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क्यों और कैसे इसके जाल में फंसते हैं खिलाड़ी?
विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) ने रूस पर चार साल का प्रतिबंध लगा दिया है। अब रूस अगले चार साल तक किसी भी प्रकार के मुख्य खेल आयोजनों में हिस्सा नहीं ले पाएगा। इससे पहले पिछले महीने वाडा के जांचकर्ताओं और अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक संघ ने कहा था कि रूस के अधिकारियों ने कई संभावित डोपिंग मामलों को छुपाने और इस मामलों की खुलासा करने वाले लोगों पर दोष डालने के लिए मॉस्को लेबोरेट्री के डेटाबेस में छेड़छाड़ की।
समर ओलिंपिक में रूस का इतिहास काफी पुराना है, लेकिन 1996 के बाद से यह लगातार ओलिंपिक में भाग ले रहे हैं। पिछले 20 साल में रूस के खिलाड़ियों ने दुनिया को अपना दम दिखाया है। रूस ने पिछले छह ओलिंपिक में 546 पदक जीते हैं। रूस ने अभी तक 195 गोल्ड, 163 सिल्वर और 188 ब्रॉन्ज मेडल ओलंपिक में जीते हैं।
डोपिंग का मकड़जाल पूरे विश्व भर में फैला है और इसके चंगुल में दिग्गज खिलाड़ी तक फंस चुके हैं। रियो ओलंपिक से पहले अंतरराष्ट्रीय खेल पंचाट ने डोपिंग को लेकर रूस की अपील खारिज कर दी थी, जिससे रूस की ट्रैक और फील्ड टीम रियो ओलंपिक में भाग नहीं ले पाई थी। यहां तक कि बीजिंग ओलंपिक 2008 के 23 पदक विजेताओं समेत 45 खिलाड़ी डोप टेस्ट में पॉजीटिव पाए गए थे।
बीजिंग और लंदन ओलंपिक के नमूनों की दोबारा जांच कराई गई और इसमें कुल 98 खिलाड़ी नाकाम रहे थे। किसी भी खिलाड़ी का करियर ज्यादा लंबा नहीं होता है। अपने सर्वश्रेष्ठ खेल के प्रदर्शन से ही कोई भी खिलाड़ी मशहूर होता है। इसी चक्कर में खिलाड़ी शॉर्टकट तरीके से मेडल पाने की भूख में अक्सर डोपिंग के जाल में फंस जाते हैं।
डोपिंग में आने वाली दवाओं को पांच अलग-अलग श्रेणी में बांटा गया है। स्टेरॉयड, पेप्टाइड हॉर्मोन, नार्कोटिक्स, डाइयूरेटिक्स और ब्लड डोपिंग।
स्टेरॉयड यह हमारे शरीर में पहले से ही मौजूद होता है, जैसे टेस्टेस्टेरॉन। पुरुष खिलाड़ी अपने शरीर में मासपेशियां को बढ़ाने के लिए स्टेरॉयड के इंजेक्शन लेते हैं, तो यह शरीर में मासपेशियां बढ़ा देता है।
पेप्टाइड हॉर्मोन स्टेरॉयड की ही तरह हॉर्मोन भी शरीर में मौजूद होते हैं। इंसुलिन नाम का हॉर्मोन डायबीटीज के मरीजों के लिए जीवन रक्षक हॉर्मोन है, लेकिन हेल्दी इंसान को अगर इंसुलिन दिया जाए तो इससे शरीर से फैट घटने लगती है और मसल्स बनती हैं।
ब्लड डोपिंग इसमें खिलाड़ी कम उम्र के लोगों का ब्लड खुद को चढ़ाते हैं। इसे ब्लड डोपिंग कहा जाता है। कम उम्र के लोगों के ब्लड में रेड ब्लड सेल्स ज्यादा होते हैं जो खूब ऑक्सिजन खींच कर जबरदस्त ताकत देते हैं।
नार्कोटिक्स नार्कोटिक या मॉर्फीन जैसी दर्दनाशक दवाइयां डोपिंग में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होती हैं। खेल के दौरान दर्द का अहसास होने पर अक्सर खिलाड़ी इन दवाइयों के इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं।
डाइयूरेटिक्स शरीर से पानी को बाहर निकाल देता है। इसे कुश्ती या बॉक्सिंग जैसे मुकाबलों में अपना वजन घटा कर कम वजन वाले वर्ग में एंट्री लेने के लिए खिलाड़ी इस्तेमाल करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय खेलों में ड्रग्स के बढ़ते चलन को रोकने के लिए वाडा की स्थापना 10 नवंबर, 1999 को स्विट्जरलैंड के लुसेन शहर में की गई थी। इसके बाद हर देश में नाडा की स्थापना की जाने लगी। इसमें दोषी पाए जाने वाले खिलाड़ियों को दो साल सजा से लेकर आजीवन पाबंदी तक सजा का प्रावधान है।
ताकत बढ़ाने वाली दवाओं के इस्तेमाल को पकड़ने के लिए डोप टेस्ट किया जाता है। किसी भी खिलाड़ी का किसी भी वक्त डोप टेस्ट लिया जा सकता है। यह नाडा या वाडा या फिर दोनों की ओर से किए जा सकते हैं। इसके लिए खिलाड़ियों के मूत्र के सैंपल लिए जाते हैं। नमूना एक बार ही लिया जाता है।
