खेल संस्कृति से ही होगा खेलों का विकास

29 अगस्त का दिन राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। देश के सबसे महान खिलाड़ियों में से एक और हॉकी के निर्विवाद सर्वकालिक उम्दा खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त को ही हुआ था। यह उपयुक्त ही है कि उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाए। इस अवसर पर तमाम रस्म अदायगी वाले कार्यक्रमों से इतर देश में खेलों की स्थिति का आकलन करना उपयोगी होगा। खेल मानव संस्कृति और सभ्यता के अभिन्न अंग हैं। प्रथमदृष्टया खेल भले ही शारीरिक एवं मानसिक स्पर्धा का माध्यम लगते हों, लेकिन वास्तव में ये कुछ वांछित विशेषताओं को साकार रूप देते हैं। ऐसे में खेलों को मानवीय उत्कृष्टता का प्रतिमान मानना उचित ही होगा।
मौजूदा दौर में पक्षपात और पूर्वाग्रह जैसे भाव जहां जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को दूषित कर रहे हैं वहां खेल प्रवीणता एवं योग्यता के दुर्लभ पर्याय बने हुए हैं। मौजूदा डिजिटल दौर में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और मशीन लर्निग का वर्चस्व बढ़ने की आशंका है। आज ऐसे अभिभावकों की भरमार है जो चिंतित रहते हैं कि उनके बच्चे खेल के मैदान की तुलना में मोबाइल-कंप्यूटर पर ज्यादा खेल रहे हैं। मैदानी खेल के स्वाभाविक फायदों के बारे में चर्चा की जितनी आवश्यकता आज है, उतनी शायद पहले कभी नहीं रही। खेलने-कूदने वाला समाज ही स्वस्थ और तंदुरुस्त समाज होता है। वैसे भी स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता एक दूसरे के पूरक हैं। स्वस्थ एवं खुशहाल समाज के निर्माण में खेलों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
विश्व के अग्रणी राष्ट्रों की कतार में शामिल होने की हमारी आकांक्षा अभी पूरी नहीं हुई है। यह सफर जारी है। हमारी आर्थिक वृद्धि और सैन्य क्षमताओं के बावजूद कला, संस्कृति और खेलों में निहित सॉफ्ट पावर की अहमियत को कम करके नहीं देखा जा सकता। जब तक हम इन मोर्चो पर निरंतर रूप से बेहतर प्रदर्शन नहीं करेंगे तब तक विकासशील से विकसित राष्ट्र बनने की यह यात्र पूर्ण नहीं हो पाएगी।

खेलों के बारे में कहा जाता है कि उनमें दुनिया को बदलने की शक्ति होती है। हमारे समक्ष तमाम आसन्न चुनौतियों के अलावा एक महत्वपूर्ण लक्ष्य यह भी होना चाहिए कि हमें एक खेल संस्कृति को पुष्पित-पल्लवित करना है। भारतीय समाज को खेल देखने वाले से खेल खेलने वाले समाज में बदलना होगा। हमें महज सहभागिता से आगे बढ़कर खेल में जीतने का मंत्र भी तलाशना होगा। आज खेलों की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। हम ऐसे अनुभवों के भी साक्षी होते हैं जब अपने क्रिकेटरों, पहलवानों, मुक्केबाजों, निशानेबाजों, एथलीटों, शटलरों और शतरंज के ग्रैंड मास्टरों के प्रदर्शन पर गौरवान्वित होते हैं। हालांकि एक विडंबना यह भी है कि ऐसे पल विरले ही आते हैं। एक कड़वा सत्य यह भी है कि अपनी आबादी और अर्थव्यवस्था के लिहाज से खेलों के मोर्चे पर हम अपनी क्षमताओं से काफी कमतर हैं।

आखिर हम क्यों पिछड़े हुए हैं? प्रतिभाओं की निश्चित रूप से कोई कमी नहीं है। कुछ दशकों पहले तक शारीरिक क्षमताओं की दृष्टि से जरूर स्थितियां बहुत खराब थीं, लेकिन पोषण के मानकों में सुधार के साथ ये बाधाएं कुछ कम हुई हैं। हालांकि जब खेल से जुड़े बुनियादी ढांचे की विकसित देशों के मानदंडों से तुलना करते हैं तो जरूर गहरी खाई दिखती है। उपकरणों, प्रशिक्षण मैदान, कोचिंग, प्रतिस्पर्धा, शारीरिक-मानसिक तैयारी एवं देखभाल के अलावा खुराक और ऐसे ही तमाम पैमानों पर खस्ताहाल सुविधाएं कमजोरी बयान करती हैं। सरकारी निवेश भी कुछ प्रमुख खेल केंद्रों तक सिमटकर रह गया है। दूरदराज के केंद्र और समाज के विपन्न तबके इन संसाधनों-सुविधाओं से अभी तक वंचित हैं।

