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हर पल रहता खतरा ही खतरा
श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर। बेटियों को हर क्षेत्र में मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ता है। खेल का क्षेत्र तो इनके लिए और भी मुश्किल है। हम जिन प्रशिक्षकों और खेलनहारों को पिता-तुल्य मानते हैं, उनमें लगभग 25 फीसदी की नजरों में शैतान पलता है। हमने यह आलेख देश की लगभग दो दर्जन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों से बात करने के बाद लिखने की हिम्मत जुटाई है। खिलाड़ियों से बातचीत में कई बातें ऐसी भी सामने आईं जिनको सुनकर मन व्यथित हुआ और लगा कि ऐसे हालातों में बेटियां आखिर खेलें भी तो कैसे?
दरअसल, हमारी बेटियां मेडल, ट्रॉफी, नाम और शोहरत, सब कुछ मैदानों में घंटों की मेहनत और लगन के बाद ही हासिल कर पाती हैं। कामयाबी भी सैकड़ों में कुछ एक को ही नसीब होती है, इसके लिए भी उन्हें कई कॉम्प्रोमाइज करने पड़ते हैं। यह कॉम्प्रोमाइज बेटियां खुशी से नहीं करतीं बल्कि उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता है। कई लड़कियों को कॉम्प्रोमाइज करने के लिए मेंटली टॉर्चर किया जाता है। यह सब लगभग हर खेल में चल रहा है। खेल संगठनों के पदाधिकारियों से प्रशिक्षकों की करतूतों पर नकेल कसने की बात पर उनका यह कहना कि यह हमारे परिवार का मामला है, यही साबित करता है कि खिलाड़ियों के शोषण में इनका भी बराबर का हाथ होता है।
लाख मुसीबतों के बाद भी यदि बेटियां शोहरत हासिल करती हैं तो उन्हें शाबासी क्यों न मिले। हम पिछले तीन एशियाई खेलों पर नजर डालें, तो इस दौरान महिला खिलाड़ियों ने काफी संख्या में पदक जीते हैं। रियो ओलम्पिक में तो बेटियों ने ही मुल्क की नाक कटने से बचाई थी। आंकड़ों पर नजर डालें तो 2010 के एशियाई खेलों में महिला खिलाड़ियों ने 64 में से 21 पदक हासिल किए थे जो कुल पदकों का 32 प्रतिशत थे। इसी तरह 2014 में भारतीय बेटियों ने 57 में से 28 पदक हासिल कर सफलता का ग्राफ 49 फीसदी तक पहुंचा दिया। 2018 में महिला खिलाड़ियों ने अपने शानदार प्रदर्शन को जारी रखते हुए कुल 69 पदकों में से 31 पदक जीत मादरेवतन का मान बढ़ाया। खेलों में महिला खिलाड़ियों द्वारा पदक हासिल करना पुरुष खिलाड़ियों के मुकाबले ज्यादा बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि बेटियां सरकारी मशीनरी की अवहेलना के साथ कई तरह की अन्य चुनौतियों का भी सामना करती हैं।
खिलाड़ी बेटियों की पहली चुनौती तो यही है कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका आज भी उन्हें खिलाड़ी के रूप में आसानी से स्वीकार नहीं करता। इसलिए उनके साथ कोई सहयोग करना तो दूर, उलटे यह कहकर उनका मनोबल ही तोड़ता है कि खेलना-कूदना तो सिर्फ लड़कों का काम है। ऐसे में कोई लड़की यदि अपने प्रयासों से खेल की दिशा में आगे बढ़ती भी है, तो सबसे पहले उसे अपने परिवार और रिश्तेदारों के असहयोग और उनकी नकारात्मक सोच का सामना करना पड़ता है। दूसरा, भारतीय समाज में अब भी एक बड़ा हिस्सा है जिसमें लड़कियों को लड़कों की अपेक्षा कम पौष्टिक खान-पान दिया जाता है। इसका नकारात्मक असर उनके स्टैमिना और सेहत दोनों पर पड़ता है। ऐसे में यदि कोई लड़की परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर किसी खेल में खुद को झोंकती है, तो शारीरिक दुर्बलता से निपटना ही उसके लिये एक बड़ा संघर्ष बन जाता है।
