और हॉकी राष्ट्रीय खेल कहलाने के बावजूद अपनी आब खो बैठी। संसारपुर हॉकी नर्सरी उखड़ गयी। वहां से उभरने वाले दिग्गज खिलाड़ियों की परम्परा समाप्त हो गयी और साथ ही बुझ गयी उस खेल के द्वारा ओलम्पिक मुकाबलों से स्वर्ण पदक जीतकर लाने वाली दिपदिपाहट।

संसारपुर की इस पारम्परिक खेल नर्सरी ने मिट्टी की गंध खोयी तो उसके साथ के गांव में दशकों से चलता हुआ सरकारी कालेज जंडियाला का विशाल परिसर भी वीरान हो गया। कभी कालेज परिसर के पास बड़े-बड़े खेल मैदान थे। खिलाड़ियों के अभ्यास के लिए मक्का और मदीना था। आज विद्यालय के इस विशाल परिसर में छात्र पढ़ने नहीं आते। खाली कक्षाएं सायं-सायं करती हैं। सरकारी विद्यालय है, इसलिए अभी भी इसमें एक प्राचार्य है, एक-दो प्राध्यापक और एकाध लिपिक। लेकिन छात्र कहां हैं?

शहरों का सम्मोहन, प्रवासी भारतीय हो पाने का सपना अथवा आधुनिकता की चकाचौंध ने सब कुछ छीन लिया। अब इलाके के राजनेताओं ने इस कालेज या ऐसे ही ग्रामीण अंचलों में मरते हुए विद्यालयों को जीवनदान देने का बीड़ा उठाया है। लेकिन यह संकल्प तब तक सार्थक नहीं हो सका जब तक इस देश के शिक्षा परिसरों में पल्लवित बोसीदा शिक्षा संस्कृति को नौजवानों के सपनों के अनुरूप एक सम्माननीय जीवन, भरपेट भोजन और सार्थक रोज़गार देने के योग्य नहीं बनाया जाता। अब सरकार जल्दी से जल्दी नयी शिक्षा नीति लाने की बात करती है। उसको रोज़गारोन्मुख बना देने के भाषण होते हैं लेकिन शिक्षा के साथ नौजवानों को उचित रोज़गार देने की कोई गारंटी नहीं देता। रोज़गार देने की बात आयी तो संदेश स्वरोज़गार के समाधान पर आकर टिक गया।

रिलेटेड पोस्ट्स