भारत में स्पोर्ट्स बजट प्रति व्यक्ति 10 पैसा भी नहीं

चीन भारतीय खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा क्यों नहीं?

श्रीप्रकाश शुक्ला

ग्वालियर। भारत में खेलों का स्याह सच हर किसी को पता है लेकिन किसी माई के लाल में दम नहीं कि वह केन्द्रीय खेल मंत्रालय, बिना दांत के हाथी भारतीय खेल प्राधिकरण और स्वनामधन्य भारतीय ओलम्पिक संघ के खिलाफ मुंह खोल सके। हमारे राजनीतिज्ञ प्रायः मुल्क की तुलना अपने पड़ोसी देश चीन से करते हैं लेकिन जब बात ओलम्पिक खेलों की होती है तो सभी के मुंह में दही जम जाता है।

ओलम्पिक में चीन मेडल सूची में जहां शीर्ष पांच देशों में शामिल रहता है वहीं भारत के नीचे के पांच देशों में शामिल होने के बावजूद जश्न मनाया जाता है। विजेता खिलाड़ियों पर धनवर्षा कर संकल्प लिया जाता है कि अगले ओलम्पिक में भारत शीर्ष 10 देशों में शुमार होता है। देशवासी यह बकवास पिछले 50 साल से सुनते आ रहे हैं। खेलों में भारत के मायूस करने वाले प्रदर्शन का जवाब है तो हर किसी के पास लेकिन किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह बिल्ली के गले में घंटी बांधने का जोखिम ले सके।

भारत की दिग्गज पूर्व एथलीट पीटी ऊषा चीन और भारत की खेलों में तुलना पर कहती हैं,  कि वे लम्बे समय से खुद से यही सवाल पूछ रही हैं लेकिन इसका कोई जवाब उनके पास भी नहीं है। अपने शानदार खेल जीवन में  103 पदक जीतने वाली उड़नपरी पीटी ऊषा कहती हैं, मैं सच कहना चाहती हूँ, मेरे माता-पिता ने हमेशा मुझे सच बोलने की सीख दी है लेकिन मैंने अगर सच बोल दिया तो वो एक कड़वा सच होगा, इसलिए इस मामले में मैं पड़ना नहीं चाहती। पीटी ऊषा का वह कड़वा सच क्या होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है, खेलों से जुड़े लोग कहते हैं कि सच तो ये है कि देश में क्रिकेट को छोड़कर किसी और स्पोर्ट्स में किसी की कोई खास दिलचस्पी नहीं है। यह सच नहीं है क्योंकि क्रिकेट ने भी गुरबत के दिन देखे हैं।

भारत ने लगभग 122 साल के अपने ओलम्पिक इतिहास में कुल जमा 35 पदक जीते हैं, जिनमें 12 पदक तो हॉकी के ही हैं। भारत ने पहली बार साल 1900 में पेरिस में हुए ओलम्पिक मुकाबलों में भाग लिया था और दो पदक हासिल किए थे। भारत से इतर चीन ने इन मुकाबलों में पहली बार 1984 में हुए लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में सहभागिता की थी और उसके पदकों की संख्या 613 है। टोक्यो ओलम्पिक से पहले भारत के पदकों की संख्या 28 तो चीन के पदकों की संख्या 525 थी। भारत ने टोक्यो ओलम्पिक में 07 पदक जीते तो चीन ने 88 पदकों पर कब्जा जमाने में सफल रहा। टोक्यो में चीन को 38 स्वर्ण, 32 रजत तथा 18 कांस्य पदक मिले।

अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स ने अपने करियर में 28 ओलम्पिक पदक जीते हैं जो घनी आबादी वाले देश भारत के पूरे ओलम्पिक इतिहास में (टोक्यो से पहले तक) हासिल किए गए कुल पदकों के बराबर है। दरअसल, चीन और भारत की खेलनीति में जमीन आसमान का फर्क है। भारत कागजों तो चीन साल भर मैदानों में खेलता है। चीन में अब बहस इस बात पर छिड़ी है कि क्या केवल पदक जीतना ही सब कुछ है? अमेरिका की सिमोन बाइल्स के अपने मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के लिए प्रतियोगिता से बाहर होने के बाद चीन में ये बहस और तेज़ हो गई है। आखिर ओलम्पिक खेलों के आयोजन के पीछे खास मकसद स्पोर्ट्स स्प्रिट को बढ़ाना और राष्ट्रीय गौरव हासिल करना है। दूसरी तरफ भारत में चर्चा यह होती है कि खिलाड़ी पदक हासिल क्यों नहीं कर पा रहे हैं?

