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मेरी एक जिज्ञासा है। उन्हें छोड़कर जो खेलों में विशेष दिलचस्पी रखते हैं, हम सब 'देशप्रेमीजन' मीराबाई चानू को पहले भी जानते थे क्या? हमें उसकी शख़्सियत, क्षमता और संघर्ष का अंदाज़ा था क्या? जी नहीं, मैं इस अजेय, अनुकरणीय उपलब्धि को कम कर के नहीं देख रही। इसके लिए वही उत्साह और वही सम्मान मेरे मन में है जो किसी भी भारतीय के मन में इस समय होगा बल्कि उससे कहीं ज़्यादा क्योंकि इस उपलब्धि को अपनी मुट्ठी में करने वाली एक लड़की है और लड़कियों की किसी भी उपलब्धि को मैं चाँद-सूरज छूने से कम नहीं समझती। फिर यह तो ओलम्पिक में पदक पाने जैसी उपलब्धि है, वाकई चाँद-सूरज छू लेने जैसी।
भारत के लिए वेटलिफ्टिंग में मेडल जीतने वाली दूसरी वेटलिफ्टर बन चुकी मीराबाई चानू की विजय-गाथा आज पूरा देश गा रहा है। लेकिन यही तो वो क्षण होता है जब हमें रुक कर कुछ सोचना भी चाहिए। मणिपुर के छोटे से गाँव में जन्मी मीराबाई चानू अपने बचपन में जब पहाड़ों पर लकड़ियां बिन रही थी, सुनते हैं उस वक़्त उन नन्हीं आँखों में एक तीरंदाज़ बनने का सपना था लेकिन मशहूर वेटलिफ्टर कुंज रानी देवी की कहानी सुनने के बाद बच्ची का सपना बदल गया। हालांकि लक्ष्य का संधान अब भी करना ही था।
2014 के कॉमनवेल्थ गेम्स में अच्छे प्रदर्शन के बाद चानू ने रियो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई कर लिया था लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद वह ख़ुद भी अपनी ही उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। चैम्पियन का मुक़ाबला किसी और से नहीं ख़ुद अपने आप से होता है तो नाकामियों से लगातार सीखते हुए चानू लगातार उस सीढ़ी पर चढ़ती चली गई जिसके शीर्ष पर ओलम्पिक का रजत था।
संघर्ष-कथाएँ, उपलब्धि-गाथाओं में बदलने के बाद बड़ी दिलचस्प लगती हैं लेकिन उनसे गुज़रना इतना दिलचस्प नहीं होता। कदम-कदम पर टूटना पड़ता है। गिरना और ख़ुद ही उठना पड़ता है। फिर हमारे देश का सामाजिक इतिहास गवाह है कि खेल के क्षेत्र में लड़कियों को क्या लड़कों को भी पर्याप्त संसाधन और प्रोत्साहन नहीं मिले। हाँ, अपना खून-पसीना बहाने के बाद जब खिलाड़ी उपलब्धियों से देश का नाम ऊँचा करते हैं जो चहुँओर तालियाँ ज़रूर बजने लगती हैं। इन तालियों को बजाने वालों में अक्सर वो भी शामिल होते हैं जिन्होंने अपने आसपास या अपने घर के बच्चों को करियर के रूप में खेल का चुनाव करने पर सहमति नहीं जताई होती है।