परिवार में यदि कोई लड़का खेल की दुनिया में जाने की तैयारी करता है तो अक्सर ही उसकी पौष्टिकता और उसके स्टैमिना का ख्याल करके उसकी खुराक बढ़ा दी जाती है। यदि परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर हो तो भी पूरे परिवार के बजट में कटौती करके, खिलाड़ी बनने जा रहे लड़के की खुराक का ध्यान रखा जाता है। पूरा परिवार एकजुट होकर लड़के की सेहत और उसका स्टैमिना बढ़ाने की जिम्मेदारी निभाता है। लेकिन किसी लड़की के खिलाड़ी बनने पर ठीक इसके उलट उसके खाने में पहले जैसी ही लापरवाही बरती जाती है। लड़कियों के लिये अपनी स्थाई शारीरिक कमजोरी से लड़ने के लिये नियमित रूप से ज्यादा सेहतमंद खाना जुटाना ही एक बहुत बड़ी बाधा है जो सबसे पहले उसका परिवार ही उसके सामने खड़ी करता है। पुरुष खिलाड़ी तो जानते तक नहीं कि खिलाड़ी बनने में ऐसी भी किसी दिक्कत का सामना करना पड़ता है।
महिला खिलाड़ियों के साथ एक अन्य दिक्कत प्रशिक्षकों की उपलब्धता से जुड़ी है। जैसे ही घर वालों को पता चलता है की उनका बेटा किसी खेल में जाना चाहता है तो वे अक्सर ही अपनी सामर्थ्य अनुसार उसके लिये अच्छे कोच को ढूंढ़ते हैं लेकिन खिलाड़ी बेटियों के लिए ऐसा बहुत कम किया जाता है। शुरुआत में अक्सर ही उन्हें इधर-उधर से अपना खेल सम्बन्धी ज्ञान बटोर कर अकेले ही बिना किसी मार्गदर्शन के प्रैक्टिस करनी पड़ती है। हां, यदि वे अपनी मेहनत और किस्मत के दम पर शुरू में ही कोई पदक या ईनाम जीत लेती हैं, तब घर-परिवार ही नहीं हमारा समाज भी अपने अल्प योगदान को भी कुबेर का खजाना लुटाने जैसा मानने लगता है। सच यह है कि खेलों में मुकाम हासिल करने के लिए खिलाड़ी बेटी को पहले खुद को एक स्तर तक साबित करना होता है कि उसमें प्रतिभा के साथ खेल के प्रति बेहद संजीदगी भी है।
बेटियां घर-परिवार और समाज की अनगिनत दिक्कतों से पार पाने के बाद जब मैदान में उतरती हैं, तो उन्हें कई बार लिंगभेदी और यौन शोषण वाली स्थितियों से भी दो-चार होना पड़ता है। प्रशिक्षकों द्वारा यौन शोषण, शारीरिक गठन को लेकर भद्दे कमेंट्स, टीम में चुनाव के लिये योग्यता के बजाय कोच या किसी अधिकारी के साथ सम्बन्ध बनाने के दबाव और ऐसे ही अन्य बहुत से दिल को तोड़ देने वाले अनुभवों से खिलाड़ी बेटियों को गुजरना पड़ता है। दरअसल, हमारी खिलाड़ी बेटियों के पास यौन शोषण या लिंगभेदी व्यवहारों से लड़ने का कोई अच्छा विकल्प नहीं होता क्योंकि यदि वे कहीं कोई शिकायत दर्ज भी कराती हैं तो यह तय है कि उसके बाद उसका खेल पाना लगभग असम्भव हो जाएगा। यही वजह है कि हमारे देश की अधिकांश खिलाड़ी बेटियां अपनी आवाज मुखर न करते हुए सब तरह का संत्रास झेलती रहती हैं।
देखा जाए तो भारत की अधिकांश खिलाड़ी बेटियां खेलों को अलविदा कहने के बाद ही अपनी आपबीती सुना पाती हैं। इस पर भी समाज का तंज यह कि उन्होंने पहले क्यों नहीं बताया? इसकी मुख्य वजह समाज में बदनामी का डर और खेलनहारों की वह अनुशासनात्मक छड़ी है, जिसके चलते खिलाड़ी का सारा करियर जमींदोज हो जाता है। कुछ साल पहले पूर्व भारतीय महिला फुटबॉल कप्तान सोना चौधरी ने अपनी पुस्तक गेम इन गेम में फुटबॉल मैनेजमेंट पर सनसनीखेज आरोप लगाए थे। सोना के मुताबिक कोच-सेक्रेटरी समेत मैनेजमेंट से जुड़े लोग लड़कियों का शोषण करते हैं।
मुश्किल हालातों से बेटियों को न गुजरना पड़े इसके लिए हमारे देश में कोई सिस्टम नहीं है। कहने को खेलों के आयोजनों में बेटियों के साथ महिलाओं का जाना जरूरी है लेकिन खेलनहारों की शह पर इस नियम-कानून की खुलकर धज्जियां उड़ाई जाती हैं। खुशी की बात है कि लाख तकलीफों के बाद भी आज हमारी खिलाड़ी बेटियां समाज के लिए रोल मॉडल बन रही हैं। महिला खिलाड़ियों की सफलता दर सफलता निश्चित तौर पर समाज की सोच बदलने में सहयोग करेगी और मुझे उम्मीद है कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब हमारे खेलतंत्र से निकृष्ट लोगों की विदाई भी होगी।