अतुलनीय, अकल्पनीय दद्दा ध्यानचंद

29 अगस्त खेल दिवस पर विशेष

श्रीप्रकाश शुक्ला

हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद परिचय के मोहताज नहीं हैं। कुछ साल पहले खिलाड़ियों को भारत रत्न देने का जैसे ही फैसला लिया गया, अपने जेहन में विचार आया कि यह गौरव शायद दद्दा को ही पहले मिले। मिलना भी चाहिए था लेकिन इस मामले में राजनीतिक महत्वाकांक्षा परवान चढ़ी। महाराष्ट्र सहित दूसरे राज्यों में वोटों की फसल काटने के लिए कांग्रेस ने सचिन तेंदुलकर का नाम उछाल कर कालजयी दद्दा की हैसियत को ही बौना कर दिया। किसी को उम्मीद हो या नहीं मुझे लगता है हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देकर मोदी सरकार भूल सुधार जरूर करेगी, कुछ इस तरह जैसे मदन मोहन मालवीय के मामले में किया है।

दद्दा ध्यानचंद तो अतुलनीय हैं। किसी भी खिलाड़ी की महानता को मापने का सबसे बड़ा पैमाना है कि उसके साथ कितनी किंवदंतियां जुड़ी हैं। उस हिसाब से तो मेजर ध्यानचंद का कोई जवाब ही नहीं है। हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी कि कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं लगा है। जापान के लोगों को अंदेशा था कि उन्होंने अपनी स्टिक में गोंद लगा रखी है। हो सकता है कि इनमें से कुछ बातें बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हों लेकिन अपने जमाने में इस खिलाड़ी ने किस हद तक अपने हाकी कौशल का लोहा मनवाया होगा इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वियाना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं, मानों कि दद्दा कोई देवता हों।

1936 के बर्लिन ओलम्पिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने वर्ल्ड हॉकी मैगजीन के एक अंक में लिखा था, ध्यानचंद के पास कभी भी तेज गति नहीं थी बल्कि वो धीमा ही दौड़ते थे लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की गजब की क्षमता थी। बाएं फ्लैंक में उनके भाई रूप सिंह और दाएं फ्लैंक में मुझे उनके बॉल डिस्ट्रीब्यूशन का बहुत फायदा मिला। डी में घुसने के बाद वह इतनी तेजी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के लिए भी कोई मौका नहीं रहता था।

दो बार के ओलम्पिक चैम्पियन केशव दत्त ने बताया कि बहुत से लोग उनकी मजबूत कलाईयों और ड्रिबलिंग के कायल थे लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग में थी। वह उस ढंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिस्पर्धी मूव कर रहे हैं। किसी खिलाड़ी की सम्पूर्णता का अंदाजा इसी बात से होता है कि वह आंखों पर पट्टी बांधकर भी मैदान की ज्योमेट्री पर महारत हासिल कर पाए। केशव दत्त कहते हैं, जब हर कोई सोचता था कि ध्यानचंद शॉट लेने जा रहे हैं वे गेंद को पास कर देते थे। इसलिए नहीं कि वो स्वार्थी नहीं थे (जोकि वो नहीं थे) बल्कि इसलिए कि विरोधी उनके इस मूव पर हतप्रभ रह जाएं। जब वह इस तरह का पास आपको देते थे तो जाहिर है आप उसे हर हाल में गोल में डालना चाहते थे।

1947 के पूर्वी अफ्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने के.डी. सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ देखा तक नहीं। जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था, अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक नहीं था। 1968 में भारतीय ओलम्पिक टीम के कप्तान रहे गुरुबख़्श सिंह बताया कि 1959 में जब ध्यानचंद 54 साल के हो चले थे तब भी भारतीय हॉकी टीम का कोई भी खिलाड़ी बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था। 1936 के ओलम्पिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई। ध्यानचंद ने अपनी आत्मकथा गोल में लिखा कि मैं जब तक जीवित रहूंगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिलाकर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए। हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज से बर्लिन बुलाया जाए। दारा सेमीफाइनल मैच तक ही बर्लिन पहुंच पाए।

