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‘देसां मा देस हरियाणा, जहां दूध-दही का खाणा’ श्रीप्रकाश शुक्ला ग्वालियर। कुछ राज्यों के खेलनहार कहते तो बहुत कुछ हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं। हरियाणा ऐसा नहीं है। यहां की युवा तरुणाई खेलों में न केवल करिअर बनाती है बल्कि मादरेवतन का मान भी बढ़ाती है। कुछ राज्य आम जनता का पैसा खिलाड़ियों में बांटकर अपने आपको खेलों का उद्धारक जताने की बेजा कोशिश करते हैं। काश देश का कोई मुख्यमंत्री या खेल मंत्री कभी अपनी अंटी से खेलों के उत्थान की खातिर उन जमीनी खिलाड़ियों की मदद करता जिसकी कि उन्हें प्रारम्भिक समय में दरकार होती है। हरियाणा आज हर राज्य के लिए खेलों में नजीर बन चुका है, उसकी खेल-नीति को आत्मसात कर भारत को खेलों का सर्वशक्तिमान राष्ट्र बनाया जा सकता है। हाल ही इंग्लैंड के बर्मिंघम में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में हरियाणा के खिलाड़ियों ने पदकों की जैसी बरसात की है उससे सारा देश आह्लादित है। अक्सर कहा जाता है कि इस धरती में ऐसा क्या है जो इसके खिलाड़ी ओलम्पिक, एशियाई खेलों, विश्व-स्पर्धाओं व राष्ट्रमंडल खेलों के जरिये देश की झोली पदक से भरते हैं। कृषि संस्कृति के प्रदेश में अच्छी आबोहवा, खानपान व जूझने के जज्बे ने पदकों की चमक बढ़ाई है। सोने-चांदी के पदकों हेतु लालायित खिलाड़ियों के तेवर में आक्रामकता साफ नजर आई। उन्होंने जहां मैट पर खूब दांव खेले तो रिंग में जमकर वजनदार मुक्के बरसा कर प्रतिद्वंद्वियों को नाके चने चबवा दिए। यहां के खिलाड़ियों ने 23 मेडल जीतकर हर राज्य को बहुत पीछे छोड़ दिया। कुश्ती में तो हरियाणा के पहलवानों ने गोल्ड-कोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों का रिकॉर्ड तोड़कर छह गोल्ड पदक जीते। दो फीसदी आबादी वाले हरियाणा के खिलाड़ी चालीस फीसदी के करीब पदक ले आएं तो आश्चर्य मिश्रित खुशी होती है। टोक्यो ओलम्पिक खेलों के दौरान देश तब भी झूमा था जब एकमात्र स्वर्ण हरियाणा के नीरज चोपड़ा ने भाला फेंक में जीता था। कमोबेश यही स्थिति पैरा ओलम्पिक में भी रही है। तमाम विश्व चैम्पियनशिपों में भी हरियाणा के खिलाड़ी सोने-चांदी के पदक जीतते रहते हैं। दरअसल, जीत के जुनून का जज्बा हरियाणा के खिलाड़ियों की रगों में दौड़ने लगा है। राजाश्रय में ऐसी खेल संस्कृति जन्मी जो एक स्वस्थ स्पर्धा को जन्म देती है। अप्रत्याशित कामयाबी को देखकर एक बार प्रधानमंत्री ने एक खिलाड़ी से पूछा कि हरियाणा की धरती में ऐसा क्या है जो इतने विजेता खिलाड़ी सामने आते हैं। खिलाड़ी ने सहज भाव में कह दिया— ‘देसां मा देस हरियाणा, जहां दूध-दही का खाणा।’ बहरहाल, जीवट के जज्बे व शाकाहारी प्रांत में आज जो खिलाड़ियों की नर्सरी फल-फूल रही है उसमें राज्य सरकारों की नीतियों का भी हाथ रहा है। विगत में भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार के दौरान भी खेल व खिलाड़ियों को प्रोत्साहन के लिये जो रचनात्मक नीति क्रियान्वित की गई, उसके भी सार्थक परिणाम सामने आये। सरकारों ने खिलाड़ियों को नकद ईनाम व नौकरी में आरक्षण तथा प्लाट आदि अन्य सुविधाएं दीं, उसने खिलाड़ियों में जोश भरा। मनोहर लाल खट्टर सरकार ने इस पहल को और समृद्ध किया। राज्य में खेल सुविधाओं का सुनियोजित तरीके से विकास किया गया। खेलों की नवीनतम तकनीकें व प्रशिक्षण की आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। सुखद यह कि विश्व स्पर्धाओं में भाग लेने वाले खिलाड़ियों को प्रोत्साहन के लिये प्रतियोगिता से पहले नकद राशि उपलब्ध करायी गई। जीतने पर तो भारी-भरकम राशि का पुरस्कार अलग आकर्षण रहता है। नीरज चोपड़ा को ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीतने पर मिली छह करोड़ की राशि देश में सबसे बड़ी खेल प्रोत्साहन राशि होगी। पैरा ओलम्पिक खिलाड़ियों को भी आकर्षक राशि दी गई। यहां तक कि चौथे नम्बर पर आने वाले खिलाड़ियों को भी नकद राशि दी गई। जिसे देखकर देश के अन्य राज्यों के खिलाड़ी अक्सर सोचते हैं- काश, हम भी हरियाणा के लिये खेलते। बर्मिंघम राष्ट्रमंडल खेलों के पदक विजेताओं और इन खेलों में सहभागिता करने वाले खिलाड़ियों को भी हरियाणा सरकार ने आर्थिक प्रोत्साहन देने का ऐलान कर उनमें नई स्फूर्ति भर दी है। हरियाणा ही देश का पहला ऐसा राज्य है जहां खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाता है। इसके उलट कई राज्य बिना प्रशिक्षकों के ही खेलों में कायाकल्प करने का दिवा-स्वप्न देख रहे हैं।