सरकार से बड़े हैं खेल संगठन पदाधिकारी

खेल संगठनों और सरकारों में सामंजस्य नहीं
खिलाड़ियों को नहीं मिलता अधोसंरचनाओं का लाभ 
श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर।
किसी भी राज्य में क्या सरकार द्वारा खेल अधोसंरचना आबाद कर देने मात्र से खेलों और खिलाड़ियों का भला हो सकता है। क्या खेल अधोसंरचनाओं का लाभ खिलाड़ियों को मिल रहा है? क्या खेल संगठनों और सरकारों में वैसा सामंजस्य है जैसा होना चाहिए? यह ऐसे सवाल हैं जिनका जब तक निराकरण नहीं होता हमारा देश खेलों में कतई तरक्की नहीं कर सकता।
हमारे देश में खेल संगठनों की स्थिति क्या है, किस तरह खेल संगठन पदाधिकारी अपने पद की गरिमा को तार-तार कर रहे हैं इस तरफ किसी का ध्यान नहीं है। हर राजनेता और नौकरशाह खेल संगठनों में पैठ बनाने की जुगाड़ में रहता है। क्या जिन खेल संगठनों में राजनेता और नौकरशाह काबिज हैं, उनकी स्थिति ताली पीटने वाली है। क्या उन संगठनों के खिलाड़ियों के चेहरे पर मुस्कान दिखती है। शायद इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है।जिला या राज्यस्तरीय खेल संघों व एसोसिएशनों से अपेक्षा रहती है कि वे स्थानीय प्रतिभाओं को सामने लाकर प्रदेश सरकार की खेल प्रोत्साहन योजना को सफल बनाने में सहयोग करेंगे। देखने में आता है कि अधिकांश खेलनहार मान, प्रतिष्ठा या अन्य निजी लाभ के लिए एसोसिएशन, फेडरेशन अथवा संघ का गलत तरीके से पंजीकरण करवा कर खेलों और खिलाड़ियों से खिलवाड़ करते हैं। हर राज्य में कुकुरमुत्ते की तरह एसोसिएशनों के पंजीयन हुए हैं और हो रहे हैं, निश्चित तौर पर यह खेलों के साथ खिलवाड़ ही है। एक-एक खेल में कई संगठनों का अस्तित्व में आना खिलाड़ियों को गुमराह करता है लेकिन हर कोई अपनी ढपली अपना राग अलाप रहा है।
कई संगठनों का तो पंजीयन भी नहीं होता लेकिन वे खिलाड़ियों को गुमराह करने से बाज नहीं आते। राज्य ओलम्पिक एसोसिएशन से सम्बद्धता एवं मान्यता के नियम स्थिर, स्थायी हैं या समयानुकूल समायोजित हो सकते हैं? स्थानीय स्तर पर खेल संघ, एसोसिएशन या फेडरेशन के गठन और पंजीकरण से मुख्यत: चार बातें जुड़ी हैं। प्रक्रिया, महत्व, लाभ व उपयोगिता। यदि किसी एक का भी सरोकार खेल प्रोत्साहन के वृहद उद्देश्य से न हुआ तो सब निरर्थक है। 
खेलों में खिलाड़ियों को गुमराह करने का खेल अपनी सीमाएं लांघ चुका है लेकिन इस तरफ किसी खेल हुक्मरान का ध्यान इसलिए नहीं है क्योंकि उन्हीं की शह पर ऐसा होता है। किसी भी प्रदेश में खेल विभाग, ओलम्पिक एसोसिएशन या तमाम राष्ट्रीय स्पो‌र्ट्स फेडरेशन से सम्बद्धता या मान्यता का दावा करने वाली हर स्थानीय खेल एसोसिएशन की जांच होनी चाहिए। यह भी जांच हो कि इन्होंने सरकार या संबंधित राष्ट्रीय, प्रादेशिक खेल व सामाजिक संस्थाओं से कितना आर्थिक अनुदान लिया है? एसोसिएशनों के वेरीफिकेशन का काम क्या हमेशा बाबुओं पर ही रहेगा? अधिकारी यह दायित्व कब अपने हाथों में लेंगे? 
लोकप्रिय खेलों के बारे में तो सभी जागरूक हैं पर उन खेल एसोसिएशनों की ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा जो नित नए खेलों के नाम पर उभर कर आ रही हैं? इनकी मॉनीटरिंग और फंडिंग कहां से हो रही है? वास्तविक उद्देश्य क्या है? स्थानीय स्तर पर खिलाड़ियों, सामाजिक-शैक्षिक संस्थाओं को विश्वास में लेकर प्रतियोगिताओं के आयोजन के नाम पर जो दुकानदारी चल रही है, उस पर रोक को आखिर कौन आगे आएगा? 
कहने को हर जिले के खेलों में जिलाधिकारी की भूमिका सबसे अहम होती है। अफसोस स्कूल से लेकर जिला स्तर तक की किसी टीम के चयन में उनकी भूमिका कतई निर्णायक नहीं होती। सम्भव है जिला प्रशासन की अरुचि के कारण ही कुकुरमुत्तों की तरह खेल एसोसिएशन पनप रही हैं। एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। गलत प्रक्रिया व उद्देश्य से गठित एसोसिएशन उन संस्थाओं पर भी प्रश्नचिह्न लगा देती हैं जो मौलिक हैं और खेल प्रोत्साहन में ईमानदारी से कार्यरत हैं। देश के खेल मानचित्र को यदि बदलना है तो सरकारों और खेल विभागों को विशेष सक्रियता दिखानी होगी। वेरीफिकेशन प्रक्रिया को मुस्तैद व चाक-चौबंद करना होगा, वरना खेलों के नाम पर खजाना तो खाली होगा लेकिन खिलाड़ियों को उसका लाभ कतई नहीं मिलेगा।  

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