News title should be unique not use -,+,&, '',symbols
विश्व एथलेटिक्स दिवस पर विशेष
श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर। खेलों में हर दिन और हर पल का महत्व है। खेलों को बढ़ावा देने के लिए हमारी हुकूमतें पिछले 75 साल से हाथ-पैर मारते हुए आर्थिक रूप से कमजोर मुल्क का बेशकीमती पैसा पानी की तरह बहा रही हैं। खेलो इंडिया, फिट इंडिया जैसे कार्यक्रम राष्ट्रीय खेल संगठनों तथा खेलनहारों की मौज-मस्ती का पैगाम साबित हो रहे हैं। खिलाड़ियों के नसीब में सिर्फ पसीना बहाना लिखा है सो वह बहा रहा है। आज विश्व एथलेटिक्स दिवस है। स्कूल-कॉलेजों में इस दिवस की महत्ता से परे चोचलेबाजी परवान चढ़ रही है। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी पापी पेट की खातिर मजदूरी कर रहे हैं और हम हैं कि सिर्फ स्वांग रचा रहे हैं।
1996 से विश्व एथलेटिक्स दिवस की चोचलेबाजी का आगाज हुआ। इस दिवस की महत्ता उन देशों के लिए ही उपयुक्त है जहां खिलाड़ियों, खेल प्रशिक्षकों तथा शारीरिक शिक्षकों को सम्मान की नजर से देखा जाता है। हमारे देश के लिए खेलों का कोई दिवस मायने नहीं रखता। मैं तत्कालीन इंटरनेशनल एमेच्योर एथलेटिक फेडरेशन अध्यक्ष प्रिमो नेबियोलो के मंतव्य को एक नेक पहल निरूपित करता हूं कि उन्होंने समूची दुनिया के युवाओं में खेलों की ललक पैदा करने की अपनी तरह से एक कोशिश की है।
विश्व एथलेटिक्स दिवस का उद्देश्य खेलों के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाना और युवाओं को खेल के महत्व के बारे में शिक्षित करना है। स्कूलों और संस्थानों में प्राथमिक खेल के रूप में एथलेटिक्स को बढ़ावा देने तथा युवाओं के बीच खेलों को लोकप्रिय बनाने की उनकी यह पहल स्वागतयोग्य है। उनकी मंशा पूरे विश्व के स्कूलों में एथलेटिक्स को नम्बर एक भागीदारी खेल के रूप में स्थापित करने की है लेकिन दुख और अफसोस की बात है कि जिस भारत जैसे देश में 70 फीसदी स्कूल-कॉलेजों में शारीरिक शिक्षक न हों वहां एथलेटिक्स दिवस के क्या मायने?
विश्व एथलेटिक्स दिवस का एक प्रमुख लक्ष्य भागीदारी के मामले में विश्वस्तर पर स्कूलों में एथलेटिक्स को शीर्ष खेल के रूप में स्थापित करना है। एथलेटिक्स महासंघ का मानना है कि शारीरिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए स्कूल सबसे अच्छी जगह हैं और कोई भी अन्य वातावरण बच्चों के पोषण और प्रशिक्षण की क्षमता के मामले में स्कूलों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता। महासंघ का मानना है कि एथलेटिक्स एक मुख्य खेल है जो बच्चों को अच्छी तरह से विकसित करता है और उन्हें अन्य शारीरिक गतिविधियों में फलने-फूलने की अनुमति देता है। यह सौ फीसदी सच है लेकिन भारत जैसे नंगपन के आगोश में समाये खेलतंत्र के लिए यह सिर्फ मजाक है।
हर चार साल बाद जब फ़ुटबॉल विश्वकप, ओलम्पिक, एशियाड और राष्ट्रमंडल खेलों का मौसम आता है तो ये सवाल अपने आप खड़ा हो जाता है कि हममें वह काबिलियत क्यों नहीं? यह सवाल हमें लगातार शर्मिंदा करता है कि हमारे कुल घरेलू उत्पाद की दर जहां दुनिया के समृद्ध देशों को भी पीछे छोड़ रही है, वहीं हम अंतरराष्ट्रीय खेलों के पहले पायदान पर भी नहीं पहुंच पाए हैं। आरोप-प्रत्यारोप के इस चक्र में शक की सुई घूम कर जाती है, खेल अधिकारियों की ओर जिन्होंने खेल का स्तर सुधारने की तरफ लेशमात्र ध्यान ही नहीं दिया। खेल संगठनों में पनपते भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और निहित स्वार्थ के कारण एक अरब 35 करोड़ से ज्यादा की हमारी आबादी मात्र दर्शक बनी रह गई।
आंकड़ों को देखें तो दुनिया भर में खेलों की लोकप्रियता बढ़ाने में भारत का सबसे बड़ा योगदान है। लेकिन भारत में कितने खिलाड़ी हैं और कितने दर्शक, ये अंतराल भी दुनिया के किसी और देश में देखने को नहीं मिलता। हर चार साल बाद जब ओलम्पिक खेलों का मौसम आता है, तब अटकलें लगाई जाती हैं कि कौन सा देश कितने पदक ले जाएगा, तब भी हमारा कोई भी जवाबदेह खेलनहार यह बताने की स्थिति में नहीं होता कि आखिर भारत कितने मेडल लाएगा। आखिर क्यों?
