आओ दोस्तों पार्टी हो जाए!

पत्रकारिता अब मिशन नहीं व्यवसाय है। इसीलिए कहा जाता है कि जो दिखता है, वह बिकता है। दिखने और बिकने के इस दौर ने पत्रकारिता की परिभाषा बदल दी है। ढाई सौ साल की पत्रकारिता धीरे-धीरे किस तरह रसातल में जा रही है, इसका जीवंत उदाहरण है पिछले दिनों ग्वालियर जिला खेल परिसर कम्पू में हुआ अग्निकांड। आठ दिन बाद मैं लाखों की खेल सामग्री स्वाहा होने पर दुख जताने की बजाय जिला खेल अधिकारी के मैनेजमेंट की सराहना करूंगा जिनके प्रयासों से ग्वालियर के खेल-पत्रकारों को आग तो क्या धुंआ भी नहीं दिखा। इस मामले की जांच समिति के एक पदाधिकारी की भी तारीफ करनी होगी जिसने चौथी दफा अपने बालसखा को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कलयुग में श्रीकृष्ण-सुदामा जैसी दोस्ती वाकई दुर्लभ है, ऐसी दोस्ती को संचालनालय खेल एवं युवा कल्याण विभाग का सलाम।

कम्पू में अग्निकांड को हुए आठ दिन बीत चुके हैं, पीपुल्स समाचार पत्र ने सच को सामने लाने की जरूर कोशिश की लेकिन जो पत्रकार साथी खेलों से वास्ता रखते हैं उनके लिए लाखों का खेल सामान जलना कोई खबर नहीं हो सकी। मित्रों पत्रकारिता की जमीन कभी रेशम बिछी कालीन वाला रास्ता नहीं हो सकती लेकिन अब मीडिया का रास्ता ही रेशमी कालीन से आरम्भ होता है। मुझे जरा भी गुरेज नहीं, रेशमी कालीन पर चलने की ख्वाहिश रखने, दारू-पार्टी और पैसों की मांग करने वाले सच लिख भी नहीं सकते। निर्लज्जता जिनकी रग-रग में समा चुकी हो वे पत्रकार भला कैसे हो सकते हैं।

एक पत्रकार के लिये उसकी अपनी पीड़ा से किसी खिलाड़ी की पीड़ा ज्यादा अहमियत वाली होती है। एक पत्रकार किसान की तरह होता है, वह आरम्भ से अंत तक मैदानों की खाक छानते और कलम घिसते हुये मर जाता है, लेकिन वह कभी मालिक नहीं बन पाता। मित्रों तुम अपने मन के मालिक जरूर हो सकते हो लेकिन एक पत्रकार कभी नहीं। अब खबर मत लिखना वरना वज्रपात हो जाएगा। पत्रकार बेशक अपने धर्म का पालन न कर रहे हों, खेल मंत्री जीतू पटवारी और संचालक खेल से आग्रह है कि इस मामले के दोनों जांच अधिकारियों को हटाकर विशेष पुलिस अधिकारियों को जांच की जवाबदेही सौंपी जाए ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।     

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