पहले चरण को ए और दूसरे चरण को बी कहते हैं। ए पॉजीटिव पाए जाने पर खिलाड़ी को प्रतिबंधित कर दिया जाता है। यदि खिलाड़ी चाहे तो एंटी डोपिंग पैनल से बी-टेस्ट सैंपल के लिए अपील कर सकता है। यदि खिलाड़ी बी-टेस्ट सैंपल में भी पॉजीटिव आ जाए तो उस सम्बंधित खिलाड़ी पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
भारत में ये टेस्ट नाडा (नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी) और विश्व भर में वाडा (वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी) की तरफ से कराए जाते हैं। इसमें खिलाड़ियों के यूरिन को वाडा या नाडा की खास लैब में टेस्ट किया जाता है। नाडा की लैब दिल्ली में और वाडा की लैब्स दुनिया में कई जगहों पर हैं।
भारत में पहला डोपिंग का मामला
भारत में पहली बार डोपिंग नाम के जिन्न का खुलासा साल 1968 में हुआ। दिल्ली के रेलवे स्टेडियम में 1968 के मेक्सिको ओलंपिक के लिए ट्रायल चल रहा था। ट्रायल के दौरान कृपाल सिंह 10 हजार मीटर दौड़ में भागते समय ट्रैक छोड़कर सीढ़ियों पर चढ़ गए, उनके मुंह से झाग निकलने लगा और वह बेहोश हो गए।
जांच में पता चला कि कृपाल सिंह ने नशीला पदार्थ के सेवन किया था, ताकि मेक्सिको ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाएं। इसके बाद तो भारत में डोपिंग के कई मामले सामने आने शुरू हो गए।
ओलंपिक में डोपिंग का पहला मामला
ओलंपिक खेलों की शुरुआत 1896 में हुई और 1904 के सेंट लुई ओलंपिक में डोपिंग का पहला मामला सामने आया। इसके ठीक 100 साल बाद यानी 2004 में एथेंस में डोपिंग के पिछले सारे रिकॉर्ड टूटे, क्योंकि इस ओलंपिक में सबसे अधिक 27 खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवा सेवन का दोषी पाया गया।
खेलों में प्रतिबंधित दवा के सेवन के बढ़ते चलन के कारण विभिन्न खेल संघों ने 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों में डोपिंग पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया जिसे अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने 1967 में अपनाया और पहली बार 1968 के मैक्सिको सिटी ओलिंपिक में इसे लागू किया।
ओलंपिक में डोपिंग के कारण हुई मौत
ओलंपिक में ताकत बढ़ाने वाली दवा लेने की शुरुआत काफी पहले हो गई थी। ओलंपिक 1904 में अमेरिकी मैराथन धावक थामस हिक्स को उनके कोच ने दौड़ के दौरान स्ट्रेचनाइन और ब्रांडी दी थी। हिक्स ने दो घंटे 22 मिनट 18.4 सेकंड में नए ओलंपिक रिकॉर्ड के साथ मैराथन जीता था, लेकिन तब डोपिंग के लिए कोई नियम नहीं थे इसलिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
रोम ओलंपिक 1960 में डेनमार्क के इनेमाक जेनसन साइकिल दौड़ के दौरान नीचे गिर गए और उनकी मौत हो गई। जांच से पता चला कि वे तब एम्फेटेमाइन्स के प्रभाव में थे। यह ओलंपिक में डोपिंग के कारण हुई एकमात्र मौत है।
ओलंपिक में प्रतिबंधित दवा लेने के कारण प्रतिबंध झेलने वाले पहले खिलाड़ी स्वीडन के हान्स गुनार लिजनेवाल थे। माडर्न पैंटाथलान के इस खिलाड़ी को 1968 ओलंपिक में अल्कोहल सेवन का दोषी पाया गया जिसके कारण उन्हें अपना कांस्य पदक गंवाना पड़ा।
डोपिंग के कारण ओलंपिक पदक गंवाने का भी यह पहला मामला था। तब से लेकर 14 स्वर्ण पदक चार रजत और इतने ही कांस्य पदक विजेताओं को परीक्षण पॉजिटिव पाए जाने के कारण अपने पदक गंवाने पड़े थे। इनमें सबसे मशहूर कनाडा के फर्राटा धावक बेन जॉनसन भी हैं।
जॉनसन ने 1988 के सोल ओलंपिक में अमेरिका के कार्ल लुईस को पीछे छोड़कर 100 मीटर दौड़ जीतने के साथ तहलका मचा दिया था। जॉनसन की यह खुशी 24 घंटे भी नहीं रही थी, क्योंकि परीक्षण में उन्हें प्रतिबंधित स्टैनाजोलोल के सेवन का दोषी पाया गया और उनसे पदक छीनकर लुईस को विजेता घोषित कर दिया गया था।