हम उन खिलाड़ियों की मेहनत को सलाम करते हैं जिनके बूते बार-बार दुनिया के सामने कम से कम मुल्क शर्मसार होने से तो बच जाता है। 75 साल बाद भी खेलों के औसत स्तर को भी न छू पाने का हर हिन्दुस्तानी को तो मलाल है लेकिन बेशर्म खेलनहारों की आंख का पानी फिर भी नहीं मरता। इस सवाल का जवाब काफी जटिल है और यहां इसकी परतों को खोलने की कोशिश करना भी बेकार होगा। क्रिकेट की जहां तक बात है, दुनिया भर में बनी अपनी छवि पर हम गर्व कर सकते हैं लेकिन यह तथ्य भी हमारी शर्मिंदगी को कम नहीं कर सकता क्योंकि दुनिया के कुछ देश ही इस खेल में अपना हाथ आजमाते हैं।
मेरे विचार से खेलों की दुनिया में हमारे पिछड़ने के कई कारण हैं। आमतौर पर अनदेखा कर दिया जाने वाला एक बड़ा कारण है, आर्थिक विकास में असंतुलन। इसी आर्थिक असंतुलन की वजह से हमारा वर्गीकृत समाज, सदियों से अपने ही लोगों को हेय समझता रहा है। ये वर्गीकृत समाज उनके विकास के बारे में सोचने की जरूरत भी नहीं समझता। दुनिया भर में अधिकतर खिलाड़ी निम्न, मध्यवर्ग से आते हैं। गांवों और कस्बों से आए हुए ये गरीब लोग खेलों में प्रशिक्षण लेते हैं, उन्हें सारी सहूलियतें मिलती भी हैं या नहीं इसे देखने वाला कोई नहीं है। एक व्यवस्था होती है, जहां कोई ‘अपना एक अलग वर्ग’ नहीं बना सकता। खेलों ने दुनिया से भेदभाव हटाकर उसे सिर्फ एक वर्ग में समेट लिया है और ये तथ्य फुटबॉल में सबसे अधिक सही साबित हुआ है। एक कुपोषित राष्ट्र की जगह, एक समानतावादी समाज में खेलों के चैम्पियन पैदा होने के अवसर सबसे अधिक होते हैं।
हमारे मुल्क के खेल उन हाथों में हैं जिन्हें खिलाड़ियों का मर्म और उनकी जरूरतें पता ही नहीं हैं। कुछ नंगे-भिखमंगे खेलनहार अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजनों में शिरकत करना ही अपनी शान समझते हैं, यही वजह है कि खिलाड़ियों की संख्या से अधिक विदेशी दौरे करने वाले अनाड़ियों की होती है। टोक्यो ओलम्पिक में भारत ने सिर्फ सात मेडल जीते लेकिन देश का प्रधानमंत्री तक इस कदर बौरा गया कि उसने ओलम्पिक में शिरकत करने वाले दल को तीन दिन तक दिल्ली में जलसा दिया और अपने मन की बात सुनाई। काश कोई उन खिलाड़ियों की भी बलैयां ले जोकि मादरेवतन का मान बढ़ाने के लिए मेहनत-मजदूरी करते हैं तथा नादरशाह खेलनहारों द्वारा दुतकारे जाते हैं।