हम ज़रा अपने आस-पास नज़र डालें तो बहुत सारी मीराबाई चानू देख सकते हैं जिनकी कड़ी मेहनत को, संघर्ष को और जुनून को आज से ही हमारे प्रोत्साहन की ज़रूरत है। हम चाहें तो उनकी कहानी में अभी से शामिल हो सकते हैं लेकिन नहीं हम तो उस दिन का इंतज़ार करते हैं जब वे सारी चुनौतियों को ठेंगा दिखाकर, अपने बलबूते पर शिखर तक पहुँच जाएँगी और हमको तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देंगी और तालियाँ बजाने में तो हम बहुत माहिर हैं। देशप्रेमी होने के नाम पर हर गौरव का क्रेडिट लेना हमें बखूबी आता है, उसमें हमारा योगदान हो या न हो, फ़र्क़ नहीं पड़ता। क्रेडिट तो हमने कल्पना चावला तक का ले लिया था।
69 किलोग्राम वर्ग में कर्णम मल्लेश्वरी ने 2000 में कांस्य जीता था। 21 साल बाद रजत मीराबाई चानू ने अर्जित किया है। हम फिर जय-जयकार में लग गए हैं। बिना इस प्रश्न पर ध्यान दिए हुए कि क्या स्वर्ण पदक के लिए भी हमें अगले 21 साल प्रतीक्षा करनी होगी जब फिर कोई और लड़की सुदूर भारत के छोटे से गाँव से निकलकर अपने जुनून के बल पर आसमान छुएगी। काश, हम जीत का जश्न जिस ज़ोरदार तरीके से मनाते हैं, खेलों को वैसी ही संजीदगी के साथ ले पायें। खासतौर पर एक महिला खिलाड़ी के लिए अनुकूल सामाजिक, आर्थिक, मानसिक वातावरण बना पाएं तो हमें मनचाहा मेडल पाने के लिए 21 वर्षों का इंतजार नहीं करना पड़ेगा। ये 'काश' सच में तब्दील हो, इसी उम्मीद के साथ, आज की नायिका मीराबाई चानू को आसमान भर की मुबारक।
''कल गोल्ड मेडल तुम्हीं जितोगीः अमेरिकी राष्ट्रपति
उस समय उसकी उम्र 10 साल थी। इम्फाल से 200 किमी दूर नोंगपोक काकचिंग गाँव में गरीब परिवार में जन्मी और छह भाई-बहनों में सबसे छोटी मीराबाई चानू अपने से चार साल बड़े भाई सैखोम सांतोम्बा मीतेई के साथ पास की पहाड़ी पर लकड़ी बीनने जाती थी। एक दिन उसका भाई लकड़ी का गठ्ठर नहीं उठा पाया, लेकिन मीरा ने उसे आसानी से उठा लिया और वह उसे लगभग दो किलोमीटर दूर अपने घर तक ले आई।
शाम को पड़ोस के घर मीराबाई चानू टीवी देखने गई, तो वहाँ जंगल से उसके गठ्ठर लाने की चर्चा चल पड़ी। उसकी माँ बोली, ''बेटी आज यदि हमारे पास बैलगाड़ी होती तो तूझे गठ्ठर उठाकर न लाना पड़ता।'' ''बैलगाड़ी कितने रूपए की आती है माँ?'' मीराबाई ने पूछा। ''इतने पैसों की, जितने हम कभी ज़िंदगी भर देख न पाएँगे।''
''मगर क्यों नहीं देख पाएँगे, क्या पैसा कमाया नहीं जा सकता? कोई तो तरीका होगा बैलगाड़ी खरीदने के लिए पैसा कमाने का?'' चानू ने पूछा तो तब गाँव के एक व्यक्ति ने कहा, ''तू तो लड़कों से भी अधिक वज़न उठा लेती है, यदि वजन उठाने वाली खिलाड़ी बन जाए तो एक दिन ज़रूर भारी—भारी वजन उठाकर खेल में सोना जीतकर उस मेडल को बेचकर बैलगाड़ी खरीद सकती है।''
