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शिवम शुक्ला हर जीव जन्म से ही खेलना-कूदना शुरू कर देता है। खेल सिर्फ मानव ही नहीं हर जीव की एक ऐसी कार्यशैली है जिसमें शारीरिक शक्ति में बढ़ोत्तरी के साथ ही मानसिक ताजगी का अहसास होता है। हर काल में मनुष्य ने खेलों को अपने मनोरंजन का माध्यम बनाया है। हर देश में अलग-अलग खेलों का प्रचलन वहां की मानवीय स्वीकार्यता का प्रतीक है। खेलों का उद्भव प्रकृति के अस्तित्व में आने के साथ ही हो गया था। प्राचीन यूनानी काल में कई तरह के खेलों की परम्परा स्थापित हो चुकी थी। ग्रीस की सैन्य संस्कृति और खेलों के विकास ने एक-दूसरे को काफी प्रभावित किया। खेल उनकी संस्कृति का एक ऐसा प्रमुख अंग बन गये कि यूनान ने ओलम्पिक खेलों का आयोजन किया, जो प्राचीन समय में हर चार साल पर पेलोपोनेसस के एक छोटे से गांव में ओलम्पिया नाम से आयोजित किये जाते थे। हाल ही दुनिया ने ब्राजील के रियो-डी-जेनेरियो में 31वें ओलम्पिक खेलों में खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन को देखा है। अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स और जमैकाई धावक उसेन बोल्ट को उनके करिश्माई प्रदर्शन के लिए दुनिया ने महामानव की संज्ञा प्रदान की। प्राचीनकाल में शांति के समय योद्धाओं के बीच प्रतिस्पर्धा के साथ खेलों का विकास हुआ। तब दौड़, मुक्केबाजी, कुश्ती और रथों की दौड़ सैनिक प्रशिक्षण का हिस्सा हुआ करते थे, इनमें से सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले योद्धा प्रतिस्पर्धी खेलों में अपना दमखम दिखाते थे। प्राचीन ओलम्पिक खेलों का आयोजन 1200 साल पूर्व योद्धा-खिलाड़ियों के बीच हुआ था। ओलम्पिक का पहला आधिकारिक आयोजन 776 ईसा पूर्व में तो आखिरी बार इसका आयोजन 394 ईस्वी में हुआ। इसके बाद रोम के सम्राट थियोडोसिस द्वारा इसे मूर्तिपूजा वाला उत्सव करार देकर प्रतिबंधित कर दिया गया और लगभग डेढ़ सौ साल तक खेल हुए ही नहीं। 19वीं शताब्दी में यूरोप में सर्वमान्य सभ्यता के विकास के साथ पुरातन काल की यह खेल परम्परा पुनः जीवंत हो उठी। इसका श्रेय फ्रांस के बैरों पियरे डी कुवर्तेन को जाता है। कुवर्तेन ने दो लक्ष्य रखे, एक तो खेलों को अपने देश में लोकप्रिय बनाना और दूसरा सभी देशों को एक शांतिपूर्ण प्रतिस्पर्धा के लिए एकत्रित करना। कुवर्तेन मानते थे कि खेल युद्धों को टालने का सबसे अच्छे माध्यम हो सकते हैं। कुवर्तेन की इसी परिकल्पना को साकार करने वर्ष 1896 में पहली बार आधुनिक ओलम्पिक खेलों का आयोजन ग्रीस की राजधानी एथेंस में हुआ। शुरुआती दशक में ओलम्पिक आंदोलन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता रहा वजह कुवर्तेन की इस परिकल्पना को किसी भी बड़ी शक्ति का साथ नहीं मिलना रही। वर्ष 1900 तथा 1904 में पेरिस तथा सेंट लुई में हुए ओलम्पिक के दो संस्करण लोकप्रिय नहीं हो सके लेकिन लंदन के चौथे संस्करण ने दुनिया में अपनी छाप छोड़ी। वर्ष 1930 के बर्लिन संस्करण के साथ तो मानों ओलम्पिक आंदोलन में नई जीवन शक्ति आ गई। सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जारी प्रतिस्पर्धा के कारण नाजियों ने इसे अपनी श्रेष्ठता साबित करने का माध्यम बना दिया। 