ट्रैक क्वीन पीटी ऊषा ने चीन के कम समय में ही ओलम्पिक सुपर पॉवर बनने का जवाब अंग्रेजी के एक शब्द में दिया, "डिजायर"। इस शब्द के गहरे निहितार्थ हैं। चाहत, मंशा, अभिलाषा, लालच और यहां तक कि महत्वाकांक्षा और लगन भी। मगर भारत का कोई भी खिलाड़ी 'डिजायर' के बगैर तो ओलम्पिक खेलों में भाग नहीं लेता होगा? पीटी ऊषा कहती हैं, चीन में पूरे समाज के सभी तबके में, चाहे वो सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, पदक हासिल करने की ज़बरदस्त चाह है। 1980 के दशक में पीटी ऊषा को हमारे देश का बच्चा-बच्चा उड़नपरी नाम से जानता था। अगर आप उस दशक की चीनी मीडिया पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि शुरू के सालों में तमगा और मेडल पाने की ये चाहत सिर्फ़ चाहत नहीं थी बल्कि दरअसल ये एक जुनून था। हर शख्स में देश की शान बढ़ाने की तमन्ना थी। चीन की आज की पीढ़ी अपने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के उस बयान से प्रेरित होती है जिसमे उन्होंने कहा था, "खेलों में एक मज़बूत राष्ट्र बनना चीनी सपने का हिस्सा है।" राष्ट्रपति शी का ये बयान 'डिज़ायर' शब्द पर ही आधारित है।

आमतौर पर भारत के नागरिक और नेता अपनी तुलना चीन से करते हैं और अक्सर चीन की तुलना में अपनी हर नाकामी को चीन के अलोकतांत्रिक होने पर थोप देते हैं, लेकिन ओलम्पिक खेलों में अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देश भी बड़ी ताकत हैं, इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं। अब सवाल यह भी कि चीन भारतीय खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा क्यों नहीं? आखिर यह कैसे सम्भव हुआ कि 1970 के दशक में दो गरीब देश, जो आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग सामान थे मगर इनमें से एक खेलों की बुलंदियां छू रहा है तो दूसरा कपोल कल्पना में ही जी रहा है। चीन जहां अमेरिका को टक्कर दे रहा है तो भारत उज़्बेकिस्तान जैसे ग़रीब देश से भी पिछड़ा है?

इस मामले में भारतीय खेल प्राधिकरण के कुश्ती के एक प्रसिद्ध कोच और द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता महा सिंह राव कहते हैं, चीन और हिन्दुस्तान की जनसंख्या लगभग समान है और हमारी अधिकांश चीजें भी समान हैं। चीन के खिलाड़ियों की ट्रेनिंग साइंटिफ़िक और मेडिकल साइंस के आधार पर ज़्यादा ज़ोर देकर करवाई जाती है जिससे वो पदक प्राप्त करने में कामयाब हो रहे हैं। इस मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व स्पोर्ट्स एडीटर वी. श्रीवत्स कहते हैं कि चीन में सब बंदोबस्त 'रेजीमेंटेड' होता जिसे सबको मानना पड़ता है, भारत में ऐसा करना मुश्किल है। उनके अनुसार चीन में माता-पिता और परिवार वाले बचपन से ही अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाना चाहते हैं जबकि भारत में, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में माँ-बाप बच्चों को पढ़ाने पर और बाद में नौकरी पर ध्यान देते हैं।

सिंगापुर में रह रहे चीन के वरिष्ठ पत्रकार सुन शी कहते हैं, "प्रत्येक ओलम्पिक खेलों के लिए चीन में ठोस लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं। चीन ने अपने खेल के बुनियादी ढांचे में ज़बरदस्त सुधार किया है और वो खुद कई तरह के खेल उपकरण बना सकता है।" जिस तरह से भारत में चीन की ओलम्पिक कामयाबियों को दिलचस्पी और ईर्ष्या से देखा जाता है उसी तरह से चीन में भी भारत की विफलताओं पर टिप्पणी की जाती है। रियो में हुए 2016 ओलम्पिक खेलों में भारत को केवल दो पदक मिले थे और चीन को 70 पदक।  'चाइना डेली' ने रियो ओलम्पिक के तुरंत बाद भारत में खेलों के रवैए पर चिन्ता जताई थी।

खेलों से जुड़े लोगों से बातचीत के आधार पर भारत की नाकामी का दोष खिलाड़ियों को पूरी तरह से नहीं दिया जा सकता। भारत में खेलों की दयनीय हालत के कई कारण हैं। मसलन, खेल संस्कृति का अभाव, पारिवारिक-सामाजिक भागीदारी की कमी, खेलों का सरकारी प्राथमिकता में नहीं होना, खेल फेडरेशनों पर सियासत हावी, खेल इंन्फ्रास्ट्रक्चर और डाइट नाकाफी, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद, गरीबी और खेल से पहले नौकरी प्राथमिकता, प्राइवेट स्पॉन्सरशिप की कमी हमारे पिछड़ेपन को ही दर्शाते हैं। इनमें से कुछ कमियों को आमिर खान ने अपनी कामयाब फ़िल्म 'दंगल' में बहुत अच्छे तरीके से उजागर किया है। खेलों की हास्यास्पद स्थिति पर हम सभी जवाबदेह हैं। "हम आईटी और दूसरे क्षेत्रों में विश्व ख्याति के लोग पैदा कर रहे हैं। भारत कई क्षेत्रों में दुनिया के कई देशों से आगे है। अब सवाल यह उठता है कि हम खेलों में आखिर पीछे क्यों हैं, क्या हमारे पास टैलेंट नहीं है। इन सबका एक ही जवाब है कि खेल हमारी प्राथमिकता में नहीं हैं।

