महिला एथलीटों को मानसिक यातना देता जेंडर टेस्ट

कई भारतीय खिलाड़ियों को बनाया अपना ग्रास

श्रीप्रकाश शुक्ला

ग्वालियर। किसी एथलीट से यह कहना कि वह महिला तो है लेकिन उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा अधिक होने के कारण वह स्त्री वर्ग में नहीं आ सकती अपने आप में उसके लिए असहनीय मानसिक यातना देने वाला कदम है। जेंडर टेस्ट न केवल महिला एथलीटों के लिए मानसिक यातना देने वाला कदम है बल्कि मानवाधिकारों का भी घोर उल्लंघन है। भारत की कई महिला एथलीटों के करिअर को अपना ग्रास बना चुका है यह जेंडर टेस्ट।

जेंडर टेस्ट पर रश्मि रॉकेट नाम की फिल्म भी बनी, जिसमें एक महिला खिलाड़ी के संघर्षों की बात को प्रमुखता से उठाया गया है। दुख और अफसोस की बात है कि चांद पर निवास का सपना देख रही यह दुनिया महिला एथलीटों के साथ होते अमानवीय प्रयोगों का अब तक तोड़ नहीं निकाल पाई है, यही वजह है कि   उसे जेंडर वेरिफिकेशन जैसे मुश्किल और अपमानजनक टेस्ट से होकर गुजरना पड़ता है।

रश्मि रॉकेट की कहानी भुज की रश्मि वीरा की है जोकि बचपन से ही एक तेज धावक है और उसके टैलेंट से प्रभावित होकर आर्मी कैप्टन गगन ठाकुर उसे एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में शामिल होने का न्योता देते हैं। गगन खुद एक पदक विजेता एथलीट रहे और वह आर्मी के एथलीटों को ट्रेनिंग देते हैं। ट्रेनिंग पूरी करने के बाद रश्मि राज्यस्तरीय प्रतियोगिताएं जीत जाती है और प्रोत्साहित होकर नेशनल स्तर पर ट्रेनिंग के लिए पुणे  पहुंचती है तथा अपनी काबिलियत की वजह से देश की स्टार बन जाती है। 

2004 के एशियाई खेलों में रश्मि की शानदार जीत पर जहां देश जश्न मना रहा होता है वहीं दूसरी तरफ एथलेटिक एसोसिएशन के कहने पर जबरन उसका जेंडर टेस्ट कराया जाता है और उसमें टेस्टोस्टेरोन हार्मोन अधिक होने की वजह से उसके टैलेंट को नकार कर दौड़ प्रतियोगिताओं से उसे बहिष्कृत कर दिया जाता है। इसके बाद रश्मि इंसाफ के लिए अपनी लड़ाई शुरू करती है। हाईकोर्ट में मानव अधिकार उल्लंघन के तहत एक पेटीशन दायर करती है। इस केस की सुनवाई के दौरान तमाम दलीलें सुनने के बाद आखिरकार कोर्ट रश्मि को तमाम पाबंदियों से आजाद करने का आदेश देता है।

फिल्म की कहानी हमें भारत की तेज धावक दुती चंद की याद दिलाती है, जिन्हें जेंडर टेस्ट में फेल होने के बाद एशियन गेम्स में खेलने का मौका नहीं मिला। कुछ साल पहले दुती चंद इस बात के लिए विवादों में आई थी कि उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन (वह हार्मोन जो पुरुष के शरीर में अधिक पाया जाता है) की मात्रा सामान्य महिला से अधिक है लिहाजा कुछ समय के लिए उसे एथलेटिक्स फेडरेशन ने प्रतिबंधित कर दिया था। दुती ने स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया द्वारा लिए गए फैसले को चुनौती देते हुए कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन में अपील की। अदालत ने एक ऐतिहासिक जजमेंट में उसके पक्ष में फैसला सुनाया और वह मुकदमा जीत गई। अब फिर से वह ट्रैक पर अपनी काबिलियत दिखा रही है।

आज भी हमारे देश में सदियों पुरानी प्रणाली के तहत जेंडर टेस्टिंग के नाम पर महिला एथलीटों को शोषण का सामना करना पड़ता है। किसी महिला धावक से यह कहना कि वह स्त्री तो है, लेकिन उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा अधिक होने के कारण वह स्त्री वर्ग में नहीं आ सकती अपने आप में उसके लिए असहनीय मानसिक यातना देने वाला है। दुती चंद को तो आईएएफ (इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशन) से राहत मिल गई थी और वह मुकदमा जीत गई थी लेकिन जेंडर टेस्ट के नाम पर महिला एथलीटों के साथ हुए भेदभाव से जुड़े कई सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं।

