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शाइनी विल्सन के साथ भी दौड़ीं, बच्चों को बनाया खिलाड़ी
नूतन शुक्ला
कानपुर। बात खेल की हो या किसी दीगर क्षेत्र की यदि इंसान में कुछ करने की इच्छाशक्ति हो तो वह न केवल अपने लक्ष्य हासिल कर सकता है बल्कि इसके लिए अपने आसपास के लोगों को भी प्रेरित कर सकता है। गुंजन श्रीवास्तव जहां 1990 के दशक में खेलों में कंचन की तरह चमकीं वहीं अब वह अपने व्यापार का सफल संचालन कर रही हैं। गुंजन चूंकि अपने समय में शानदार एथलीट रही हैं सो उन्होंने अपने बच्चों को भी खेल के क्षेत्र में नाम रोशन करने को प्रेरित किया।
देखा जाए तो कोई भी काल रहा हो महिलाएं पुरुषों से आगे नहीं तो कमतर कभी भी नहीं रहीं। 1990 के दशक में जब खेल के क्षेत्र में नारीशक्ति को मैदानों में स्वच्छंद विचरण करने की अनुमति नहीं थी उस वक्त गुंजन श्रीवास्तव ने न केवल खेलने का मन बनाया बल्कि जिन भी खेलों में हिस्सा लिया, उन खेलों में सफलता भी हासिल की। गुंजन श्रीवास्तव ने अपने खेल का सफर 1986 में शुरू किया। उस वक्त वह उन्नाव जनपद से खेलों में प्रतिभागिता करती थीं। दो साल के कड़े प्रशिक्षण के बाद 1988 में गुंजन ने लम्बीकूद में लखनऊ मण्डल में तीसरा स्थान हासिल किया। तब शानदार लांगजम्पर गुंजन को पारितोषिक बतौर 120 रुपये की स्कालरशिप भी मिली थी।
खेलों से लगाव होने और उन्नाव में पर्याप्त खेल सुविधाएं व काबिल प्रशिक्षक न होने के चलते 10वीं के बाद गुंजन श्रीवास्तव ने कानपुर के जुहारी देवी बालिका इंटर कालेज में दाखिला लिया। यहां इन्होंने अपने खेल की शुरुआत हैण्डबाल से की। गुंजन का लगाव चूंकि एथलेटिक्स से था सो इन्होंने डीएवी कालेज मैदान में एथलेटिक्स प्रशिक्षक दिनेश भदौरिया से मुलाकात की। श्री भदौरिया ने गुंजन की प्रतिभा को कुछ इस तरह से तराशा कि वह देखते ही देखते एक सफल एथलीट के रूप में पहचानी जाने लगीं।
गुंजन श्रीवास्तव की प्रतिभा और जज्बे को देखते हुए इन्हें 1990 में पहली बार राज्यस्तर पर खेलने का अवसर मिला लेकिन उन्हें मेडल जीतने में सफलता नहीं मिली। इसी साल गुंजन हैण्डबाल में भी राज्यस्तर तक खेलने में सफल रहीं। 1990 की असफलता से सीख लेते हुए गुंजन श्रीवास्तव ने 1991 में 200 और 400 मीटर दौड़ों के अलावा लम्बीकूद में स्वर्णिम सफलता हासिल कर व्यक्तिगत चैम्पियनशिप जीतकर समूचे कानपुर को गौरवान्वित किया। गुंजन को 1992 में आल इंडिया एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में उस समय की सर्वश्रेष्ठ इंटरनेशनल धावक शाइनी विल्सन के साथ दौड़ने का अवसर मिला। यह गुंजन श्रीवास्तव के जीवन का सबसे अविस्मरणीय पल था। गुंजन श्रीवास्तव 1991 से 1995 तक कानपुर विश्वविद्यालय की सर्वश्रेष्ठ एथलीटों में शुमार थीं। इस दौरान वह राज्य और राष्ट्रीयस्तर पर दर्जनों मेडल जीतकर सबकी चहेती बनीं।
खेलपथ से बातचीत में गुंजन बताती हैं कि मैंने अपनी मां के प्रोत्साहन से खेलों में कदम रखा था। मेरी सारी सफलाओं का श्रेय सिर्फ दिनेश भदौरिया सर को जाता है। गुंजन खेल और पढ़ाई दोनों क्षेत्रों में अव्वल रहीं। गुंजन श्रीवास्तव ने 1996 में जबलपुर के रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से बीपीएड किया और सबसे अधिक अंक हासिल किए। गुंजन कहती हैं कि खेलों में हिस्सा लेने वाली महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा अधिक परेशानियों का सामना करना होता है। वह घर-परिवार और समाज की फब्तियों का जहां शिकार होती हैं वहीं खेल मैदानों में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। लाख दिक्कतों और चुनौतियों को स्वीकारने के बाद भी यदि कोई महिला खिलाड़ी राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर अपने कौशल का शानदार प्रदर्शन करे तो उसे शाबासी मिलनी चाहिए क्योंकि वह उस युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करती है जिसे हमारा समाज अबला या बेचारी कहकर सम्बोधित करता है। अपने खेलजीवन के अनुभवों को बताते हुए वह कहती हैं कि हमारे समय में बेटियों के लिए खेल क्षेत्र में काफी चुनौतियां थीं। मैं चाहती हूं कि युवा पीढ़ी शिक्षा के साथ-साथ खेलों में भी रुचि ले ताकि वह बड़ा खिलाड़ी न भी बन सके तो अच्छा इंसान जरूर बन जाए।