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अब करती हैं अपने इंटर कालेज का संचालन
मनीषा शुक्ला
कानपुर। भारत एक ऐसा देश है जहां सनातन समय से पुरुष वर्ग को सर्वोपरि समझा गया। कोई भी समाज हो नारीशक्ति के बिना अधूरा है। हम पति-पत्नी को एक गाड़ी के दो पहिए तो कह देते हैं लेकिन उसकी सफलता का गुणगान करने में प्रायः हमें संकोच होता है। कोई भी काल रहा हो महिलाएं पुरुषों से आगे नहीं तो कमतर भी नहीं रहीं। 1980 के दशक में जब खेल के क्षेत्र में नारीशक्ति का अधिक बोलबाला नहीं था उस वक्त नीना पांडेय ने न केवल खेलने का मन बनाया बल्कि जिन भी खेलों में हिस्सा लिया, उन खेलों में सफलता के झंडे भी गाड़े।
यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि खेलों में हिस्सा लेने वाली महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा अधिक परेशानियों का सामना करना होता है। वह घर-परिवार और समाज की फब्तियों का जहां शिकार होती हैं वहीं खेल मैदानों में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। लाख दिक्कतों और चुनौतियों को स्वीकारने के बाद भी यदि कोई महिला खिलाड़ी राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर अपने कौशल का शानदार प्रदर्शन करे तो उसे शाबासी मिलनी ही चाहिए क्योंकि वह उस युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करती है जिसे हमारा समाज अबला या बेचारी कहकर सम्बोधित करता है।
कानपुर की रहने वाली नीना पांडेय का खेलों में रुझान अपनी बड़ी बहन मीनू अवस्थी को खेलता देखकर ही हुआ था। इन्होंने 1980 में खेलों की न केवल शुरुआत की बल्कि बास्केटबाल, कबड्डी, टेबल टेनिस, हैण्डबाल में राज्यस्तर पर प्रतिभागिता भी की। नीना को असल लोकप्रियता हाकी से मिली। हाकी में इन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व भी किया है। हाकी की नेशनल खिलाड़ी रहीं नीना पांडेय राइट हाफ की पोजीशन पर खेलती थीं। नीना को यह मुकाम हासिल करने के लिए कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। खेल जीवन में शानदार प्रदर्शन करने वाली नीना पांडेय यू.पी. किराना स्कूल में बतौर शारीरिक शिक्षक सेवाएं देने के बाद आज शिव प्रसाद पांडेय इंटर कालेज पड़री, उन्नाव का सफल संचालन कर रही हैं।
अपने खेलजीवन के अनुभवों को बताते हुए वह कहती हैं कि हमारे समय में बेटियों के लिए खेल क्षेत्र में काफी चुनौतियां थीं। मुझे लगता है कि भारत के शहरी या उप-नगरीय इलाकों के मध्य वर्ग की बहुत सी लड़कियों के लिए खिलाड़ी बनने का सपना आसान नहीं होता है। यहां तक कि खेल प्रशंसक होना भी किसी संघर्ष से कम नहीं है। महिलाओं, यहां तक कि पुरुषों के लिए भी इसकी शुरुआत दो बुनियादी चीजों से होती है- जुनून को पहचानना और इसे स्वीकार्यता मिलना। मैं अपनी बड़ी बहन मीनू की शुक्रगुजार हूं जिनकी प्रेरणा से मैं खेलों में उतरी और जब तक खेली मेरा प्रदर्शन ठीक-ठाक ही रहा। नीना कहती हैं कि मैं अपने कालेज में खेलों को बढ़ावा देने के निरंतर प्रयास करती रहती हूं। मैं चाहती हूं कि युवा पीढ़ी शिक्षा के साथ-साथ खेलों में भी रुचि ले ताकि स्वस्थ भारत के सपने को साकार किया जा सके। नीना कहती हैं कि बेटियों के लिए खेल ही नहीं हर क्षेत्र में चुनौतियां हैं लेकिन जो चुनौतियों से जूझता है, वही सफलता के शिखर पर पहुंचता है।