खिलाड़ी बेटियों का नहीं कोई पालनहार

सुविधा बिना पदक लाने की चुनौती

श्रीप्रकाश शुक्ला

भारत बदल रहा है लेकिन खेलों में यह बदलाव नजर नहीं आता। खिलाड़ी बेटियों से पदकों की अपेक्षा तो की जाती है लेकिन सुविधाएं देने के नाम पर धनाभाव का रोना रोया जाता है। असमानता की पीड़ा रोते-रोते भारतीय खिलाड़ी बेटियों की आंखें पथरा सी गई हैं। भारतीय महिला क्रिकेटरों और भारतीय पुरुष क्रिकेटरों की मैच फीस में जमीन आसमान का फर्क देखा जा सकता है। क्रिकेट ही नहीं अन्य खेलों में भी महिला खिलाड़ियों को पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में कम फीस, कम ईनामी राशि, कम भत्ते और अन्य सुविधाएँ भी बहुत कम मयस्सर हैं। क्रिकेट की एक जीत पर देश में दीपावली मनाई जाती है जबकि अन्य खेलों में तालियां पीटने वाले भी नजर नहीं आते।

महिला खिलाड़ियों की उपेक्षा के लिए हमारी सोच, सरकार एवं मीडिया दोषी है। पिछले कुछ सालों से भारतीय महिला खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। भारतीय महिला टीम की कप्तान मिताली राज को आईसीसी की सालाना वनडे टीम में चुना गया। बॉलर एकता बिष्ट विश्व संस्था द्वारा घोषित साल की सर्वश्रेष्ठ वनडे और टी-20 दोनों टीमों में जगह बनाने वाली एकमात्र क्रिकेटर रहीं। हरमनप्रीत को भी वर्ष की सर्वश्रेष्ठ आईसीसी महिला टी-20 अंतर्राष्ट्रीय टीम में स्थान मिला। हिमा दास ने आईएएएफ विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स की 400 मीटर दौड़ स्पर्धा में पहला स्थान प्राप्त किया।

21वें कामनवेल्थ खेलों में भारतीय महिला खिलाड़ियों ने कुल 31 पदक जीते थे। गोल्ड कोस्ट कामनवेल्थ खेलों में महिला स्वर्ण विजेताओं में बैडमिंटन स्टार सायना नेहवाल, मुक्केबाज़ एमसी मैरीकाम, निशानेबाज़ मनु भाकर, हीना सिद्धू, तेजस्विनी सावंत, श्रेयसी सिंह, टेबल टेनिस खिलाड़ी मणिका बत्रा, भारोत्तोलक मीराबाई चानू, संजीता चानू, पूनम यादव, पहलवान विनेश फोगाट शामिल थीं। रियो ओलम्पिक में साक्षी मलिक ने कुश्ती तो पीवी सिंधू बैडमिंटन में पदक जीतकर मुल्क का नाम रोशन किया था। दीपा कर्माकर ने जिम्नास्टिक में चौथा स्थान प्राप्त कर एक इतिहास रचा तो दिव्यांग खिलाड़ी दीपा मलिक ने पैरालम्पिक में गोला फेंक एफ-53 में रजत पदक जीतकर प्रथम भारतीय महिला खिलाड़ी होने का गौरव हासिल किया था। एशियाड में महिला पहलवान विनेश फोगाट ने कुश्ती का ऐतिहासिक स्वर्ण पदक जीतकर हमारे देश का नाम रोशन किया। रानी सरनोबत ने निशानेबाज़ी में स्वर्ण पदक जीतकर देशवासियों का दिल जीता।

    

विश्व चैंपियनशिप में इतिहास रचने वाली बहुत सारी महिला खिलाड़ी अभी भी उपेक्षित हैं। हम अपने खिलाड़ियों से हर प्रतियोगिता में 'गोल्ड मेडल' की उम्मीद तो करते हैं लेकिन सुविधाएं देने के नाम पर दोयमदर्जे का व्यवहार करते हैं। देखा जाए तो अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं को छोड़कर बाकी राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में महिला खिलाड़ियों के रुकने-ठहरने की व्यवस्था, नाश्ते और भोजन की व्यवस्था बद से बदतर होती है। क्या इनका गुनाह इतना है कि ये लड़कियां हैं। स्कूलों में तो छात्राओं को खेलकूद के लिए किसी प्रकार की ढाँचागत व्यवस्था ही नहीं है।

मिताली राज बताती हैं कि भारतीय खिलाड़ी के रूप में उन्हें ट्रेन में अनारक्षित सीट पर हैदराबाद से दिल्ली की यात्रा करनी पड़ी थी। इस यात्रा के दौरान उन्हें काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। उड़नपरी पीटी ऊषा को 1984 ओलंपिक के दौरान खेलगाँव में खाने के लिए चावल के दलिये के साथ अचार पर निर्भर रहना पड़ा था। वह इस ओलम्पिक में सेकेंड के सौंवे हिस्से से पदक चूक गई थीं। पोषक आहार नहीं मिलने से उनके प्रदर्शन पर असर पड़ा और उन्हें कांस्य पदक गंवाना पड़ा था। देश का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला खिलाड़ियों को रोजमर्रा होने वाली तकलीफ़ों से दो चार होना पड़ता है। हमारे देश की महिला खिलाड़ियों के पास अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर अपने गाँव, शहर आने के बाद अपने प्रशंसकों को मिठाई खिलाने के पैसे भी नहीं होते हैं। इन सबके बावजूद वे देश के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून नहीं छोड़तीं। अपने स्वयं के बलबूते पर ही महिला खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर रही हैं। बदलाव के इस दौर में देश की महिला खिलाड़ियों के साथ लैंगिक भेदभाव दूर किया जाना बहुत जरूरी है।

 

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