किसी युवा खिलाड़ी को शुरुआती दिनों में परिवार और समूह का भरपूर समर्थन मिलना जरूरी होता है। एक बार रूसी बास्केटबॉल से जुड़े कुछ लोग भारत आए उन्होंने टैलेंट खोज में 126 ऐसे लड़के चुने जो 15-16 साल के थे तथा जिनकी ऊंचाई छह फिट से अधिक थी। उनकी ट्रेनिंग के अलावा उनकी पढ़ाई की ज़िम्मेदारी ली गई। अगले दिन लड़कों के माता-पिता को बुलाया गया ताकि उनके हस्ताक्षर लिए जा सकें, लेकिन अभिभावकों ने हंगामा शुरू कर दिया कि खेत में कौन काम करेगा, गाय कौन चराएगा और उन्हें नौकरी कौन देगा?

सच यह है कि हमारे देश में हर माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी नौकरी में भेजना पसंद करता है। खेल-कूद उनके लिए सिर्फ कुछ क्षणों का मनोरंजन है। कुछ अपवाद भी हैं जैसे कि लिएंडर पेस के पिता। उन्होंने अपने बेटे के करियर की खातिर अपना सब कुछ त्याग दिया था। दुनिया के कई बड़े खिलाड़ियों की कामयाबी का श्रेय उनके माता-पिता को दिया जाता है। प्रसिद्ध टेनिस प्लेयर आंद्रे अगासी अपनी आत्मकथा 'ओपन' में अपने कामयाब करियर का श्रेय अपने ईरानी पिता को देते हैं, वो लिखते हैं कि उनके पिता उन्हें हर रोज़ सुबह अभ्यास करने के लिए ले जाते थे, जबकि उस समय टेनिस में उन्हें रुचि कतई नहीं थी। उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए वह अपने बड़े बेटे को अगासी के खिलाफ मैच हारने के लिए कहते थे ताकि टेनिस में उनकी दिलचस्पी बढ़े। सालों बाद जब उन्होंने विम्बलडन का टाइटल जीता तो सबसे पहले अपने पिता को फोन किया।

वरिष्ठ कुश्ती कोच महा सिंह राव व्यथित मन से बताते हैं कि खेल देश की प्राथमिकता नहीं हैं। देखा जाए तो केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें इनका खेल बजट आवश्यकता के अनुसार नहीं है। देखा जाए तो लगभग सभी राज्य सरकारों का स्पोर्ट्स बजट प्रति व्यक्ति 10 पैसा भी नहीं है। जहां खेल सरकारों की प्राथमिकता नहीं है, वहीं ये निजी उद्योगपतियों और प्राइवेट कम्पनियों की प्राथमिकता में भी नहीं है। देश में खेलों का माहौल बनाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है। चीन की तरह एक सिस्टम स्थापित करना ज़रूरी है और ये काम नीचे स्तर से शुरू होना चाहिए।

कुछ पूर्व भारतीय खिलाड़ी खेलों के विकास के लिए बेहतर कर रहे हैं। ऐसे पूर्व खिलाड़ी जो ओलम्पिक में पदक नहीं जीत सके लेकिन उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय पदक और खिताब जीते हैं। इनमें पूर्व बैडमिंटन चैम्पियन प्रकाश पादुकोण, बिलियर्ड्स के नामी खिलाड़ी गीत सेठी, शतरंज के चैम्पियन विश्वनाथन आनंद शामिल हैं जिन्होंने एक साथ मिलकर 'ओलम्पिक गोल्ड क्वेस्ट' नाम का एक कोचिंग सेण्टर खोला है जहां 10 खेलों में कोचिंग और ट्रेनिंग दी जाती है। इस केंद्र का दावा है कि इसने अब तक आठ ओलम्पियन तैयार किए हैं।

इसी तरह पुलेला गोपीचंद भी बैडमिंटन के क्षेत्र में बहुत अच्छा कर रहे हैं। पीटी ऊषा अपने राज्य केरल में महिला एथलीट्स के लिए एक कोचिंग सेंटर चला रही हैं जिसमें उनके अनुसार इस समय 20 लड़कियां ट्रेनिंग हासिल कर रही हैं। पीटी ऊषा को राज्य सरकार ने सहायता के तौर पर कोचिंग सेण्टर के लिए 30 साल के लिए जमीन लीज़ पर दी है। भारत में खेल और खिलाड़ियों के स्तर को बेहतर करने के लिए उन्हें ऊंचे स्तर का प्रशिक्षण और रोजगार दिलाना ज़रूरी है। साल 2000 से चीन की ही तरह भारत में भी खिलाड़ियों की ट्रेनिंग साइंटिफिक और मेडिकल साइंस की जानकारी के हिसाब से हो रही है। हालात बेहतर हो रहे हैं लेकिन इस काम में तेजी लाने के लिए निजी क्षेत्र सामने आकर स्पोर्ट्स के प्रति अपनी भूमिका का सही निर्वहन करना चाहिए।

 

 

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