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चमकने से पहले ही बुझ गए उम्मीदों के चिराग
श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर। खेलों में सुनहरा करियर है लेकिन भारत जैसे देश में खिलाड़ी बनना बहुत कठिन काम है। खेल संस्कृति का अभाव और खराब सिस्टम खिलाड़ियों का न केवल मनोबल तोड़ता है बल्कि उन्हें असमय ही खेलों से नाता तोड़ लेने को भी मजबूर कर देता है। देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन देश की कुछ महिला खिलाड़ियों को हालात और मजबूरी ने खेल से दूर कर दिया है। अब वे खेल छोड़कर अलग-अलग तरह के काम करने को मजबूर हैं। काश इन खिलाड़ी बेटियों की मजबूरी पर ध्यान दिया गया होता।
हम सबसे पहले बात करते हैं भारतीय तीरंदाजी सर्किट में अपनी चमक बिखेरने वाली झारखंड की निशा रानी की, जिसे गरीबी से तंग आकर अपना धनुष बेचना पड़ा। जमशेदपुर जिले के पथमादा गांव की निशा बेटी तीरंदाजी में देश का लम्बे समय तक गौरव बढ़ाने का सपना देखती थी लेकिन गरीबी ने उसके सारे सपने जमींदोज कर दिए। निशा बताती है कि वह एक गरीब घर की बेटी है। उसका घर मिट्टी से बना खस्ता हालत में है। जिसे दुरुस्त कराने को उसके पास पैसे नहीं हैं। गरीबी से तंग आकर मुझे अपना बेशकीमती धनुष बेचना पड़ा जो उसे कोरियाई कोच ने उसके टैलेंट से प्रभावित होकर गिफ्ट किया था। निशा की मजबूरी देखिए कि उसे चार लाख रुपए का धनुष मणिपुर की एक उभरती प्रतिभा को 50 हजार रुपए में बेचना पड़ा। निशा की ही तरह हमारे देश में कई खिलाड़ी बेटियों को गरीबी का दंश झेलते-झेलते खेलों से विदा लेना पड़ा।
झारखंड के खूंटी जिले से ताल्लुक रखने वाली नोरी एक समय राष्ट्रीय हॉकी टीम का जाना-पहचाना नाम थी। नोरी ने 1996 में नेहरू गर्ल्स हॉकी टूर्नामेंट में कांस्य पदक हासिल किया था। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उसे सम्मानित भी किया था। 1997 में नोरी ने नेशनल सीनियर गेम्स चैम्पियनशिप में सिल्वर मेडल जीता और वह 19 बार राष्ट्रीय हॉकी टीम से खेली। लेकिन इस शानदार हॉकी खिलाड़ी को खेल से पैसा नहीं मिला और जीविका चलाने के लिए उसे शिक्षक की नौकरी करनी पड़ी।
निशा और नोरी की ही तरह उत्तर प्रदेश की मीनाक्षी रानी 1996 और 1998 में राष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल जीतकर सुर्खियों में आई थी। मीनाक्षी ने एशियन जूनियर और सीनियर चैम्पियनशिप में कांस्य पदक हासिल किए थे। सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन 2011 में एक दुर्घटना ने मीनाक्षी के पति की जान ले ली। वह खुद भी गंभीर रूप से घायल हो गई थी। आज यह महिला खिलाड़ी गरीबी से जूझ रही है। सरकार ने नौकरी का आश्वासन तो कई बार दिया लेकिन आज तक उसे नौकरी नहीं मिली।
1980 के दशक में कबड्डी की तीन राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खेलने वाली शांति ने शानदार प्रदर्शन किया था। शांति ने नेशनल कबड्डी लीग में सिल्वर मेडल जीता था। घर-परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर खेलती रहीं लेकिन सरकार की तरफ से कुछ नहीं मिला। 40 साल से ज्यादा उम्र की शांति को परिवार के तंग हालात ने सड़क पर ला दिया। पति का साया भी सिर से उठ गया। कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। अब वह अपने चार बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए जमशेदपुर के बाजार में सब्जियां बेचकर बमुश्किल गुजारा कर रही है।