जर्मनी के खिलाफ फाइनल मैच 14 अगस्त, 1936 को खेला जाना था लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई। इसलिए मैच अगले दिन यानि 15 अगस्त को खेला गया। मैच से पहले मैनेजर पंकज गुप्ता ने अचानक कांग्रेस का झण्डा निकाला। उसे सभी खिलाड़ियों ने सैल्यूट किया क्योंकि उस समय तक भारत का अपना कोई झण्डा नहीं था। वो गुलाम देश था इसलिए यूनियन जैक के तले ओलम्पिक खेलों में भाग ले रहा था। बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में उस दिन 40 हजार लोग फाइनल देखने के लिए मौजूद थे। देखने वालों में बड़ौदा के महाराजा और भोपाल की बेगम के साथ-साथ जर्मन नेतृत्व के चोटी के लोग मौजूद थे। ताज्जुब ये था कि जर्मन खिलाड़ियों ने भारत की तरह छोटे-छोटे पासों से खेलने की तकनीक अपना रखी थी। हाफ टाइम तक भारत सिर्फ एक गोल से आगे था। इसके बाद ध्यानचंद ने अपने स्पाइक वाले जूते और मोजे उतारे और नंगे पांव खेलने लगे। इसके बाद तो गोलों की झड़ी लग गई।

धड़ाधड़ छह गोल खाने के बाद जर्मनी के खिलाड़ी रफ हॉकी खेलने लगे। उनके गोलकीपर की हॉकी ध्यानचंद के मुँह पर इतनी जोर से लगी कि उनका दांत टूट गया। उपचार के बाद मैदान में वापस आने के बाद ध्यानचंद ने खिलाड़ियों को निर्देश दिए कि अब कोई गोल न मारा जाए। सिर्फ जर्मन खिलाड़ियों को ये दिखाया जाए कि गेंद पर नियंत्रण कैसे किया जाता है। इसके बाद भारतीय गोलंदाज बार-बार गेंद को जर्मनी की डी में लेकर जाते और फिर गेंद को बैक पास कर देते। जर्मन खिलाड़ियों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है। भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया और इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए। तब एक अखबार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा, बर्लिन लम्बे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा।

भारत लौटने के बाद ध्यानचंद के साथ एक मजेदार घटना हुई। फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ध्यानचंद के फैन थे। एक बार मुम्बई में हो रहे एक मैच में वह अपने साथ नामी गायक कुंदन लाल सहगल को ले आए। हाफ टाइम तक कोई गोल नहीं हो पाया। सहगल ने कहा कि हमने दोनों भाईयों का बहुत नाम सुना है। मुझे ताज्जुब है कि आप में से कोई आधे समय तक एक गोल भी नहीं कर पाया। रूप सिंह ने तब सहगल से पूछा कि क्या हम जितने गोल मारेंगे उतने गाने हमें आप सुनाएंगे, सहगल राजी हो गए। दूसरे हाफ में दोनों भाईयों ने मिलकर 12 गोल दागे। लेकिन फाइनल विसिल बजने से पहले सहगल स्टेडियम छोड़ कर जा चुके थे। अगले दिन सहगल ने अपने स्टूडियो आने के लिए ध्यानचंद के पास अपनी कार भेजी। लेकिन जब ध्यानचंद वहां पहुंचे तो सहगल ने कहा कि गाना गाने का उनका मूड उखड़ चुका है। ध्यानचंद बहुत निराश हुए कि सहगल ने नाहक ही उनका समय खराब किया, लेकिन अगले दिन सहगल खुद अपनी कार में उस जगह पहुंचे जहां उनकी टीम ठहरी हुई थी और उन्होंने उनके लिए 14 गाने गाए। न सिर्फ गाने गाए बल्कि उन्होंने हर खिलाड़ी को एक-एक घड़ी भी भेंट की। दद्दा को लेकर मैं तो सिर्फ यही कहूंगा न भूतो, न भविष्यति।  

