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समन्वित प्रयासों का अभाव, मैदान बिना कहां खेलें खिलाड़ी
खेल संघों में अनाड़ियों का राज
श्रीप्रकाश शुक्ला/नूतन शुक्ला
कानपुर। उत्तर प्रदेश के सबसे बड़ी आबादी वाले शहर कानपुर में खेलों की स्थिति का सतही मूल्यांकन करें तो दुख होने के साथ ही निष्क्रिय खेल विभाग और अपनी ढपली, अपना राग अलापते खेल संघों पर गुस्सा आता है। यहां के जो भी खिलाड़ी राष्ट्रीय खेल पटल पर अपनी प्रतिभा दिखा रहे हैं वह सब अभिभावकों के प्रोत्साहन और कुछ खेल प्रशिक्षकों की जीतोड़ मेहनत का नतीजा है। इस साल गुवाहाटी में हुए तीसरे खेलो इंडिया यूथ गेम्स में कानपुर के खाते में सिर्फ दो पदक आना ताली पीटने की बजाय बेहद शर्म की बात है। भला हो सारिका और स्वाती यादव का जिनके दम पर बमुश्किल कानपुर की नाक कटने से बच पाई।
पिछले ओलम्पिक में शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक ने जहां भारत की लाज बचाई थी वहीं खेलो इंडिया यूथ गेम्स में जूडोका सारिका और वेटलिफ्टर स्वाती यादव के चांदी के पदकों से किसी तरह से कानपुर की इज्जत बच पाई। इन खेलों में महाराष्ट्र 78 स्वर्ण, 77 रजत और एक कांस्य पदक के साथ कुल 256 पदकों के साथ पदक तालिका में शिखर पर रहा। हरियाणा 68 स्वर्ण, 60 रजत, 72 कांस्य सहित 200 पदकों के साथ दूसरे तो दिल्ली तीसरे, कर्नाटक चौथे तथा उत्तर प्रदेश 29 स्वर्ण, 28 रजत तथा 30 कांस्य पदक सहित कुल 87 पदकों के साथ पांचवें स्थान पर रहा। जनसंख्या के लिहाज से सबसे अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश का पांचवें पायदान पर रहना इस बात का सूचक है कि हमारा खेल तंत्र कागजों में खेल रहा है तो खेल संघों के पदाधिकारी अपनी कुर्सी सही सलामत रखने में दिलचस्पी ले रहे हैं।
देश में खेलों की जब भी बात होती है कानपुर को खेलप्रेमी सिर्फ ग्रीनपार्क की क्रिकेट मेजबानी को लेकर याद करते हैं। देखा जाए तो इस मैदान के तीन चौथाई हिस्से पर उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन का कब्जा है लेकिन कानपुर का कोई क्रिकेटर किसी आयु वर्ग की टीम में नहीं होना कई सवाल खड़े करता है। खेलों को लेकर जहां हमारे समाज में जागरूकता आई है वहीं कानपुर में खेल मैदानों के अभाव और खेल संघों के बेसुरे राग के चलते प्रतिभाएं अपने श्रेष्ठ कौशल से वंचित हैं। खेल युवा पीढ़ी के सर्वांगीण विकास में टानिक का काम करते हैं। खेल इंसान के जीवन में शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण कारक हैं लेकिन समन्वित प्रयासों के अभाव में इसका लाभ कानपुर की प्रतिभाओं को नहीं मिल पा रहा है। खेलों को लेकर स्कूल-कालेजों की कार्यशैली भी रस्म-अदायगी के सिवाय कुछ भी नहीं है।
खेलों के बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन में बसता है। इसका अर्थ है कि जीवन में आगे बढ़ने और सफलता प्राप्त करने के लिए तंदुरुस्त शरीर में एक स्वस्थ मन का होना बहुत ही जरूरी है। किसी भी महत्वपूर्ण लक्ष्य को प्राप्त करने तथा उस पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए मानसिक और बौद्धिक स्वास्थ्य का होना बहुत आवश्यक है। खेलों से आत्मविश्वास और अनुशासन का भाव पैदा होता है लेकिन कानपुर का समूचा खेलतंत्र खेलों से खिलवाड़ का हिमायती है। पिछले एक महीने में खेलपथ के माध्यम से हमने कानपुर की खेल-नब्ज पर हाथ रखने की कोशिश की, कई पुराने और नवोदित खिलाड़ियों के कौशल को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया लेकिन खेलों के समूचे वातावरण और खेलप्रेमियों के कथ्य बेहद चौंकाने वाले हैं। अतीत की बात करें तो कानपुर ने एक से बढ़कर एक खिलाड़ी उत्तर प्रदेश को दिए हैं लेकिन यहां की वर्तमान स्थिति काफी चिन्ताजनक है।