मध्य प्रदेश के रीवा जिले की रहने वाली सीता साहू ने एथलेटिक्स में खूब शोहरत हासिल की थी। घरेलू प्रतियोगिताओं में भी धावक सीता का प्रदर्शन शानदार रहा। प्रदेश सरकार ने सीता साहू को मदद के बड़े-बड़े दावे तो किए लेकिन हकीकत में कुछ नहीं हुआ। परिवार पहले से गरीब था। अब सीता और उसके छह सदस्यों वाले परिवार के सामने खाने के लाले पड़ गए हैं। वह इन दिनों गोल-गप्पे बेचकर अपना और अपने परिवार का पेट पाल रही है। सीता अब यही कहती हैं कि केवल मेडल से जीवन नहीं चलता। सरकार की कथनी और करनी में बड़ा अंतर होता है।
तमिलनाडु के कत्थाकुची गांव में रहने वाली शांति सुंदराजन ने 2006 दोहा एशियन गेम्स में भारत के लिए सिल्वर मेडल हासिल किया था। तब करुणानिधि सरकार ने उसे 15 लाख रुपए की भूमि ईनाम में देने का ऐलान किया था लेकिन 800 मीटर की एक दौड़ के बाद वह जेंडर टेस्ट में फेल हो गई और उसका सबकुछ बदल गया। उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उसके बाद वह कभी किसी रेस में दौड़ नहीं पाई। अब वह एक ईंट के भट्टे में काम करती है। उसके माता-पिता भी उसी भट्टे में मजदूर हैं। पहले वह कोचिंग में बच्चों को एथलेटिक्स सिखाती थी। वहां उसको महीने में पांच हजार रुपए मिलते थे। एक बार इस खिलाड़ी ने डीएम से चपरासी की नौकरी देने की भी मांग की लेकिन उसको नौकरी नहीं मिली।
उड़ीसा की रहने वाली रश्मिता के पिता मजदूर थे लेकिन रश्मिता ने हार नहीं मानी। इस फुटबॉल खिलाड़ी ने 2008 में कुआलालम्पुर में भारत की ओर से एशियन फुटबॉल कन्फेडरेशन में बतौर अंडर-16 टीम सदस्य भागीदारी की थी। अंडर-19 टीम में रहते हुए रश्मिता ने उड़ीसा में आयोजित राष्ट्रीय महिला फुटबॉल प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन किया था। कई पुरस्कार जीते और खूब नाम भी कमाया, मगर परिवार कर्ज में डूबा था। खाने की परेशानी थी। परिवार ने उसका विवाह कर दिया। अब वह फुटबॉल छोड़कर सुपारी की दुकान चलाती है।
पश्चिम बंगाल के सिंगूर की रहने वाली आशा ने 2009 में नेशनल ओपन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में सिल्वर मेडल जीता। इसी साल में उसने इंडो-बांग्ला इंटरनेशनल मीट के दौरान 100 मीटर दौड़ में गोल्ड मेडल हासिल कर देश का मान बढ़ाया था। आशा हमेशा भारत की तेज धावकों में शुमार रही लेकिन उसके परिवार पर ऐसी विपदा आई कि उसे दो वक्त का खाना भी बमुश्किल मिल पाया। आखिरकार उसे खेलों से नाता तोड़ना पड़ा।
गुजरात में है पाटन डिस्ट्रिक्ट। वहां की एक एथलीट है काजल परमार। स्टेट और नेशनल लेवल पर 44 मेडल्स जीत चुकी है, लेकिन गरीबी की वजह से उसको अपने सारे मेडल और सर्टिफिकेट बेचने पड़ रहे हैं। काजल का परिवार बहुत गरीब है। परिवार में छह लोग हैं। कमाने वाले सिर्फ उसके पिता हैं। वो भी किसी और के खेत में मजदूरी करते हैं। काजल को हमेशा से स्पोर्ट्स से लगाव रहा। उसके पापा ने भी उसको हमेशा सपोर्ट किया। काजल भाला फेंक, गोला फेंक और डिस्कस थ्रो में दुनिया में भारत का नाम रोशन करना चाहती थी और हमेशा अपने खेल में बहुत अच्छा परफॉर्म करती थी। लेकिन अब घर की हालत बहुत खराब है। काजल का कहना है उसने सरकार को कई बार चिट्ठियां लिखीं, कई अर्जियां दीं लेकिन न कोई जवाब आया न ही कोई मदद मिली। आप की नजर में भी यदि कोई ऐसी खिलाड़ी बेटी है तो खेलपथ को 9627038004 जरूर सूचित करें।