Visit Website
Logout
Welcome
Logout
Dashboard
Social Links
Advertisment
Add / Edit Category
Add News
All News
Newspaper
Book
Videos
Bottom Marquee
About
Sampadika
Contact
Change Password
Dashboard
News Edit
Edit News Here
News Title :
News title should be unique not use -,+,&, '',symbols
News Image:
Category:
अपनी बात
शख्सियत
साक्षात्कार
आयोजन
मैदानों से
ग्वालियर
राज्यों से
क्रिकेट
स्लाइडर
प्रतिभा
अंतरराष्ट्रीय
शिक्षा
Description:
विश्व रत्न भारत पुत्र मेजर ध्यानचंद को शत-शत नमन
हेमंत चंद दुबे बबलू
नवम्बर 1979 के अंतिम सप्ताह में मेजर ध्यानचंद का स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ने लगा था। परिजनों और स्नेहीजनों ने इस बात का निर्णय लिया कि अब मेजर ध्यानचंद को झांसी से नई दिल्ली बेहतर उपचार के लिए एम्स में भर्ती कराया जाए और इसी निर्णय के अनुसार दद्दा ध्यानचंद को परिजनों द्वारा रेल के साधारण डिब्बे से झांसी से नई दिल्ली एम्स लाया गया जहां उन्हें जनरल वार्ड में भर्ती करा दिया गया। उपचार के बावजूद दद्दा की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती चली गई और तीन दिसम्बर, 1979 को इस दुनिया से हाकी का जादूगर विदा हो गया।
इस दुखद समाचार को सबसे पहले एम्स के जूनियर डॉक्टर गजेंद्र सिंह चौहान ने मेजर ध्यानचंद के सुपुत्र ओलम्पियन अशोक कुमार को बताई। रुंधे गले से उन्होंने अशोक को बताया कि दुनिया के महानतम खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद अब नहीं रहे। जिस शख्स ने अपने जीवन में खेल के मैदान में कभी हार नहीं मानी आज वह अपने जीवन से हार कर हमें अलविदा कह गया है। डॉक्टर गजेंद्र सिंह चौहान और कोई नहीं बल्कि महाभारत सीरियल के यूधिष्ठिर की भूमिका निभाने वाले कलाकार हैं जिनसे मेजर ध्यानचंद के जीवन की यह दुखद अंतिम याद जुड़ी हुई है।
यह दुखद समाचार सुन अशोक कुमार स्तब्ध और अवाक रह गए। थोड़ी देर में अपने को संभालते हुए वह अस्पताल से दूर स्थित पूसा शव वाहन के प्रबंध के लिए एम्स से मोटर साइकिल से प्रस्थान कर कर गए। इस बीच मेजर ध्यानचंद की मृत्यु का समाचार जंगल में आग की तरह फैल गया। अशोक कुमार जब तक लौट के आते तब तक देखते हैं कि पूरा नजारा ही बदला हुआ था। एम्स कैम्पस मीडिया कर्मियों, खिलाड़ियों, शुभचिंतकों और अधिकारियों से भरा हुआ है। प्रख्यात कमेंटेटर शोकाकुल जसदेव सिंह अशोक कुमार को गले लगाकर हिम्मत देते हैं। इसी बीच परिजनों को यह सूचना दी जाती है कि मेजर ध्यानचंद के पार्थिव शरीर को नई दिल्ली से झांसी हेलीकॉप्टर से भेजे जाने का प्रबंध किया जा चुका है और इस प्रकार मेजर ध्यानचंद के शव को नई दिल्ली से झांसी हेलीकॉप्टर से लाया जाता है।
झांसी हवाई अड्डे पर उनके पार्थिव शरीर को उतारने के पश्चात उनके पैतृक निवास स्थान सीपरी बाजार की ओर ले जाने की व्यवस्था होती है। सड़क के दोनों किनारों पर हजारों हजार लोग सदी के महानायक को अंतिम विदाई देने खड़े रहते हैं क्योंकि संसार का सूरज ढल चुका था और धरती का चांद ध्यानचंद बन्द आंखों से अपनी रोशनी के साथ आसमान के चांद की रोशनी में जा मिला था। हिन्दू परम्परा अनुसार सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार सम्भव नहीं हो पाता अतः ध्यानचंद जी के पार्थिव शरीर को उनके सीपरी बाजार स्थित पैतृक निवास स्थान में रखा जाता है।