यहां खेलों में शून्यता की मुख्य वजह खेल संगठनों और शिक्षा तथा खेल विभाग के बीच आपसी समन्वय का न होना है। यहां खेल मैदान नहीं हैं तो जहां मैदान हैं वहां खेल प्रशिक्षकों का अभाव है। कानपुर में खेलों की खस्ताहाल स्थिति पर खेलपथ ने महानगर के खेलप्रेमियों, खेल संघ पदाधिकारियों तथा कुछ खिलाड़ियों से बात की जिससे पता चला कि यहां खेल संस्कृति का जनाना वही लोग निकाल रहे हैं जिन पर खेलों के विकास की महती जवाबदेही है।
कानपुर में खेलों की दुर्दशा पर डॉ. अजय कुमार सिंह का कहना है कि यहां खिलाड़ियों को प्रैक्टिस के लिए प्रतियोगिता अनुसार खेल मैदान नहीं मिल पाते तो सुयोग्य खेल प्रशिक्षकों का भी अभाव है। प्रदेश में अंशकालिक प्रशिक्षक होने की वजह से वे कोचिंग में ध्यान नहीं दे पा रहे क्योंकि उन्हें घर-परिवार का भरण-पोषण करने के लिए समय से वेतन नहीं मिलता, साथ में नौकरी 9-10 महीने की होने के कारण वे खेल अधिकारियों की ही गणेश-परिक्रमा करते देखे जाते हैं। डॉ. सिंह कहते हैं कि यहां खिलाड़ियों को लेटेस्ट कोचिंग कौशल सिखाने के लिए समय से खेल सामग्री भी नहीं मिल पाती। इन मूलभूत समस्याओं के चलते कानपुर की खेल प्रतिभाएं समय से पहले ही खेलों से नाता तोड़ लेती हैं।
उत्तर प्रदेश ओलम्पिक संघ से जुड़े रजत दीक्षित का कहना है कि कानपुर में खेल निदेशालय का ग्रीनपार्क ही एकमात्र मैदान है। श्री दीक्षित कहते हैं कि देखा जाए तो लखनऊ से कानपुर की आबादी डेढ़ गुना अधिक है लेकिन यहां पर्याप्त मैदान नहीं हैं। जो भी हैं वह निजी लोगों के हैं लिहाजा खिलाड़ियों को अभ्यास के मौके उनकी मर्जी से ही मिल पाते हैं। श्री दीक्षित का मानना है कि कानपुर में खेल निदेशालय की तरफ से अभी कम से कम दो मैदान और होने चाहिए। दो मैदानों के होने से ही कानपुर को एथलेटिक्स ट्रैक की सौगात मिल सकती है। कानपुर में एथलेटिक्स ट्रैक न होने से यहां राष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिताएं नहीं हो पा रही हैं। श्री दीक्षित का कहना है कि कानपुर के जनप्रतिनिधियों को भी खेलों के विकास के लिए पहल करनी चाहिए।
खो-खो खेल संघ से जुड़े अजय शंकर दीक्षित का कहना है कि यहां गिरते खेलों की मुख्य वजह खिलाड़ियों पर पढ़ाई का बोझ और रोजगार का अभाव होना है। श्री दीक्षित कहते हैं कि कानपुर में जनसंख्या के हिसाब से क्रीड़ांगन नहीं हैं, जो हैं भी उन पर लोगों ने अतिक्रमण कर रखा है। दीक्षित कहते हैं कि खेल संघों में वर्चस्व की लड़ाई, इच्छा-शक्ति की कमी तथा निष्क्रिय लोगों का कब्जा, नए उत्साही लोगों को अवसर न मिलना, जिन्हें अवसर मिले भी उन्हें अनुभवी लोगों का सहयोग न मिलना कानपुर में गिरते खेलों के स्तर का प्रमुख कारण हैं। श्री दीक्षित कहते हैं जिन खेल संगठनों के पास पैसा है उनकी खेलों में रुचि नहीं है तथा कुछ खेल संगठनों पर अकुशल लोगों का कब्जा खिलाड़ियों का मनोबल तोड़ रहा है। कुल मिलाकर कानपुर में टीम एकजुटता के अभाव में खेल दम तोड़ रहे हैं। श्री दीक्षित कहते हैं कि खेल तथा शिक्षा विभाग और खेल संघों में आपसी समन्वय न होने से भी यहां खेल संस्कृति पल्वित-पोषित नहीं हो पा रही है। खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने वालों का भी कानपुर में बेहद अभाव है।
सुबोध शुक्ला का कहना है कि कानपुर महानगर में ग्रीनपार्क को छोड़ दो तो फुटबाल का मैदान नहीं है, यहां फुल साइज हॉकी मैदान का अभाव है। एक स्वीमिंग पूल है जोकि महापालिका के कब्जे में है। और तो और यहां छोटे-मोटे खेल मैदान भी नहीं हैं। श्री शुक्ला दुखी मन से कहते हैं कि जो फूलबाग और बृजेन्द्र स्वरूप पार्क कभी बच्चों से भरे रहते थे, उनमें आज व्यावसायिक गतिविधियां परवान चढ़ने लगी हैं। सच कहें तो सिर्फ कागजों पर ही खेलो इंडिया है कानपुर में। श्री शुक्ला कहते हैं कि काकादेव कोचिंग मंडी के प्रचार ने खेलों के प्रथम मोटीवेटर माता-पिता के मन में यह विचार पैदा कर दिया है कि खेलों से क्या मिलेगा?