1950 के दशक में सोवियत-अमेरिका प्रतिस्पर्धा खेल मैदान में आने के साथ ही ओलम्पिक की ख्याति चरम पर पहुंच गई। इसके बाद तो खेल कभी भी राजनीति से अलग हुए ही नहीं। ओलम्पिक खेलों को समय-समय पर कई तरह की राजनीतिक समस्याओं से भी जूझना पड़ा। साल 1980 में अमेरिका और उसके पश्चिम के मित्र राष्ट्रों ने मॉस्को ओलम्पिक में शिरकत करने से इनकार कर दिया तो हिसाब चुकाने के लिए सोवियत संघ 1984 के लॉस एंजलिस ओलम्पिक से दूर रहा। बीजिंग ओलम्पिक 2008 को अब तक का सबसे अच्छा आयोजन माना जाता है। 15 दिन तक चले ओलम्पिक खेलों के दौरान चीन ने न सिर्फ़ अपनी शानदार मेजबानी से लोगों का दिल जीता बल्कि सबसे ज़्यादा स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास भी रचा। पहली बार पदक तालिका में चीन सबसे ऊपर रहा जबकि अमरीका को दूसरे स्थान से संतोष करना पड़ा। भारत ने भी ओलम्पिक के इतिहास में व्यक्तिगत स्पर्धाओं में पहली बार कोई स्वर्ण पदक जीता और उसे पहली बार एक साथ तीन पदक भी मिले। रियो ओलम्पिक में अमेरिका शीर्ष पर तो ब्रिटेन दूसरे और चीन तीसरे पायदान पर रहा। भारत की दो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धु व पहलवान साक्षी मलिक ने रजत और कांस्य पदक जीतकर देश की लाज बचाई। रियो ओलम्पिक में खिलाड़ियों के प्रदर्शन के साथ-साथ और भी बहुत कुछ हुआ। 27 रिकार्ड टूटे तो कई खिलाड़ियों अब नहीं खेलने ऐलान किया। देखा जाए तो प्राचीन ओलम्पिक से वर्तमान सदी तक खिलाड़ियों को खेल मंच मुहैया कराने के प्रयास होते रहे हैं। आज औद्योगिकीकरण की वजह से विकसित और विकासशील देशों के नागरिकों के अवकाश का समय बढ़ा है, उनमें खेलने और खेल समारोहों में शिरकत करने की चेतना जागी है। मास मीडिया और वैश्विक संचार माध्यमों के प्रसार से खेलों की लोकप्रियता में चार चांद लगे हैं। दरअसल आज खेलोगे-कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब वाली पुरानी मान्यता कुछ-कुछ बदलने लगी है। अब खेलों को शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाने की बातें होने लगी हैं तो समाज में भी खिलाड़ियों को आदर-सम्मान प्राप्त हो रहा है। यह खुशी की बात है कि अब खिलाड़ी बच्चों का आदर्श बन रहे हैं। बच्चों के लिए तो खेलों का उतना ही महत्व है, जितना कि भोजन। खेल बौद्धिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे आपसी-तालमेल और सूझ-बूझ विकसित होती है। खेलों का एक उद्देश्य संघर्षों से उबरने और उनका सामना करने की क्षमता पैदा करना भी है। रियो में जो भी हुआ, उसे एक दस्तावेज का रूप देने की मैंने एक छोटी सी कोशिश की है। खेलप्रेमियों को कुछ अलग पाठ्य सामग्री देने में मुझसे कई खामियां हुई होंगी लेकिन विश्वास है कि आप मेरे प्रयास को अवश्य ही अपना सम्बल देंगे।