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दिल्ली और मुंबई की तरह लॉकडाउन के चलते बिहार, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश के दिहाड़ीदार मजदूरों के हैदराबाद और सिकंदराबाद में फंसे होने की खबर मैक्सवेल ट्रेवर के कानों में भी पड़ी। कुछ को मकान मालिकों ने घर से निकाल दिया था। सैकड़ों जहां खुले आसमान के नीचे थे तो सैकड़ों ने रेलवे की खंडहर इमारतों को ठिकाना बना लिया। मैक्सवेल के लिए यह पीड़ा ओलंपिक नहीं खेल पाने से भी बढ़कर थी। 1980 से लेकर 1990 तक लगातार दस बार के राष्ट्रीय चैंपियन रहे इस एकमात्र साइकिलिस्ट ने इन मजदूरों को दोनों समय का खाना उपलब्ध कराने की ठान ली। शुरुआत में दिक्कत आई, लेकिन अब सिकंदराबाद में मैक्सवेल की मदद को कई अन्य आ गए हैं। सरकार की मंजूरी से खाना खिलाना शुरू किया : मैक्सवेल ने कहा कि पहले वह इनकी मदद का रास्ता खोजते रहे। एक दिन दोस्त उमाकांत को फोन पर कहा कि वह दिहाड़ीदारों को खाना खिलाने जा रहे हैं। दोस्त ने कहा कि ऐसे करोगे तो फंस जाओगे, पहले राज्य सरकार को बता दो। उन्होंने फिर जिला प्रशासन को फोन कर मंजूरी हासिल की। हैदराबाद में दिहाड़ीदारों को काम पर ले जाने के लिए जगह-जगह लेबर अड्डे लगते हैं। पहले वह इन्हीं अड्डों पर गए। जब वह खाना देने लगे तो सभी सामाजिक दूरी भूल उनके पास टूट पड़े। मैक्सवेल कहते हैं कि भला भूख के आगे सामाजिक दूरी का पालन भी कैसे हो। उन्हें लगा यह काम आसान नहीं है। लेकिन काफी समझाने के बाद अब मजदूर लाइन में लगकर खाना लेते हैं। कुछ जगहों पर अब भी दिक्कत आ रही है। शरुआत में उन्होंने कुछ स्थानों को चुना था, लेकिन अब दायरा बढ़ गया है। अभी वह सिकंदराबाद के तारनाक, हुबसीगुडा, मेट्टागुडा, सीताफलमंडी, लाल्लागुडा, लालपेट और उसके आसपास के इलाकों में खाना खिला रहे हैं।
अकादमी के शिष्य भी जुटते हैं साथ में : 1982 और 1986 के एशियाई खेलों में शिरकत करने वाले मैक्सवेल की हैदराबाद में साइकिलिंग अकादमी है। उनके साथ खाना बांटने के काम में उनके शिष्य भी जुटते हैं। शुरुआत खाने के छह सौ पैकेट से की थी। अब यह संख्या बढ़ती जा रही है। लोगों को जब उनके बारे में पता लगा तो वे राशन से लेकर आर्थिक मदद कर रहे हैं।