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हिलती शिक्षातंत्र की चूलें कैसे जगे आस खेलपथ संवाद नई दिल्ली। युवाओं के देश भारत में शिक्षा की स्थिति ताली पीटने वाली नहीं है। कुछ क्षेत्रों में आगे बढ़ने का मुगालता हम पाल सकते हैं लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में कतई नहीं। भारतीय अभिभावकों की सोच पर भी तरस आता है। वह अपने नौनिहाल को अच्छे मांटेसरी स्कूल में पढ़ाने का सपना संजोते हैं लेकिन जब युवा हो जाता है तब उनमें शासकीय कॉलेजों में पढ़ाने की ललक जगती है। इस फेर में बच्चे कहीं के नहीं रहते। ये ज्ञान की सदी है या अज्ञान की, हालात देखकर कुछ कहना कठिन है। हिमाचल की राजधानी, शिमला जनपद के एक कॉलेज में बीए के सत्तर विद्यार्थियों में से 63 का फेल हो जाना एक अफसोसजनक स्थिति को ही दर्शाता है। निस्संदेह, यह हमारी सामूहिक विफलता का जीवंत नमूना है। हमारे शिक्षा तंत्र की नाकामी है और सत्ताधीशों की संवेदनहीनता है। विडम्बना देखिए कि पूर्व मुख्यमंत्री की पहल पर कुपवी में खोले गये कॉलेज का एक पूरा शैक्षिक सत्र शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति के बिना निकल गया। ऐसे में छात्रों को ही फेल होने का पूरा दोष नहीं दिया जा सकता है। विडम्बना देखिये कि कॉलेज के लिए शिक्षकों के आठ पद स्वीकृत हुए थे। हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के प्रयासों से वर्ष 2021 में इस दूर-दराज इलाके में कॉलेज खोला गया था। निस्संदेह, उनके इस प्रयास की सराहना ही की जानी चाहिए। हर छात्र को शिक्षा हासिल करने का हक है, सत्ताधीशों को उनके इस अधिकार को हासिल करने में मदद करनी चाहिए। उसके बाद कॉलेज में पिछली जुलाई में छात्रों का प्रवेश आरंभ हुआ। विडंबना देखिए कि अभिभावक शिक्षक संघ के प्रयासों से सिर्फ दो ही निजी शिक्षकों की नियुक्ति हो पाई, जबकि एक भी नियमित शिक्षक की नियुक्ति नहीं हो पायी। ऐसे में छात्रों से बेहतर परिणाम की बहुत अधिक उम्मीद की भी नहीं जा सकती है। इस परीक्षा परिणाम के आलोक में यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि इन छात्रों का शैक्षिक स्तर इतना नीचे क्यों रहा कि बीए जैसी सामान्य परीक्षा वे पास नहीं कर सके। सवाल उनकी बारहवीं व दसवीं आदि परीक्षाओं की पढ़ाई को लेकर भी उठेंगे कि वे क्यों बीए जैसे सामान्य पाठ्यक्रम में उत्तीर्ण नहीं हो पाये। देश में लाखों छात्र ऐसे भी हैं जो मुक्त विश्वविद्यालयों से या प्राइवेट परीक्षार्थी के तौर पर बिना शिक्षक के स्नातक व स्नाकोत्तर परीक्षाएं उत्तीर्ण करते हैं। जाहिर ये सवाल स्कूलों में पढ़ाई के स्तर को भी रेखांकित करता है। कयास लगाए जा रहे हैं कहीं इस कॉलेज के प्रति शिक्षा विभाग व प्रशासन द्वारा अनदेखी के मूल में राजनीतिक कारण तो नहीं हैं? दरअसल, जिस जनपद में यह कॉलेज स्थित है, वह पूरे हिमाचल के शासन का केंद्र है। शिक्षा विभाग के मंत्री, सचिव व अन्य उच्च शिक्षा अधिकारी शिमला में बैठते हैं। फिर कैसे शीर्ष अधिकारियों को भान नहीं हुआ कि उनकी नाक के नीचे अज्ञान का अंधियारा पसर रहा है? कैसे एक भी शिक्षक के बिना एक कॉलेज में बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ होता रहा है? कहीं राज्य की सत्ता में आए बदलाव का खामियाजा तो इस स्कूल को नहीं भुगतना पड़ा? कहीं यह सोच तो नहीं कि विपक्षी नेता ने कॉलेज खुलवाया था? बहरहाल, कारण जो भी हो इस कॉलेज का परीक्षा परिणाम हमें गंभीरता से आत्ममंथन की नसीहत तो देता है। जो यह भी बताता है कि कैसे राजनेता जनता की वाहवाही लूटने के लिये विकास योजनाओं व शैक्षिक संस्थाओं के उद्घाटन की घोषणा कर देते हैं। पूछा जा सकता है कि बिना नियमित शिक्षक के कॉलेज को खुलने की अनुमति क्यों दी गई? दूसरी बात यह कि दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रों की अंग्रेजी का स्तर नीचा रहता है तो कम से कम बीए के छात्रों को अंग्रेजी शिक्षक तो उपलब्ध कराया जाना चाहिए था। बताया जा रहा है कि अधिकांश छात्रों के अंग्रेजी में ही कम नंबर आए हैं और कुछ छात्रों को पूरक परीक्षा भी देनी हैं। कुल मिलाकर तंत्र की काहिली का खमियाजा क्षेत्र के नौनिहालों को भुगतना पड़ा है। फलत: नये सत्र में प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या में खासी गिरावट आई है। फिर भी प्रासंगिक सवाल यह कि कक्षा एक से बारहवीं तक इन विद्यार्थियों को कैसी शिक्षा दी गई कि कला संकाय की स्नातक स्तरीय परीक्षा में वे उत्तीर्ण नहीं हो पाये? उन स्कूलों के शैक्षिक स्तर की भी पड़ताल जरूरी है। आज की गलाकाट स्पर्धा के दौर में जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता व कंप्यूटर साइंस जैसे विषयों के अध्ययन की दुनिया में होड़ मची है और हमारे बच्चे बीए में फेल हो जाएं तो इनका भविष्य क्या होगा?