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पिता की कोशिशों से बेटी की उम्मीदों को लगे पंख
नूतन शुक्ला
कानपुर। निरंतर चलती रहो, निराश होने की बजाय मेहनत जारी रखो इसका लाभ आज नहीं तो कल जरूर मिलेगा। बेटी संयम और धैर्य का आंचल सदा थामे रहना, एक दिन न केवल तुम्हारे सपने साकार होंगे बल्कि देश देखेगा कि बेटे ही नहीं बेटियां भी अपने मां-बाप और परिवार का नाम रोशन कर सकती हैं। 12 साल की उम्र में ही अपने पिता अशोक कुमार सिंह के इन जादुई शब्दों को आत्मसात कर जयंती ने लांग डिस्टेंस की दौड़ों में जो प्रतिमान स्थापित किए उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है।
लम्बी दूरी की दौड़ों में कौशल से कहीं अधिक दमखम की जरूरत होती है, इस बात को जयंती के पिता अशोक कुमार सिंह बखूबी जानते थे। अशोक कुमार सिंह का सपना था कि उनकी बेटी जयंती न केवल खेले बल्कि अपने प्रदर्शन से राज्य और देश का गौरव भी बढ़ाए। हर बच्चा अपने माता-पिता की उंगली पकड़ कर ही आगे बढ़ता है। इस मायावी दुनिया में माता-पिता ही एक ऐसा रिश्ता है जोकि अपनी औलाद को अपने से आगे बढ़ते देखना चाहता है। अशोक कुमार सिंह ने भी बेटी जयंती को न केवल खिलाड़ी बनाने के सपने देखे बल्कि सुबह-शाम उसके साथ मशक्कत भी की। बेटी जयंती ने भी उन्हें निराश नहीं किया।
बात 1988 की है, जब जयंती की उम्र सिर्फ 12 साल थी। अशोक कुमार सिंह बेटी जयंती को लेकर मैदान पहुंचे और अपनी ही देख-रेख में ही उसे दौड़ के गुर सिखाने लगे। देखते ही देखते जयंती ने 1991 से 1993 के बीच अपने दमदार प्रदर्शन से पहले जिला फिर प्रदेश और उसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर जीत का परचम फहराकर लोगों को दांतों तले उंगली दबाने को विवश कर दिया। पिता की सीख और नसीहत तथा देखरेख में जयंती ने उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हुए राष्ट्रीय क्रास कंट्री रेस तथा राष्ट्रीय एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में कई शानदार सफलताएं हासिल कर राष्ट्रीय खेल क्षितिज पर छा गई। उस दौर में जयंती जिस भी प्रतियोगिता में उतरती, उसके गले में कोई न कोई तमगा जरूर होता। प्रतियोगिता से पूर्व वाली रात जयंती की सोकर नहीं बल्कि जगकर कटती थी।
जयंती को 1993 में आयोजित इंदिरा मैराथन में तीसरा तथा 1994 और 1995 में आयोजित अखिल भारतीय रथ मैराथन में दूसरा स्थान मिला। अशोक कुमार सिंह की जांबाज बेटी ने 1995 में कानपुर महाविद्यालय की व्यक्तिगत चैम्पियनशिप जीतकर समूचे महानगर में अपनी प्रतिभा और कौशल का लोहा मनवाया था। जयंती ने अपने दमदार प्रदर्शन से राष्ट्रीय ओपन इंदिरा मैराथन एवं रथ मैराथन में सफलता के झण्डे गाड़े तो वर्ष 1995 में जब वह सिर्फ 18 साल की थी, पूर्वोत्तर रेलवे द्वारा आयोजित 21 किलोमीटर की दौड़ के मानक को न केवल पार किया बल्कि रेलवे में ही सेवा का अवसर भी हासिल किया। प्रायः नौकरी हासिल करने के बाद बहुत से खिलाड़ी खेल छोड़ देते हैं लेकिन जयंती ने अपने जीत और जज्बे को कायम रखा। रेलवे में सेवा का अवसर मिलने के बाद 1996 से 1999 तक जयंती सिंह ने राष्ट्रीय रेलवे एथलेटिक्ल एवं क्रास कंट्री रेसों में पूर्वोत्तर रेलवे का प्रतिनिधित्व किया। जयंती की सफलता का आलम यह था कि वह जहां भी जाती उसकी जय-जयकार ही होती।
रेलवे में कार्यरत जयंती सिंह सफलता का सारा श्रेय अपने पिता और कोच अशोक सिंह को देती हैं। वह कहती हैं कि उस समय चूंकि कानपुर में लम्बी दूरी की दौड़ों में महिलाएं शिरकत नहीं करती थीं सो वह पुरुष धावकों के साथ मैराथन और क्रास कंट्री रेसों का अभ्यास करती थी। जयंती के जीवन में भी तमाम विपरीत हालात पैदा हुए लेकिन अपना आपा खोने के बजाय उन्होंने लक्ष्य पर ध्यान देकर न केवल अपने माता-पिता के सपने को साकार किया बल्कि खेल की बदौलत ही नौकरी भी हासिल की। वह कहती हैं कि हर बच्चे को किसी न किसी खेल में जरूर शिरकत करना चाहिए। अगर बच्चा बड़ा खिलाड़ी न भी बन पाया तो वह एक अच्छा इंसान जरूर बनेगा।