मेजर ध्यानचंद के अभिन्न मित्र तत्कालीन संसद सदस्य और मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित करवाने वाले पुरोधा पंडित विश्वनाथ शर्मा भी दिल्ली से झांसी रेल से पहुंच जाते हैं। वह परिजनों से चर्चा करने के बाद यह निर्णय लेते हैं कि मेजर ध्यानचंद का अंतिम संस्कार श्मशान घाट में न करके मेजर ध्यानचंद के निवास के समीप स्थित मेजर ध्यानचंद की कर्म और खेल भूमि हीरोज मैदान पर किया जाएगा। पंडित विश्वनाथ शर्मा के इस निर्णय से प्रशासनिक अधिकारी सहमत नहीं थे। पंडित विश्वनाथ शर्मा इस बात को लेकर वहां धरने पर बैठ गए। प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा इस बात की दलील दी जाती है कि सार्वजनिक स्थल पर अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दी जा सकती।
इस बात पर पंडित विश्वनाथ शर्मा ने जन समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि मैंने परिवार वालों से बात की और यह घोषित कर दिया कि ध्यानचंद का अंतिम संस्कार यहीं हीरोज ग्राउंड पर होगा। उन्होंने कहा कि गांधीजी, नेहरूजी आदि का संस्कार यदि सार्वजनिक स्थल पर हो सकता है तो फिर देश-दुनिया के महानतम खिलाड़ी ध्यानचंद का क्यों नहीं? ध्यानचंद जी का भी उतना ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व है जितना भारत के किसी महान नेता का। इस तर्क के आगे प्रशासनिक अधिकारी निरुत्तर हो गए और इसके साथ वहां उपस्थित जनसैलाब ने पंडित विश्वनाथ शर्मा की बात का समर्थन करते हुए मेजर ध्यानचंद की याद में गगनभेदी नारों से पूरे आसमान को गुंजायमान कर दिया।
उमड़ते जनसैलाब और जन भावनाओं को देखते हुए प्रशासनिक अधिकारियों ने आखिरकार हीरोज मैदान पर मेजर ध्यानचंद के अंतिम संस्कार की अनुमति प्रदान कर दी। मेजर ध्यानचंद ने केवल हॉकी नहीं खेली बल्कि उन्होंने अपने देश की संस्कृति और देश का मान भी अपने खेल कौशल से आगे बढ़ाया। 1936 बर्लिन ओलम्पिक खेलों का आयोजन तानाशाह हिटलर के नेतृत्व में हो रहा था जो दुनिया को यह जताना चाहता था कि उसकी नस्ल दुनिया की सर्वश्रेष्ठ नस्ल है जो किसी से परास्त नहीं हो सकती। ऐसी परिस्थितियों में 1936 में भारत का हॉकी फाइनल मैच जर्मनी से हुआ था। तब मेजर ध्यानचंद की टीम ने हिटलर के सामने ही जर्मनी को परास्त कर दुनिया को यह संदेश दिया था कि कोई भी नस्ल या रंग बड़ी नहीं होती वरन कौशल, विनम्रता और अपनी संस्कृति से कोई देश जाना-पहचाना जाता है। मेजर ध्यानचंद हिटलर के सामने यह सब इसलिए कर पाए क्योंकि वे उस धरती में पले-बढ़े और उस मातृभूमि का नेतृत्व करते थे जिसे भारत कहते हैं।