''अच्छी बात है मैं सोना जीतकर उसे बेचकर बैलगाड़ी खरीदूँगी।'' उसमें आत्मविश्वास था। उसने वजन उठाने वाले खेल के बारे में जानकारी हासिल की, लेकिन उसके गाँव में वेटलिफ्टिंग सेंटर नहीं था, इसलिए उसने रोज़ ट्रेन से 60 किलोमीटर का सफर तय करने की सोची। शुरुआत उसने इम्फाल के खुमन लंपक स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स से की। एक दिन उसकी ट्रेन लेट हो गयी... रात का समय हो गया। शहर में उसका कोई ठिकाना न था, कोई उसे जानता भी न था। उसने सोचा कि किसी मन्दिर में शरण ले लेगी और कल अभ्यास करके फिर अगले दिन शाम को गाँव चली जाएगी।
एक अधूरा निर्माण हुआ भवन उसने देखा जिस पर आर्य समाज मन्दिर लिखा हुआ था। वह उसमें चली गई। वहाँ उसे एक पुरोहित मिला, जिसे उसने बाबा कहकर पुकारा और रात को शरण माँगी। ''बेटी मैं आपको शरण नहीं दे सकता, यह मन्दिर है और यहाँ एक ही कमरे पर छत है, जिसमें मैं सोता हूँ। दूसरे कमरे पर छत अभी डली नहीं, एंगल पड़ गई हैं, पत्थर की सिल्लियां आई पड़ी हैं लेकिन पैसे खत्म हो गए। तुम कहीं और शरण ले लो।''
''मैं रात में कहाँ जाऊंगी बाबा,'' मीराबाई आगे बोली, ''मुझे बिन छत के कमरे में ही रहने की इज़ाजत दे दो।'' ''अच्छी बात है, जैसी तेरी मर्ज़ी।'' बाबा ने कहा। वह उस कमरे में माटी एकसार करके उसके ऊपर ही सो गई, अभी कमरे में फर्श तो डला नहीं था। जब छत नहीं थी तो फर्श कहाँ से होता भला। लेकिन रात के समय बूँदाबाँदी शुरू हो गई और उसकी आँख खुल गई।
मीराबाई ने छत की ओर देखा। दीवारों पर उपर लोहे की एंगल लगी हुई थी, लेकिन सिल्लियां तो नीचे थीं। आधा अधूरा जीना भी बना हुआ था। उसने नीचे से पत्थर की सिल्लिया उठाईं और ऊपर एंगल पर जाकर रख दीं और फिर थोड़ी ही देर में दर्जनों सिल्लियाँ कक्ष की दीवारों के ऊपर लगी एंगल पर रखते हुए कमरे को छाप दिया। उसके बाद वहाँ एक बरसाती पन्नी पड़ी थी वह सिल्लियों पर डालकर नीचे से फावड़ा और तसला उठाकर मिट्टी भर—भरकर उपर छत पर सिल्लियों पर डाल दी। इस प्रकार मीराबाई ने छत तैयार कर दी।
बारिश तेज हो गई,और वह अपने कमरे में आ गई। अब उसे भीगने का डर न था, क्योंकि उसने उस कमरे की छत खुद ही बना डाली थी। अगले दिन बाबा को जब सुबह पता चला कि मीराबाई ने कमरे की छत डाल दी तो उसे आश्चर्य हुआ और उसने उसे मन्दिर में हमेशा के लिए शरण दे दी, ताकि वह खेल की तैयारी वहीं रहकर कर सके, क्योंकि वहाँ से खुमन लंपक स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स निकट था। बाबा उसके लिए खुद चावल तैयार करके खिलाते और मीराबाई ने कक्षों को गाय के गोबर और पीली माटी से लीपकर सुन्दर बना दिया था।
समय मिलने पर बाबा उसे एक किताब थमा देते, जिसे वह पढ़कर सुनाया करती और उस किताब से उसके अन्दर धर्म के प्रति आस्था तो जागी ही साथ ही देशभक्ति भी जाग उठी। इसके बाद मीराबाई चानू 11 साल की उम्र में अंडर-15 चैम्पियन बन गई और 17 साल की उम्र में जूनियर चैम्पियन का ख़िताब अपने नाम किया। लोहे की बार खरीदना परिवार के लिए भारी था। मानसिक रूप से परेशान हो उठी मीराबाई ने यह समस्या बाबा से बताई, तो बाबा बोले, ''बेटी चिंता न करो, शाम तक आओगी तो बार तैयार मिलेगा।''
