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हरियाणा के घरों की पोलियों में बिछे मुड्ढे और उन पर बैठे बुड्ढे। यह नज़ारा घर-घर में है। कहावत भी है कि घर की शोभा बूढ़ों से या मूढ़ों से। घर में जेवर, ज़मीन तथा ब्याह-शादियों से जुड़े सभी फैसले घर के बड़े बुजुर्ग ही करते हैं। मौसम की भविष्यवाणी करने में वे पारंगत हैं। पशुओं की बीमारी को वे अपने अनुभव से ही भांप लेते हैं और मौसम संबंधी उनकी भविष्यवाणी प्रायः सच ही निकलती है। इतना ही नहीं, वोट किसे डालकर आनी है, सरपंच किसे चुनना है, यह फैसला भी घर के बड़े-बूढ़े ही करते हैं। आरक्षण का मुद्दा हो या कोई और, अनशन पर कौन बैठेगा, धरने पर कौन जायेगा, यह भी घरों में बिछी खाटों पर बैठे बड़े बडेरे ही करते हैं। हरियाणा के गांवों में आज भी साझा चूल्हा है। ग्राम्यांचल में न तो जल्दी से ज़मीनों का बंटवारा होता है और न ही चूल्हे-चौके का। नतीज़ा यह कि भरे-पूरे परिवारों में हमारे वृद्धजन एकाकी अनुभव नहीं करते। उनका पूरा मान-सम्मान और धाक बरकरार है। उनकी पगड़ी की कड़क ज्यों की त्यों विद्यमान है। उनके हुक्कों की आग और पानी पूर्णतः सुरक्षित है। नगरों की वृद्ध आश्रम वाली सोच यहां से कोसों दूर है। हमारे गांवों में सरपंच अथवा पंच के चुनाव में जीते चाहे कोई भी पर चौधर मर्दों की मुट्ठी में ही रहती है। गांव के विकास के सभी फैसले मर्द ही करते हैं। महिलायें उन पर मोहर लगाने को बाध्य हैं। राजनीति के बदलते समीकरणों में कुछ शब्द तेज़ी से उभरकर आये हैं, जिनमें सरपंच पति, सरपंच पिता, सरपंच ससुर और सरपंच भाई शामिल हैं। महिला सरपंचों के सिर पर सत्ता का ताज सजा है और उनके नाम की मोहर ही कागज़ों पर लगती है पर व्यावहारिक रूप में उन्हें चौधराहट से दूर रहकर चूल्हे-चौके तक ही रहने की हिदायत है। गांवों में प्रायः हर घर के आंगन में गाय-भैंस दुम हिलाती मिल जायेंगी। पशु-प्रेम हरियाणा के लोगों का स्वभाव है और ज़रूरत भी। आठ-दस साल के बच्चे से लेकर घर के वृद्धजन तक शान से अपनी गाय-भैंसों को गांव के जोहड़ पर नहलाने ले जाते हैं। तभी तो यहां के घरों में दूध भरी बाल्टी हमारा स्वागत करती है। अब ग्रामीणजन आवभगत के लिये लस्सी या दूध भरा गिलास न देकर कैंपा-कोक की बोतल खोलते हैं। शिक्षा और तकनीक के चहुंमुखी विकास के बावजूद आज भी हरियाणा में बहू और दामाद ढूंढ़ते वक्त सबसे पहले उनके परिवारों की ज़मीन और पशुओं की संख्या का ब्योरा एकत्र किया जाता है। लड़का-लड़की चाहे कितने भी पढ़े-लिखे हों पर ज़मीन की किल्लत उनके भाग्य की इबारत को प्रस्फुटित ही नहीं होने देती। दूध-दही खाने वाले इस राज्य में आज भी ज़मीन के किल्ले और दुधारू पशुओं की संख्या के आधार पर व्यक्ति की औकात आंकी जाती है। जाति प्रथा की जड़ें आज भी हरियाणा को पूरी मजबूती से जकड़े हुए हैं। यही कारण है कि लोकतंत्र में भी यहां जाति आधारित विजय-पराजय होती है। अन्तरजातीय विवाह गांव वालों को फूटी आंख नहीं सुहाते। अपनी पसन्द से नौजवान यहां दुल्हन चुनने की स्वतंत्रता हरगिज़ नहीं रखते। वर चुनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। लड़कियां अपने विवाह की बात छिड़ने मात्र पर लज्जा का आवरण ओढ़ लेती हैं। शहरों में स्थिति इसके ठीक विपरीत है। जिन तीज-त्योहारों और परम्पराओं से शहरों ने कन्नी काट ली है, ग्राम्यांचल उन्हें सींच रहा है। गांवों में सबसे बड़ी तबदीली यह हुई है कि हर जन अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर समर्थ बनाना चाहता है। उनके सपनों में सरकारी नौकरी समायी रहती है। आमजन भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में भेज रहे हैं। वह भी एक ज़माना था जब घर के सारे बच्चों में एकाध ही पढ़ता- लिखता था। लड़कियों को कलम-कायदों से दूर रखा जाता था। अब शिक्षा का पूरा परिदृश्य तेज़ी से बदल चुका है। गर्ल एजुकेशन का ग्राफ पूरी रफ्तार से बढ़ रहा है। लड़कियां शिक्षा और खेलों में अपने लिये एक से बढ़कर एक मुकुट का निर्माण कर रही हैं। उनकी मेरिट और उपलब्धियों की टंकार दूर तक सुनी जा रही है। बढ़ते-बदलते हरियाणा की सबसे बड़ी खूबी यह है कि मात्र पचास सालों में गांव-गली से लेकर शहर और महानगरों तक में विकास की बयार तेज़ी से बह रही है। चाहे हरित क्रान्ति हो या श्वेत क्रान्ति अथवा औद्योगिक क्रान्ति या शिक्षा क्रान्ति, सभी क्षेत्रों में हरियाणा आज के दिन देश में अग्रणी है। खेल हो या खेत, फिल्म इन्डस्ट्री हो या साहित्य, व्यापार हो या कारोबार, सभी जगहों पर हरियाणावासियों ने अपनी पहचान दर्ज करवाई है। देश की फौज हो या पुलिस, राजनीति के गलियारे हों अथवा अफसरशाही की समर्थता के चर्चे, हरियाणा के धुरन्धरों ने लट्ठ गाड़ रखा है। कहा जा सकता है कि छोटे से इस राज्य ने अपनी सूझबूझ, सोच और श्रम के बल पर पचास सालों में स्वर्णिम अक्षरों से अपना इतिहास रचा है।