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भारत का राष्ट्रीय खेल है हॉकी। दुनिया के ओलंपिक खेलों में ऐसे भी दिन रहे कि किसी और खेल से चाहे स्वर्ण पदक न आये, लेकिन भारत को इस खेल में स्वर्ण पदक मिल ही जाता था। न मिलता तो उसका मुख्य प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान इसे जीत लेता। लेकिन दिन बदल गये। खेल कृत्रिम घास पर होने लगा। इसने अपना स्वर्ण स्पर्श खो दिया। उस समय हमारे प्रतिभावान हॉकी खिलाड़ियों की नर्सरी होता था, पंजाब के दोआबा क्षेत्र में संसारपुर गांव। यह गांव जालंधर छावनी और उसके दूसरी ओर स्थित जंडियाला के बीच स्थित है। तब इन खिलाड़ियों की प्रेरणा और प्रोत्साहक थे पुलिस प्रमुख अश्विनी कुमार, जो केवल इन खिलाड़ियों ही नहीं, जालंधर के ऐतिहासिक हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन के मुख्य प्रेरणा स्तंभ और आजीवन ट्रस्टी रहे।
अश्विनी जी तो अब नहीं हैं, लेकिन जालंधर के हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन की शान उसी तरह बरकरार है। उखड़ा तो हॉकी खिलाड़ियों का मक्का मदीना संसारपुर। अब इस गांव के नौजवान इस खेल को समर्पित नजर नहीं आते। रोजी-रोटी की तलाश ने सब कुछ लील लिया। खेतीबाड़ी के धंधे को ग्रामीण युवकों की नयी पीढ़ी के लिए अनुत्पादक होता देखकर अब उनका पलायन किसी वैकल्पिक रोज़गार के लिए पहले शहरों की ओर हुआ। जहां उद्योग-धंधों और कल कारखानों में मंदी के साये पहले से मंडरा रहे थे। हां, इन शहरों के हर मुख्य गली और बाजार में विदेश भिजवा सकने वाली अकादमियों के बाजार अवश्य सजे थे।
ये लोग पारपत्रों और वीजा के लिए आवश्यक छह बैंड दिलवाने की कोचिंग का व्यवसाय करते हैं। कुछ महारथी और उनकी अकादमियां वहां ऐसी थीं कि ये आपको बिना छह बैंड प्राप्त किये ही विदेश भिजवा देने की गारंटी दे देतीं। नौजवानों को बिना पंखों के विदेश भिजवा देने का व्यवसाय कुछ इस प्रकार पनपा कि पंजाब ही नहीं, हरियाणा और हिमाचल में भी इसे कबूतरबाजी के नाम से जाना जाने लगा। यह वैध है या अवैध, अपनी धरती, अपनी शिक्षा की नींव से उखड़े हुए इन नौजवानों को इससे गर्ज नहीं है। उन्हें तो अपनी लक्ष्यहीन और फुटपाथी जिंदगी जीते हुए विदेशों की सोन नगरी में जा बसने के सपने आते हैं। पंजाब हो या हरियाणा, यहां का सबसे आकर्षक व्यवसाय हो गया है, ट्रैवल एजेंट या उनके द्वारा चलायी जा रही पारपत्रों और वीज़ा के लिए अपेक्षित बैंड दिलवाने वाली अकादमियां।
कभी लार्ड मैकाले द्वारा प्रेरित सफेद कालर बाबू बनाने वाली शिक्षा संस्कृति विफल हो गयी। खेल के मैदानों में अपने खेल निपुणता से विजय का ध्वज फहराने वाले खिलाड़ी धन, प्रतिष्ठा और विजय के सपनों से वंचित हो गये। खेल के मैदानों में धूल उड़ने लगी। विश्वस्तर की खेल प्रतियोगिताओं में भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी ही नहीं, सब विशुद्ध भारतीयता का अक्स लिए हुए खेल पिछड़ते चले गये। दशकों से जारी लुधियाना के पास शेरपुर में वार्षिक ग्रामीण खेलें अपनी चमकदमक खोने लगीं। अंग्रेजों से आयातित क्रिकेट का खेल ही भारत के क्रिकेट प्रेमियों के जनून से जिंदा रहा, क्योंकि इसे व्यावसायिकता की प्रखर नींव मिल गयी।
