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हिमा दास द्वारा सोने के तमगे जीतने की खबर उस समय आई जब क्रिकेट प्रेमियों का देश भारतीय टीम के विश्व कप सेमीफाइनल से बाहर होने से आहत था। हिमा ने एक के बाद एक स्वर्ण पदक जीतने शुरू किये। यूरोप के उन देशों में जहां भारत का कोई खिलाड़ी अब तक ये उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया था, क्रिकेट से आहत लोगों की आंखों में इन मेडल की चमक नई रंगत लायी। हिमा की कामयाबी परंपरागत और सोशल मीडिया पर छा गई। सोना जीतते ही देश ने उसे पलक-पांवड़ों पर बिठा लिया। दुनिया उगते सूरज को नमन करती है। हिमा की सफलताओं पर कसीदे पढ़े जाने लगे। संतरी से लेकर मंत्री तक के बधाई संदेश आने लगे। गोल्डन गर्ल पर सोने के मेडल तो बरसे, पैसा भी बरसने लगा। कभी धान के खेतों में नंगे पैर दौड़ने वाली हिमा के पिता ने बहुत मुश्किल से पैसे जुटाकर बारह सौ रुपये का जूता खरीदा था। अब एडीडॉस कंपनी ने हिमा को ब्रांड अंबेसडर बनाया है। वक्त का बदलाव देखिये कि 21 दिन में पांच गोल्ड मेडल जीतते ही हिमा दास की सालाना एंडोर्समेंट फीस तीन हफ्ते में डबल हो गई। उसे चर्चित कंपनियों के विज्ञापन मिलने लगे जो अब तक नामी क्रिकेटरों को ही मिलते थे। ऐसे में मुख्य धारा से अलग खेलों के खिलाड़ियों के लिये भी उम्मीद जगी कि वे बेहतर खेलेंगे तो किस्मत चमक सकती है। हिमा के रूप में देश को एक फर्राटा गर्ल का मिलना सुखद तो है ही, मगर सबसे ज्यादा प्रभावित करता है हिमा की गहरी संवेदनशीलता, मानवीय सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता और राष्ट्र के प्रति उद्दात भावनाएं। सोने के तमगे जीतने पर उसका उत्साह के साथ तिरंगा लेकर मैदान में दौड़ना, मेडल वितरण समारोह में तिरंगा लहराने पर राष्ट्रगान बजते ही उसकी आंखों से मोती से आंसुओं का गिरना भावविभोर कर गया। उसके स्वभाव की सहजता विरले खिलाड़ियों में मिलती है। हिमा असम के जिस इलाके से आती है, वह साल में कुछ महीने बारिश के पानी में डूबा रहता है। हिमा के खेतों की भी कमोबेश यही स्थिति रहती है। बार-बार फसल का चौपट होना आम बात है। उसे हर साल बाढ़ से होने वाली तबाही का एहसास है। हिमा लगातार सोशल मीडिया पर बाढ़ पीड़ित लोगों की मदद की अपील करती रही। तभी तो उसने जीती हुई पुरस्कार राशि का एक बड़ा हिस्सा असम के बाढ़ पीड़ितों के लिये देने का फैसला किया। अभावों की जिंदगी से निकली हिमा की संवेदनशीलता तो देखिये, वह सब का दुख बांट लेना चाहती है। जबकि अन्य राज्यों में खिलाड़ी पुरस्कार राशि बढ़वाने के लिये लड़ते नजर आते हैं। हिमा दास ने जिन पांच स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते, उनमें 2 जुलाई को एथलेटिक्स ग्रांपी, पोलैंड, 7 जुलाई, एथलेटिक्स मीट, पोलैंड, 13 जुलाई एथलेटिक्स मीट, क्लाइनो, चेक रिपब्लिक, 17 जुलाई एथलेटिक्स मीट, टाबोर, चेक रिपब्लिक (सभी दो सौ मीटर) तथा 20 जुलाई को चेक गणराज्य में आयोजित 400 मीटर दौड़ शामिल है। दरअसल, असम के एक छोटे से गांव से निकलने वाली हिमा दास उस समय सुर्खियों में आई जब जुलाई 2018 को उसने फिनलैंड में आयोजित आईएएएफ विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स चैंपियनशिप की 400 मीटर स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीता। इस स्पर्धा में भारत की किसी जूनियर या सीनियर महिला खिलाड़ी को पहली बार स्वर्ण पदक मिला था। असम के नौगांव जिले के एक सीमांत किसान के संयुक्त परिवार में जन्मी हिमा को अभावों की तपिश और कुदरत के सान्निध्य ने संवारा। खेतों की पगडंडियों पर दौड़कर उसने अपनी क्षमताओं को विस्तार दिया। नि:संदेह हिमा दास का पांच स्वर्ण पदक जीतना एक बड़ी उपलब्धि है मगर अभी उसे बड़ी स्पर्धाओं के लिये बहुत मेहनत करने की जरूरत है। हालिया स्पर्धाओं में उसका मुकाबला विश्व के चोटी के धावकों से नहीं था। दो सौ मीटर की स्पर्धा में उसने जो समय निकाला, वह उसके सर्वोत्तम समय से अधिक था। ओलंपिक स्पर्धाओं के लिये समय में और सुधार की जरूरत है। उसे अभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के उच्च प्रशिक्षण की जरूरत है। जब वह ट्रेक पर दौड़ती है तो घुमाव पर तेजी से नहीं दौड़ पाती, लेकिन जब अंत में ट्रेक सीधा हो जाता है तो वह दूरी बहुत तेजी से कवर करती है। अभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नई इबारत लिखने के लिये उसे अपना प्रदर्शन और सुधारने की जरूरत है। लेकिन एक बात जरूर है कि हिमा अपने लक्ष्य को लेकर जिद्दी और जुनूनी है। वह जब ठान लेती है तो लक्ष्य पाकर ही छोड़ती है। यही ललक हमारी उम्मीदें बढ़ाती है। उसकी मानसिक मजबूती उसे नई बुलंदियों तक ले जा सकती है। यही ताकत उसे चैंपियनों जैसा रुतबा देती है। बहरहाल, हिमा की उपलब्धियां खास जरूर हैं। यही वजह है कि अपनी स्वर्णिम सफलता से वह आज देश की उन चोटी की पत्रिकाओं के कवर पेज पर छाई है जहां तक पहुंचने के लिये सौंदर्य के तमाम मानक तय करने पड़ते हैं।