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समाज के अतिसंवेदनशील वर्गों के प्रति लोगों की उपेक्षा की मानसिकता हमेशा ही एक सामाजिक समस्या के रूप में उभरती रही है। समाज में उचित स्थान व सम्मान पाने के लिए दिव्यांग आज भी संघर्षरत हैं। भारत में दिव्यांग बच्चों को गोद लेने में प्रतिवर्ष हो रही कमी इसी समस्या का दूसरा पहलू है। भारतीय अनाथ बच्चों के पालन-पोषण, देखभाल व गोद लेने संबंधी प्रक्रियाओं की मानीटरिंग करने वाली नोडल एजेंसी केन्द्रीय दत्तक संसाधन प्राधिकरण के ताजा आंकड़ों की मानें तो भारतीय माता-पिता द्वारा दिव्यांग बच्चों को गोद लेने की संख्या में साल-दर-साल कमी हो रही है, जबकि विदेशियों द्वारा गोद लेने की संख्या में पिछले वर्ष पचास फीसदी का इजाफा हुआ है। भारत सरकार के बाल विकास मंत्रालय की इस एजेंसी के मुताबिक दिव्यांग बच्चों को गोद लेने के संबंध में भारतीय माता-पिता की तुलना में विदेशी माता-पिता का अनुपात अधिक है। इस अनुपात में बड़ा अंतर हैरान करने वाला है। भारतीय जहां एक बच्चा गोद लेते हैं वहीं विदेशी सात बच्चों को गोद लेते हैं। एजेंसी के अनुसार, भारतीयों ने वर्ष 2015-16 में 76, 2016-17 में 49 जबकि 2017-18 में 46 दिव्यांग बच्चों को ही गोद लिया। जबकि विदेशियों ने जहां वर्ष 2016-17 में 237 दिव्यांग बच्चों को गोद लिया, वहीं 2017-18 में 355 बच्चों को अपनाया। लिहाजा, विदेशियों द्वारा बेहतर पहल करना संतोषजनक तो है लेकिन भारतीयों द्वारा दिव्यांग बच्चों से परहेज़ करने से समाज को कोई प्रेरणा नहीं मिल रही। इतना ही नहीं, सामान्य बच्चों के मुकाबले दिव्यांगों की उपेक्षा से इस संवेदनशील वर्ग के मुख्य धारा में आने की चुनौती और भी गहरी होती जा रही है। दरअसल, दिव्यांगों की उपेक्षा के लिए समाज की संकुचित विचारधारा तो जिम्मेदार है ही, इसके अलावा दिव्यांगों के लिए समुचित सामाजिक सुरक्षा का अभाव और दूसरी अन्य सुविधाओं की कमी भी प्रमुख वजहें हैं। स्कूली शिक्षा में रुकावट, सार्वजनिक जगहों तक पहुंच की समस्या और रोजगार का अभाव कुछ ऐसे पहलू हैं जो भारतीयों को दिव्यांगों को गोद लेने से रोकते हैं। ये सभी वे पहलू हैं जो किसी भी व्यक्ति के जीवन में बेहद जरूरी होते हैं। ये पहलू व्यक्ति को बेहतर जीवनशैली प्रदान करने में अहम भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि भारतीयों में एक प्रकार का डर व्याप्त होता है कि दिव्यांगों को गोद लेने से सामने आने वाली चुनौतियों से वे और दिव्यांग व्यक्ति कैसे लड़ेंगे। विदेशियों द्वारा गोद लेने की संख्या में वृद्धि इस बात का परिचायक है कि उनके देशों में दिव्यांगों के लिए उचित सुविधाओं की व्यवस्था है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस समेत कई ऐसे देश हैं जहां दिव्यांगों के लिए न केवल एक नीति है, बल्कि शिक्षा एवं रोजगार के विशेष प्रावधान भी हैं। कहने को तो भारत सरकार ने भी दिव्यांगों के अधिकार के लिए 2015 में बिल पास किया है लेकिन समस्या यह है कि देश के लगभग साढ़े आठ करोड़ दिव्यांगों को अभी भी बेहतर शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा का इंतज़ार है। इससे इतर, अगर समाज में कमज़ोर तबकों के प्रति लोगों की मानसिकता की बात करें तो आज इस वैज्ञानिक दौर में भी उपेक्षा का दौर बदस्तूर जारी है। दिव्यांगों के प्रति लोगों का नज़रिया अभी भी नहीं बदला है। क्या हमें स्टीफ़न हॉकिंग याद नहीं हैं? महज 22 वर्ष की उम्र में उन्हें एक लाइलाज बीमारी हो जाती है, फिर भी वह दुनिया को कई वैज्ञानिक खोजों का तोहफा देते हैं। इस प्रकार लकवाग्रस्त हो गए कि शरीर का सिर्फ दस फीसदी भाग ही काम करता था, फिर भी उन्होंने वैज्ञानिक कार्यों को कभी विराम नहीं दिया। इतना ही नहीं, भारत में भी कई दिव्यांगों ने शिक्षा और खेल के क्षेत्र में देश का नाम रोशन किया है। इंडियन ब्लाइंड टीम द्वारा विश्व कप क्रिकेट जीतने की उपलब्धि को हम भूल बैठे हैं? क्या दिव्यांगों द्वारा वर्ष 2016 में पैरालंपिक खेलों में चार पदक जीतकर सबसे अच्छा प्रदर्शन करने की उपलब्धि पर हमने ग़ौर नहीं किया? दरअसल हमारा देश उपलब्धियों के कई कारनामों का गवाह बना है, लेकिन हम दिव्यांगों के प्रति अपनी विचारधारा बदलने को तैयार नहीं हैं। हमें समझना होगा कि उन्हें हमारे स्नेह और देखभाल की जरूरत है। समझना होगा कि उन्हें कुछ करने के लिए प्रोत्साहन की दरकार है जो हमारे माध्यम से ही मिल सकता है। हम सरकार को चाहे कितना भी दोष दें, लेकिन सच्चाई यही है कि सबसे पहले हमें अपनी सोच बदलनी होगी। अगर हम समाज में एक सकारात्मक सोच की धारा बहा पाते हैं तो यक़ीनन दिव्यांगों को अपनाना भी एक उपलब्धि साबित होगी। इतना ही नहीं, अगर हमने दरियादिली दिखाई तो हमारे दिव्यांगों को विदेश जाने की भी आवश्यकता नहीं होगी। जरूरत है तो केवल एक नेक कोशिश करने की। आओ दिव्यांग जनों को भी गले लगाएं और उनकी मदद करें।