श्री शुक्ला कहते हैं कि हिन्दी माध्यम स्कूलों में कुछ कर्मठ अध्यापकों के पसीना बहाने से कुछ खेल हो भी रहे हैं वो भी बालिका स्कूलों में अन्यथा स्कूलों का खेलों में कोई योगदान नहीं है। यहां ज्यादातर खेल संगठन निष्क्रिय हैं जिनका प्रतियोगिताओं के आयोजन की खानापूर्ति करना ही मुख्य ध्येय होता है। कानपुर में खिलाड़ी खेल राजनीति का हिस्सा बनता है। यहां जो भी खेल चल रहे हैं वे सिर्फ पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों की वजह से। अफसोस की बात है पब्लिक स्कूलों के 98 फीसदी बच्चों में खिलाड़ी बनने की इच्छाशक्ति ही नहीं होती।
कानपुर में क्रिकेट को लेकर दीपांकर मालवीय कहते हैं कि यहां क्रिकेटरों के अभ्यास के लिए इंडोर प्रैक्टिस सुविधा नहीं है, ऐसे में बरसात के मौसम में खिलाड़ी अभ्यास से वंचित रहते हैं। कानपुर में खेलों की बदहाल स्थिति पर प्रीति पांडेय कहती हैं कि यहां खिलाड़ियों को कोई आर्थिक मदद देने वाला नहीं है। गरीब घरों के जो भी खिलाड़ी मैदान तक आते हैं उनके पास पर्याप्त खान-पान की सुविधा नहीं होती। मैदानों में सुविधाएं नहीं हैं तो खिलाड़ियों को अभ्यास के लिए आधुनिक खेल उपकरण भी नहीं मिल पाते। प्रीति पांडेय भी मानती हैं कि कानपुर में खेलों के विनाश का प्रमुख और बड़ा कारण खेल संगठनों की गंदी राजनीति है।
देखा जाए तो प्रदेश में खेलों के विकास का झूठा दम्भ भरने वाला खेल विभाग ही खेलों की दुर्दशा का प्रमुख कारण हैं। विभाग द्वारा सिर्फ कागजों में ही खेल कार्यक्रमों के विकास एवं खिलाड़ियों के खेल में निखार लाने के लिए योजनायें कार्यान्वित की जा रही हैं। देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में वर्ष 1974 खेल संचालनालय अस्तित्व में आया है। 46 वर्षों के इसके कामकाज को देखें तो यह अधिकांश समय कागजों में ही खेला है। खेल विभाग द्वारा प्रदेश के विभिन्न जनपदों में आवश्यक अवस्थापना सुविधाएं मुहैया कराने की बातें तो कम से कम कानपुर को देखकर बेमानी ही साबित हो रही हैं। प्रशिक्षण, प्रतियोगिता आयोजन एवं अन्य योजनाओं के संचालन हेतु खेल विभाग अपने सहयोगी शिक्षा विभाग, युवा कल्याण विभाग, स्वायत्तशासी खेल संघों से आज तक तालमेल नहीं बना पाया है। जिस प्रदेश में खेल प्रशिक्षकों को तवज्जो न मिल रही हो वहां खेलों के विकास की बात करना भी बेवकूफी है। उम्मीद थी कि योगी सरकार खेलों के विकास में कुछ नया करेगी लेकिन वह उनींदे अकर्मण्य खेल तंत्र को जगाने और उसमें स्फूर्ति लाने में अब तक असफल ही साबित हुई है।