वह शाम तक आई तो बाबा ने बाँस की बार बनाकर तैयार कर दी, ताकि वह अभ्यास कर सके। बाबा ने उनकी भेंट कुंजुरानी से करवाई। उन दिनों मणिपुर की महिला वेटलिफ्टर कुंजुरानी देवी स्टार थीं और एथेंस ओलम्पिक में खेलने गई थीं। इसके बाद तो मीराबाई ने कुंजुरानी को अपना आदर्श मान लिया और कुंजुरानी ने बाबा के आग्रह पर इसकी हरसंभव सहायता करने का बीड़ा उठाया।
जिस कुंजुरानी को देखकर मीरा के मन में विश्व चैम्पियन बनने का सपना जागा था, अपनी उसी आइडल के 12 साल पुराने राष्ट्रीय रिकॉर्ड को मीरा ने 2016 में तोड़ा, वह भी 192 किलोग्राम वज़न उठाकर। 2017 में विश्व भारोत्तोलन चैम्पियनशिप, अनाहाइम, कैलीफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका में उसे भाग लेने का अवसर मिला। मुकाबले से पहले एक सहभोज में उसे भाग लेना पड़ा। सहभोज में अमेरिकी राष्ट्रपति मुख्य अतिथि थे।
राष्ट्रपति ने देखा कि मीराबाई को उनके सामने ही पुराने बर्तनों में चावल परोसा गया, जबकि सब होटल के शानदार बर्तनों में शाही भोजन का लुत्फ ले रहे थे। राष्ट्रपति ने प्रश्न किया, ''इस खिलाड़ी को पुराने बर्तनों में चावल क्यों परोसा गया, क्या हमारा देश इतना गरीब है कि एक लड़की के लिए बर्तन कम पड़ गए, या फिर इससे भेदभाव किया जा रहा है, यह अछूत है क्या?''
''नहीं महामहिम ऐसी बात नहीं है,'' उसे खाना परोस रहे लोगों से ज़वाब मिला, '' इसका नाम मीराबाई है। यह जिस भी देश में जाती है, वहाँ अपने देश भारत के चावल ले जाती है। यह विदेश में जहाँ भी होती है, भारत के ही चावल उबालकर खाती है। यहाँ भी ये चावल खुद ही अपने कमरे से उबालकर लाई है।'' ''ऐसा क्यों?'' राष्ट्रपति ने मीराबाई की ओर देखते हुए उससे पूछा। ''महामहिम, मेरे देश का अन्न खाने के लिए देवता भी तरसते हैं, इसलिए मैं अपने ही देश का अन्न खाती हूँ।''
''ओह... बहुत देशभक्त हो तुम, जिस गाँव में तुम्हारा जन्म हुआ, भारत में जाकर उस गाँव के एक बार अवश्य दर्शन करूँगा।'' राष्ट्रपति बोले। ''महामहिम इसके लिए मेरे गाँव में जाने की क्या ज़रूरत है?'' ''क्यों?'' ''मेरा गाँव मेरे साथ है, मैं उसके दर्शन यहीं करा देती हूँ।'' ''अच्छा कराइए दर्शन!'' कहते हुए उस मूर्ख लड़की की बात पर हँस पड़े राष्ट्रपति।
मीराबाई अपने साथ हैंडबैग लिए हुए थी, उसने उसमें से एक पोटली खोली, फिर उसे पहले खुद माथे से लगाया फिर राष्ट्रपति की ओर करते हुए बोली, ''यह रहा मेरा पावन गाँव और महान देश।'' ''यह क्या है?'' राष्ट्रपति पोटली देखते हुए बोले, ''इसमें तो मिट्टी है?'' ''हाँ यह मेरे गाँव की पावन मिट्टी है। इसमें मेरे देश के देशभक्तों का लहू मिला हुआ है, इसलिए यह मिट्टी नहीं, मेरा सम्पूर्ण भारत है...''