भारतीय हॉकी में ज्यादातर खिलाड़ी ग्रामीण बैकग्राउंड से आते हैं, ऐसा पहले भी था। देखा जाए तो हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद के वक्त से ही भारतीय हॉकी की ताकत उसकी कलात्मकता रही है। कलात्मक हॉकी परम्परा को ध्यानचंद के भाई रूप सिंह, बेटे अशोक कुमार सिंह और हरबिंदर सिंह, मोहम्मद शाहिद, जफर इकबाल तथा उनके बाद धनराज पिल्लै, बलजीत सिंह ढिल्लो सरीखे खिलाड़ियों ने आगे बढ़ाया। इन सभी ने अपने जमाने में अपनी रफ्तार के साथ गेंद के चतुर डॉज से दुनिया भर की मजबूत से मजबूत रक्षापंक्ति को छकाया। अतीत पर नजर डालें तो के.पी.एस. गिल के जमाने में जिस तरह एक के बाद एक कोच बदले गये उसका सबसे बुरा असर यह हुआ कि भारत ने अपनी परम्परागत शैली छोड़कर बेजा प्रयोग शुरू कर दिए। इससे बेचारे खिलाड़ी इस उलझन में फंसे रहे कि अपनी एशियाई शैली पर काबिज रहें या फिर गोरों की दमखम वाली हिट हार्ड, रन फास्ट स्टाइल को अपना लें। इस गफलत में हमारी युवा हॉकी पीढ़ी अपना असली खेल ही भूल गई।

देखा जाए तो हॉकी की दुनिया में लम्बे समय तक कोई बड़ी उपलब्धि हाथ नहीं आने और नतीजों की तालिका में कोई सम्मानजनक जगह नहीं मिल पाने की वजह से हॉकी मुरीदों में इस खेल के प्रति निराशा घर कर गई थी। हाल के वर्षों में भारतीय हॉकी ने जो ऊर्जा हासिल की है अगर उसे बनाए रखना और आगे बढ़ाना है तो देश भर में एक ही सिस्टम यानी शैली अपनाई जाए। खिलाड़ियों को शुरू से ही एस्ट्रोटर्फ पर हॉकी खेलने का मौका मुहैया हो तो मुल्क के पुराने उस्तादों को जूनियर और सीनियर नेशनल चैम्पियनशिप के बाद ऊर्जावान युवा पलटनें सौंपी जाएं जो उन्हें डॉज और फ्लिक में पारंगत कर सकें। परगट सिंह, मोहिन्दर पाल सिंह और माइकल किंडो सरीखे अपने जमाने के नामी फुलबैक युवाओं को रक्षापंक्ति की बारीकियां बता सकते हैं तो अजित पाल सिंह, हरमीक सिंह, कर्नल बलबीर सिंह सरीखे पूर्व ओलम्पियन मध्य पंक्ति के खिलाड़ियों के साथ अपने अनुभव बांट सकते हैं। गोलरक्षक के रूप में आशीष बलाल और ए.बी. सुब्बैया बढ़िया गाइड साबित होंगे।

कांग्रेस ने दी देश को खेल दिवस की सौगात

कांग्रेस ने बेशक भारत रत्न देने में कालजयी हॉकी खिलाड़ी ध्यान सिंह की अपेक्षा सचिन तेंदुलकर को प्रमुखता दी हो लेकिन हॉकी के जादूगर के सम्मान में उसने कभी कोई कोताही नहीं बरती। ध्यान सिंह के जन्मदिन को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किये जाने की घोषणा दिसम्बर, 1994 में कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने की थी। 29 अगस्त, 1995 से देश में दद्दा ध्यानचंद के जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इसी दिन मुल्क के जांबाज खिलाड़ियों, प्रशिक्षकों और खेलों में योगदान देने वाली शख्सियतों को सम्मानित किया जाता है।