अंतरराष्ट्रीय खेलों के प्रतिस्पर्धी माहौल में यह बेहद आवश्यक है कि प्रतिभाओं को कम उम्र में ही पहचान कर उन्हें सही तरीके से तराशा जाए। किसी किशोरवय संभावनाशील खिलाड़ी के अभिभावक अक्सर दुविधा में रहते हैं कि लाखों में एक खिलाड़ी को ही सफलता मिलती है। वे भविष्य के प्रति व्याकुल रहते हैं। मसलन खेल में वांछित उत्कृष्टता के लिए जिस दौर में बच्चा तैयारी करता है तो उसे अकादमिक और अन्य कार्यक्रमों के साथ समझौता करना पड़ सकता है। एक आशंका यह भी सताती है कि यदि गलाकाट प्रतिस्पर्धा और अनिश्चितता के चलते वांछित परिणाम नहीं मिले तब क्या होगा? ऐसे सवालों के कोई आसान जवाब नहीं, सिवाय इसके कि देश का सामाजिक-आर्थिक ढांचा ऐसा बनाना होगा कि खेलों में ईमानदार प्रयास करने वालों को सार्वजनिक जीवन में वापसी के बढ़िया अवसर मिल सकें।

इसके अतिरिक्त मानसिकता में भी परिवर्तन लाना अत्यंत आवश्यक है। हमें समाज में खेल संस्कृति का विकास करना होगा और पांच वर्ष से 75 साल की आयु तक के सभी लोगों को कोई भी खेल खेलने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। उपयोगितावादी दृष्टिकोण से ही कायाकल्प नहीं होने वाला। खेल को केवल एक करियर के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए। इससे होने वाले स्वास्थ्य लाभ, प्रसन्नता और मनोरंजन भी खेल संस्कृति को पोषित करने के पर्याप्त कारक होने चाहिए। इसके साथ ही यह भी स्मरण रहे कि शिखर पर पहुंचने का कोई शॉर्टकट नहीं होता। यह बड़ी शर्मनाक बात है कि हमारी नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी को वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी ने प्रतिबंधित किया हुआ है। डोपिंग के संताप से निपटने के लिए हमने अभी तक पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं। खेल नियमों और खेल भावना के दायरे में ही होने चाहिए। खेल में जितनी जीत मायने रखती है उतना ही महत्वपूर्ण होता है खेल के मूल्यों को सहेजकर रखना। पूरा दम लगाकर खेलो, लेकिन सही तरीके से। खेल के स्तर को आगे ले जाओ, लेकिन लक्ष्मण रेखा कभी न लांघो। ये कुछ परंपरागत पंक्तियां नहीं, बल्कि ऐसी सूक्तियां हैं जो खेल संस्कृति को ध्रुव तारे की मानिंद चमकाती हैं। यही वे कारण हैं जिनकी वजह से हम कोई खेल देखते या खेलते हैं। खेल में किसी भी तरह की बेईमानी न केवल विरोधी के साथ धोखा है, बल्कि उन करोड़ों खेल प्रशंसकों के भरोसे से छल भी है जो भावनात्मक रूप से उनसे बहुत बंधे होते हैं।

हर साल 29 अगस्त को ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग भी उठती है। वह सर्वोच्च सम्मान के सुपात्र भी हैं। हालांकि यदि हम खेलों में अपनी संभावनाओं के अनुरूप सफलता हासिल कर लेते हैं तो यह इस दिग्गज खिलाड़ी के प्रति कहीं अधिक बड़ी श्रद्धांजलि होगी। वर्ष 2028 के ओलंपिक में शीर्ष 10 में आना, वर्ष 2030 में विश्व कप फुटबॉल, टेनिस में कुछ ग्रैंड स्लैम हासिल करना और कुछ बड़े गोल्फ खिताब जीतने का लक्ष्य रखा जा सकता है। यह लक्ष्य दूर की कौड़ी भले ही लगे, लेकिन इसे हासिल किया जा सकता है। वैसे भी लोग कहते हैं कि कोई छोटा लक्ष्य तय करने से कहीं बेहतर है कि लक्ष्य ऊंचा रखा जाए, भले ही उसमें सफलता कितनी ही कठिन क्यों न हो। खेलो इंडिया, जीतो इंडिया।

रिलेटेड पोस्ट्स