''ऐसी शिक्षा तुमने किस विश्वविद्यालय से पाई चानू?'' ''महामहिम ऐसी शिक्षा विश्वविद्यालय में नहीं दी जाती, ऐसी शिक्षा तो गुरु के चरणों में मिलती है, मुझे आर्य समाज में हवन करने वाले बाबा से यह शिक्षा मिली है, मैं उन्हें सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर सुनाती थी, उसी से मुझे देशभक्ति की प्रेरणा मिली।''
''सत्यार्थ प्रकाश?''
''हाँ सत्यार्थ प्रकाश,'' चानू ने अपने हैंडबैग से सत्यार्थ प्रकाश की प्रति निकाली और राष्ट्रपति को थमा दी, ''आप रख लीजिए मैं हवन करने वाले बाबा से और ले लूँगी।''
''कल गोल्डमेडल तुम्हीं जितोगी,'' राष्ट्रपति आगे बोले, ''मैंने पढ़ा है कि तुम्हारे भगवान हनुमानजी ने पहाड़ हाथों पर उठा लिया था, लेकिन कल यदि तुम्हारे मुकाबले हनुमानजी भी आ जाएँ तो भी तुम ही जितोगी... तुम्हारा भगवान भी हार जाएगा, तुम्हारे सामने कल।'' राष्ट्रपति ने वह किताब एक अधिकारी को देते फिर आदेश दिया, ''इस किताब को अनुसंधान के लिए भेज दो कि इसमें क्या है, जिसे पढ़ने के बाद इस लड़की में इतनी देशभक्ति उबाल मारने लगी कि अपनी ही धरती के चावल लाकर हमारे सबसे बड़े होटल में उबालकर खाने लगी।''
चानू चावल खा चुकी थी, उसमें एक चावल कहीं लगा रह गया, तो राष्ट्रपति ने उसकी प्लेट से वह चावल का दाना उठाया और मुँह में डालकर उठकर चलते बने। ''बस मुख से यही निकला, ''यकीनन कल का गोल्ड मेडल यही लड़की जितेगी, देवभूमि का अन्न खाती है यह।'' और अगले दिन मीराबाई ने स्वर्ण पदक जीत ही लिया, लेकिन किसी को इस पर आश्चर्य नहीं था, सिवाय भारत की जनता के। अमेरिका तो पहले ही जान चुका था कि वह जीतेगी, बीबीसी जीतने से पहले ही लीड़ खबर बना चुका था।
जीतते ही बीबीसी पाठकों के सामने था, जबकि भारतीय मीडिया अभी तक लीड खबर आने का इंतज़ार कर रही थी। इसके बाद चानू ने 196 किलोग्राम जिसमे 86 किलोग्राम स्नैच में तथा 110 किलोग्राम क्लीन एण्ड जर्क में था, का वजन उठाकर भारत को 2018 राष्ट्रमण्डल खेलों का पहला स्वर्ण पदक दिलाया। इसके साथ ही उन्होंने 48 किलोग्राम श्रेणी का राष्ट्रमण्डल खेलों का रिकॉर्ड भी तोड़ दिया। 2018 राष्ट्रमण्डल खेलों में विश्व कीर्तिमान के साथ स्वर्ण जीतने पर मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने उसे 15 लाख की नकद धनराशि देने की घोषणा की। 2018 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया।
यह पुरस्कार मिलने पर मीराबाई ने सबसे पहले अपने घर के लिए एक बैलगाड़ी खरीदी और बाबा के मन्दिर को पक्का करने के लिए एक लाख रुपए उन्हें गुरु दक्षिणा में दिए।
'वेद वृक्ष की छाँव तले' पुस्तक का एक अंश, लेखिका-फरहाना ताज़।