हॉकी के महान योद्धा ध्यान सिंह को अमरत्व प्रदान करने का सराहनीय कार्य देश के किसी खिलाड़ी ने नहीं बल्कि झांसी के पूर्व सांसद और श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद समूह के संचालक पण्डित विश्वनाथ शर्मा ने किया था। श्री शर्मा ने 24 अगस्त, 1994 को लोकसभा में सरकार से ध्यान सिंह के जन्मदिन 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित करने का प्रश्न उठाया था। तब तत्कालीन खेल मंत्री मुकुल वासनिक ने प्रस्ताव का न केवल समर्थन किया था बल्कि भरोसा भी दिया था कि कांग्रेस यह पुनीत कार्य अवश्य करेगी। पण्डित विश्वनाथ शर्मा के प्रयास रंग लाये और दिसम्बर 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस की न केवल घोषणा की बल्कि 29 अगस्त, 1995 को छह देशों की चैम्पियंस ट्राफी हॉकी प्रतियोगिता का आयोजन कराकर हॉकी के जादूगर के जन्मदिन को अविस्मरणीय बना दिया।

यह सम्मान भारत रत्न से किसी भी मामले में कमतर नहीं कहा जा सकता। पहले ही खेल दिवस पर पण्डित विश्वनाथ शर्मा ने प्रधानमंत्री राव को ध्यान सिंह का विशाल चित्र भेंट कर दद्दा की धर्मपत्नी जानकी देवी के जीवन-यापन के लिए एक पेट्रोल पम्प की मांग भी की थी, जिसे स्वीकार करते हुए बाद में आवंटित कर दिया गया। भारत सरकार द्वारा जिस दिन से खिलाड़ियों को भारत रत्न देने की मंशा जताई गई उसी दिन से ध्यान सिंह को भारत रत्न दिये जाने की मांग की जा रही है। इस मांग के लिए दद्दा के पुत्र अशोक कुमार लगातार मुखर हैं लेकिन कुछ हाकी के ही लोग ही इस मामले में साजिश कर रहे हैं।

एक कोख के दो लाल

एक लम्हा है, जो ठहर गया है। एक कोख के दो ध्रुव-तारों में एक के लिए भारत रत्न के लिए लड़ाई लड़ी जा रही, आंदोलन चलाये जा रहे हैं लेकिन दूसरे के सम्मान पर खेलप्रेमी गूंगे हैं। बात उस कैप्टन रूप सिंह की है, जिसे तानाशाही के प्रतिमान एडोल्फ हिटलर ने 15 अगस्त, 1936 को सिर आंखों पर बिठाया था। वह बर्लिन की शाम थी। हिटलर हॉकी के जादूगर ध्यान सिंह को सोने का तमगा पहना रहा था तो उसकी जुबां पर सिर्फ और सिर्फ रूप सिंह का नाम था। वह कह रहा था, रूप सिंह तुम विलक्षण हो, तुम सा सम्पूर्ण हॉकी योद्धा नहीं देखा। उस दिन ओलम्पिक के खिताबी मुकाबले में भारत ने जर्मनी का 8-1 से मानमर्दन किया था। उस मुकाबले में रूप सिंह ने चार और ध्यान सिंह ने तीन गोल किये थे। 1936 के ओलम्पिक में यद्यपि ध्यान सिंह और रूप सिंह ने 11-11 गोल किये थे लेकिन सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान रूप सिंह को ही मिला था।

1932 के ओलम्पिक में भी यह दोनों भाई जमकर खेले और भारत को स्वर्ण मुकुट पहनाया, पर उस ओलम्पिक में भी 14 गोल करने के कारण रूप सिंह ही सर्वश्रेष्ठ रहे। लॉस एंजिल्स में खेले गये उस ओलम्पिक में भारत ने अमेरिका के खिलाफ 24-1 की जो धमाकेदार ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी उसमें रूप सिंह ने 12 और ध्यान सिंह ने सात गोल किये थे। भारतीय खेलप्रेमी हॉकी मसीहा रूप सिंह को  बेशक भूल चुके हों पर जर्मनी हॉकी के हीरो को जन्म जन्मांतर तक याद रखने को संकल्पबद्ध है। 1972 में जर्मनी के म्यूनिख शहर में कैप्टन रूप सिंह मार्ग स्थापित किया जाना यही साबित करता है कि भारत ने हॉकी में कई ऐसे रत्न दिये हैंए जिन्हें भुला दिया गया है। ध्यान सिंह के अनुज रूप सिंह भी उन्हीं में से एक हैं।

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