लेकिन दोआबा ही नहीं, पंजाब और हरियाणा के गांव के गांव खाली हो गये, क्योंकि उनमें बसते नौजवानों ने खेतीबाड़ी से बेदखली पा, उन बुनियादी खेलों में भटकना नहीं चाहा। दरअसल यहां जीतने पर तमगे तो मिल जाते हैं लेकिन रोटियों का ठिकाना नहीं बनता था। कार्पोरेट जगत के मसीहाओं ने क्रिकेट जैसे खेल को अपने कंधों पर उठा लिया और हॉकी राष्ट्रीय खेल कहलाने के बावजूद अपनी आब खो बैठी। संसारपुर हॉकी नर्सरी उखड़ गयी। वहां से उभरने वाले दिग्गज खिलाड़ियों की परंपरा समाप्त हो गयी और साथ ही बुझ गयी उस खेल के द्वारा ओलंपिक मुकाबलों से स्वर्ण पदक जीतकर लाने वाली दिपदिपाहट।
शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया और उभरती हुई रोज़गार दिलाऊ प्रतियोगिता वाले शिक्षण संस्थानों से खेल के मैदान गुम हो गये। कुछ ग्रामीण कालेज ऐसे थे जहां बड़े-बड़े खेल के मैदानों में देश के नौजवान शिक्षा के साथ-साथ खेल संस्कृति का उदय करते थे। व्यावसायिकता के सैलाब में सब कुछ बह गया। इन संस्थानों से मिलने वाली कला और विज्ञान संकायों की चमकती हुई स्नातक डिग्रियां और खेलों के मैदानों से जीते हुए स्वर्ण पदक, सब कुछ।
संसारपुर की इस पारंपरिक खेल नर्सरी ने मिट्टी की गंध खोयी तो उसके साथ के गांव में दशकों से चलता हुआ सरकारी कालेज जंडियाला का विशाल परिसर भी वीरान हुआ। कभी आसपास के ग्रामीण समाज में इसकी धूम थी। यहां कला और विज्ञान की कक्षाएं खूब चलतीं। कालेज परिसर के पास बड़े-बड़े खेल के मैदान थे। खिलाड़ियों के अभ्यास के लिए मक्का और मदीना था। ऐसे दिन भी रहे जब यहां एक हज़ार से लेकर सात सौ छात्र तक पढ़ते थे। आज विद्यालय के इस विशाल परिसर में छात्र पढ़ने नहीं आते। खाली कक्षाएं सायं-सायं करती हैं। सरकारी विद्यालय है, इसलिए अभी भी इसमें एक प्राचार्य है, एक-दो प्राध्यापक और एकाध लिपिक। लेकिन छात्र कहां हैं? शहरों का सम्मोहन, प्रवासी भारतीय हो पाने का सपना अथवा आधुनिकता की चकाचौंध ने सब कुछ छीन लिया। अब इलाके के राजनेताओं ने इस कालेज या ऐसे ही ग्रामीण अंचलों में मरते हुए विद्यालयों को जीवनदान देने का बीड़ा उठाया है।
लेकिन यह संकल्प तब तक सार्थक नहीं हो सका जब तक इस देश के शिक्षा परिसरों में पल्लवित बोसीदा शिक्षा संस्कृति को नौजवानों के सपनों के अनुरूप एक सम्माननीय जीवन, भरपेट भोजन और सार्थक रोज़गार देने के योग्य नहीं बनाया जाता। आठवें दशक से हम बुनियादी शिक्षा के नाम पर राजीव गांधी काल से शिक्षा संस्कृति के रोज़गारोन्मुख होने की बात सुन रहे हैं। इसके लिए चलाया जाने वाला आपरेशन ब्लैक बोर्ड बेरंग हो गया लेकिन शिक्षा अपनी किताबी अव्यावहारिकता के घेरों से बाहर नहीं आ पायी। अब मोदी काल की दूसरी पारी शुरू हो गयी। अब सरकार जल्दी से जल्दी नयी शिक्षा नीति लाने की बात करती है। उसको रोज़गारोन्मुख बना देने के भाषण होते हैं लेकिन शिक्षा के साथ नौजवानों को उचित रोज़गार देने की कोई गारंटी नहीं देता।
रोज़गार देने की बात आयी तो संदेश स्वरोज़गार के समाधान पर आकर टिक गया। अपना हाथ जगननाथ का नारा बहुत लुभावना है। नौजवानों को सार्थक रोज़गार की संभावनाएं देने के लिए मुद्रा योजना शुरू हुई। लेकिन वही लालफीताशाही, अपर्याप्त ऋण और मरे हुए खातों की समस्या उसे ले देकर बैठ गयी।
काम शुरू करने वाले अपने प्रार्थनापत्र लेकर हजारों की संख्या में खड़े हों और काम उनके दसवें क्या, सौवें भाग को भी न मिले, तो ऐसे स्वरोज़गार के दिवास्वप्नों की व्यर्थ उड़ान उन्हें किन अवसाद और दिग्भ्रमिता के अंधेरों में उतार देती है, यह किसी से छिपा नहीं।इस दिशा में अभी आये महानगरों के निराशाजनक आंकड़े कहते हैं कि नौजवानों के पैरों के नीचे रोज़गार या स्वरोज़गार की ठोस धरती केवल लच्छेदार वादों से पूरी नहीं होगी।