पिंकी प्रमाणिक और शांति सुंदराजन को भी जेंडर टेस्ट से होकर गुजरना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय और 50 राष्ट्रीय पदक जीतने वाली तमिलनाडु के दलित तबके से आई शांति सुंदराजन पहली भारतीय महिला धावक है जिसे जेंडर टेस्ट में फेल होने के कारण 2006 में हुए एशियाई खेलों में 400 मीटर की रेस में जीते कांस्य पदक को लौटाना पड़ा था। इस वजह से उसका करियर तबाह हो गया और वह काफी विवादों में आ गई। अत्यधिक अपमान झेलने की वजह से उसने डिप्रेशन में आकर आत्महत्या तक का प्रयास किया था। पदक छिनने और जेंडर टेस्ट से हुए सामाजिक अपमान के बाद लोग उसे अजीब नजरों से देखने लगे जैसे पूछ रहे हों कि क्या वो लड़का है जिस वजह से उसका और उसके परिवार का जीवन तबाह हो गया।

दूसरी महिला धावक जिन्हें इस टेस्ट से गुजरना पड़ा वह पश्चिम बंगाल की पिंकी प्रमाणिक हैं। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय खेलों में पांच स्वर्ण पदक सहित कुल 6 पदक जीते। पिंकी की महिला मित्र ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया। इस आरोप के चलते उनका जेंडर टेस्ट करवाया गया। आखिर में वे भी इस टेस्ट को पास करके पूर्ण रूप से स्त्री घोषित हुईं। साल 2001 में गोवा की एक युवा तैराक प्रतिमा गोकर ने जेंडर टेस्ट में फेल होने के बाद आत्महत्या की कोशिश की थी।

आईएएएफ द्वारा हाईपरएंड्रोजेनिज्म की स्थिति में महिला धावकों के अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। आईएएएफ का तर्क है कि हाईपरएंड्रोजेनिज्म के कारण महिला धावक में अपनी अन्य प्रतिद्वंदियों से ज्यादा क्षमता आ जाती है इसलिए महिला धावक सिर्फ उसी स्थिति में किसी खेल प्रतियोगिता में भाग ले सकती है जब वह अपने टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का स्तर कम कर दे जोकि दवाई व सर्जरी द्वारा किया जाता है। इस मुद्दे को मानवाधिकार के मुद्दे से जोड़ा जाता है। कई दिग्गजों और खेल जानकारों का मानना है कि किसी महिला खिलाड़ी को शरीर में बदलाव करने के लिए मजबूर करना उसके मानवाधिकारों का हनन है, अधिकारों को अगर छोड़ भी दिया जाए तो भी जब किसी महिला खिलाड़ी से उसके महिला होने का सबूत मांगा जाता है और उससे टेस्ट कराने को कहा जाता है तब यह पूरी दुनिया के सामने उसे शर्मिंदा तो करता ही है साथ में उसके आत्मविश्वास पर भी काफी गलत प्रभाव डालता है।

निर्देशक आकाश खुराना ने फिल्म रश्मि रॉकेट के जरिए खेलों में महिला खिलाड़ियों का जबरन लिंग परीक्षण और हाईपरएंड्रोजेनिज्म की तरफ लोगों का ध्यान खींचा है जोकि एक गहन विषय है। यह फिल्म महिला एथलीटों के प्रति समाज की धारणा और खेलजगत की राजनीति से पर्दा उठाती है। खासतौर पर तब जब महज एक टेस्ट के बाद न सिर्फ उसका करियर खत्म हो जाता है बल्कि जो महिला खिलाड़ी इसका शिकार होती है, उसके सम्मान को भी काफी ठेस पहुंचती है और वे अवसाद का शिकार होकर कई बार अपनी जान तक देने के लिए अमादा हो जाती है।

मानव अधिकार और संविधान के अनुच्छेदों को ध्यान में रखते हुए इस फिल्म के जरिए उन कानूनों पर भी चोट करने की कोशिश की गई है जो आज के वक्त के लिए गैरजरूरी है। एक ऐसी प्रथा जो एथलेटिक्स में आज भी जारी है व जिसने महिला खिलाड़ियों को वर्षों से परेशान कर रखा है और जेंडर टेस्टिंग के नाम पर उनको शोषित एवं उतपीड़ित कर रखा है, उसके खिलाफ यह फिल्म जोरदार आवाज उठाती है। फिल्म से महिला एथलीटों को बेशक सांत्वना मिली हो लेकिन इस बुराई के खिलाफ महिला एथलीटों को एकजुट आवाज बुलंद करनी चाहिए।

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