भारत पुत्र मेजर ध्यानचंद के निधन का दुखद समाचार सुनकर मोहन बागान क्लब कोलकाता की ओर से गुरबख्श सिंह भी अंतिम यात्रा में झांसी पहुंचे। उन्होंने दद्दा को श्रद्धासुमन अर्पित करने के साथ ही मोहन बागान क्लब की तरफ से पांच हजार रुपये की आर्थिक सहायता भी मेजर ध्यानचंद के परिजनों को प्रदान की। इसके पश्चात आर्मी द्वारा गार्ड ऑफ ऑनर देते हुए अपने महान सैनिक और राष्ट्र के गौरव ध्यानचंद को सलामी दी गई। मेजर ध्यानचंद के जेष्ठ पुत्र बृजमोहन सिंह द्वारा अपने महान पिता मेजर ध्यानचंद को मुखाग्नि दी गई। उपस्थित जनसैलाब ने नम आंखों से सदी के महानायक को अलविदा और अंतिम प्रणाम किया।
ध्यानचंद के हीरोज के साथी मथुरा प्रसाद, नन्हें लाल, जगदीश शरण माथुर, एडी बाबा, चटर्जी साहब, लल्लू शर्मा चाचा जी ने भारी मन से अपने जीवन के सबसे अच्छे मित्र और हीरोज के अपने खिलाड़ी को नमन किया। दद्दा के अवसान के कुछ वर्षों पश्चात झांसी निवासियों ने उसी स्थान पर मेजर ध्यानचंद की एक मूर्ति लगाने का निर्णय लिया और इस संबंध में सबसे ज्यादा सक्रियता मुरली मनोहर शर्मा, नरेंद्र अत्री, बिपिन बिहारी की रही जिन्होंने पंडित विश्वनाथ शर्मा के मार्गदर्शन और कुशल नेतृत्व में इस मिशन को पूरा करने के लिए दिन रात एक कर दिया। पंडित विश्वनाथ शर्मा ने स्वयं इस कार्य के लिए 13275 रुपए दिए। वहीं ध्यानचंद के चाहने वालों ने जिले भर के स्कूली छा-छात्राओं से एक एक रुपए एकत्रित किए और इस प्रकार समाज के सभी वर्गों से धन का संकलन करते हुए 48 567 एकत्रित किए गए।
झांसी रोटरी क्लब ने इस पूरे अभियान में अपना सहयोग देते हुए दद्दा की आदमकद प्रतिमा प्रदान की और फिर 23 सितम्बर, 1982 को झांसी आर्म्ड डिवीजन के जनरल क्लेयर ने पंडित विश्वनाथ शर्मा के साथ इस प्रतिमा का अनावरण किया। मैदान पर इस जमा राशि से दर्शकों के बैठने के लिए दर्शक दीर्घा का भी निर्माण कराया गया। किसी भी खेल मैदान पर किसी भी खिलाड़ी की लगने वाली यह दुनिया की पहली प्रतिमा है। हीरोज मैदान दद्दा के समाधि स्थल के नाम से विख्यात है। इसी प्रकार एक दद्दा की एक प्रतिमा हीरोज मैदान के समीप स्थित पहाड़ी पर लगाई गई है और यह वही पहाड़ी है जो मेजर ध्यानचंद की मेहनत और उनके ध्यानचंद बनने की कहानी बताती है। यही वह पहाड़ी है जिसने मेजर ध्यानचंद को रात-दिन झांसी हीरोज मैदान पर कड़ी मेहनत और अभ्यास करते हुए देखा है। पहाड़ी पर मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा वहां के पूर्व विधायक और सांसद प्रदीप जैन द्वारा लगवाई गई है।
जब वह हीरोज मैदान पर ओलम्पियन अशोक कुमार के साथ उस पहाड़ी को निहार रहे थे तब उन्होंने अपने स्वयं से एक संकल्प लेते हुए कहा था कि अशोक भाई यहां आने वाले समय में मैं इस पहाड़ी पर मेजर ध्यानचंद की एक प्रतिमा प्रतिस्थापित अवश्य करूंगा। श्री जैन ने अपने संकल्प को पूरा कर एक मिसाल कायम की है। आप जब भी रेल मार्ग से दिल्ली के लिए जाते हुए या दिल्ली से आते हुए दूर पहाड़ी पर नजर दौड़ाएंगे तो आपको मेजर ध्यानचंद पहाड़ी से अपने स्वर्णिम इतिहास को लिए हुए दिखलाई पड़ जाएंगे और आपका शीश उनके सम्मान में अपने आप ही झुक जाएगा। मेजर ध्यानचंद अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी कलात्मक हाकी आज भी अमर है।